जय भीम-जय मीम की लक्ष्मण रेखा

 जय भीम-जय मीम की लक्ष्मण रेखा

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विजय मनोहर तिवारी


दलित कही गई जातियों के लिए ईसाई या इस्लाम का आकर्षण क्या था? अगर मतांतरण का कोई सैद्धांतिक आधार था, तो क्या था?  वे एक ऐसे लोक लुभावन विशाल तंबू के आमंत्रण थे, जिसमें कोई जाति विभाजन नहीं है और जहां एक मालिक के सामने सबकी हैसियत बराबर हैं। 


आज यह साबित हो चुका है कि वह बराबरी का तथाकथित सैद्धांतिक प्रावधान था। एक झांसा। आंखों में झोंकी गई धूल! एक किस्म की मृग मरीचिका। चुनावी घोषणापत्र जैसा। कि आप हमे समर्थन दो, हमारे परचम तले आ जाओ, हमारी ताकत बढ़ाओ और आपको आपके ख्वाबों का संसार हम दे देंगे। भेदभाव से भरे हुए इस समाज को छोड़ दो।


ऐसे घोषणापत्र जितने लुभावने और फर्जी होते हैं, यह भी वैसा ही छलावा साबित हो रहा है। ये सैद्धांतिक दिखावे किसी तरफ से लालच के थे और किसी की तरफ से धोखे के। धर्मांतरण का पूरा खेल धोखाधड़ी की बुनियाद पर ही टिका है। 


आजादी के पहले अंग्रेजों के समय इसकी शक्ल कुछ अलग थी। अंग्रेजाें के आने के पहले की गुलामी के दौर में मानो या मरो के ही विकल्प थे। जो मान गए वे अपना धर्म खो बैठे। जो मारे गए, उनके भी नामोनिशान मिट गए। अपने पुरखों के मूल नामोनिशान दोनों ने गंवा दिए।


किसने किसको ताकत दी और कौन कमजोर का कमजोर ही बना रहा? किसके हिस्से में मजा आया और किसके हिस्से में सजा आई? आरक्षण के दायरे में आने की मांग के शोर में हमें इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए।


वह सैद्धांतिक दिखावा यह था कि हमारे मजहब में कोई जाति-पाति नहीं है। कोई भेदभाव नहीं है। मगर यह कुएं में से निकलकर खाई में गिरने का अनुभव सिद्ध हुआ। अब वे खाई में गिरे लोग कह रहे हैं कि ईसाई या इस्लाम के झंडे थामने के बावजूद हमारी गैर बराबरी गई नहीं है। जातियां यहां भी वैसी ही जड़ हैं। भेदभाव वही का वही है। हम वैसे के वैसे दलित बने हुए है। मजहबी आवरण नया ओढ़ने के बावजूद चौबीस कैरेट दलित! इन नई पहचानों ने हमारी एक कैरेट चमक भी कम नहीं की है। 


तो मी लॉर्ड, जैसा उधर हिंदुओं के छत्र में दलितों को आरक्षण नामक अस्त्र दिया गया है, वह हमें भी दे दिया जाए। ये देखिए हम भी दलित ही हैं, हम भी पिछड़े ही हैं, हमारे जाति प्रमाणपत्र देख लीजिए! हमारे पास पूरे कागजात हैं! हम दिखाने के लिए तैयार भी हैं।


संवैधानिक सूराखों से सरकते हुए ऐसे धर्मांतरित और तथाकथित दलितों के ये आग्रह दरअसल बता क्या रहे हैं, यह भारतीय समाज और भारतीय शासन के नीति निर्धारकों के लिए बहुत गंभीरता से विचारणीय होना चाहिए। 


यह आरक्षण के फायदों को बटोरने के लिए उठा एक और शाेरशराबा नहीं है। यह जहां से उठ रहा है, उन तंबुओं के भीतर तांकझांक का एक अवसर है। एक विहंगावलोकन। क्योंकि वे तंबू अब भी सजे हुए हैं। उनके घोषणापत्र बंटना बंद नहीं हुए हैं। 


यह माँग साफतौर पर यह बता रही है कि ईसाई और इस्लाम के पंथों में बराबरी की बातें एक झूठ हैं। किसी कालखंड में कोई दलित अगर इनके फरेब में आकर रास्ता बदल बैठा तो अब वह यह बता रहा है कि वह बुरी तरह ठगा गया। यहां कोई बराबरी नहीं है और मत बदलने भर से उसका धेले का उन्नयन नहीं हुआ। 


वह पीढ़ियों से वहीं का वहीं खड़ा है। यह आवाज दलित समाज को एक चेतावनी है कि जय भीम की सीमा उनके लिए एक अंतिम लक्ष्मण रेखा है। उस रेखा के पार कोई साधु वेश में  ही बैठा है और उसके पास कोई पुष्पक विमान नहीं है, न ही कोई अशोक वाटिका में वह ले जाने वाला है। उस फकीर की कोशिश कैसे भी आपको रेखा के बाहर खींच लाने की है। वह खाई की तरफ पहला कदम होगा।


यही जय भीम और जय मीम की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ है। किसी समाज का दूरगामी भला चाहने वाले दूरदृष्टि संपन्न लीडर बाबा साहेब अांबेडकर ने अपनी किताबों में इस लक्ष्मण रेखा के पार के साधु का चरित्र बहुत स्पष्ट रूप से वर्णित किया है। उनके ही समय के दूसरे लीडर उस साधु वेश को सोने का हिरण समझकर मोहित हो बैठे और निर्दोष नागरिकों को उसके पीछे लगा दिया। 


अब वे सारे फरेब उजागर हो चुके हैं। सच्चाई हर कोने से अपना चेहरा दिखा रही है। 


वनवासी अंचलों में किसी दूसरे फकीर के झांसे में आकर ठगे गए लोग उनकी हकीकत सामने ला रहे हैं अगर वे कह रहे हैं कि हमने भले ही गले में क्रॉस टांग लिए हों मगर हम उस सूली पर अब भी टंगे हुए हैं, जिससे उतरने का वहम हमने अपनी पहचान बदलते समय पाला था। हम जाति भेद की सूली से कभी उतरे ही नहीं। इससे तो वही सूली बेहतर थी, कम से कम आरक्षण की एक सीढ़ी तो मुहैया थी ताकि हम भी उतरकर एक समतल जमीन पर आ सकें। अब उस सीढ़ी की मांग यह सबूत है कि परमात्मा के पुत्र जीसस क्राइस्ट के नाम से जो मदर और फादर हमारे सिर पर हाथ फेर रहे थे, उनके इरादे कुछ थे और वे सिर्फ अपनी संख्या बढ़ा रहे थे। वे सिर्फ अपने जत्थों को ताकत दे रहे थे। उन्हें इस हम्माली के ऊंचे दाम विदेशी फंड से हासिल हो रहे थे। वे हमें उसी सूली पर टंगा हुआ छोड़कर दूसरे वनवासी अंचलों में यही करते रहे। सरकार अब हमें आरक्षण की सीढ़ी दे दे।


इस सीढ़ी की मांग गले में क्रॉस सहित उतरने की है। इस सीढ़ी की चाहत सिर पर टोपी सहित सरकारी पदों पर एक दलित के रूप में आसीन होने की है। मगर इससे क्या होगा? क्या बात को तूल दी जा रही है?


अब सरकारी दफ्तरों में क्या दृश्य बनेगा, यह देखिए। एक हिंदू दलित, जिसकी चौथी पीढ़ी लोकतंत्र में खुद को सबल कर रही है, अपने पास किसी पीढ़ी में भटककर ईसाई या मुस्लिम हुए दलित से लंच में मिलेगा। एक के सिर पर टोपी, दूसरे के गले में क्रॉस होगा और वे दोनों हाथ में कलावा बांधने वाले हिंदू दलित से रूबरू हांेगे, अपने नए मजहबी दुराग्रहों के साथ। वे सब एक ही सीढ़ी का इस्तेमाल करके आए हुए लोग होंगे। 


मनमोहन देसाई होते तो उन्हें अमर, अकबर, एंथोनी नए ढंग से बनानी पड़ती। तीनों किरदार एक सरकारी दफ्तर में लिपिक होते। तीनों ही दलित। क्या कहानी बनती? अमर कुमार, अकबर रंगरेज और एंथोनी टोप्पो! खुदा न खास्ता अकबर IAS बन जाता तो कानपुर के इफ्तखारुद्दीन की तरह सरकारी बंगले में तब्लीग की कव्वाली के सीन में आता। 


क्या वह हिंदू दलित यह सवाल नहीं करेगा कि जनाब आप और आपके रहनुमा तो बराबरी की बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे और हमारे धर्म का मजाक उड़ाया करते थे, अब वो हेकड़ी कहां गई? क्या आपको अपने ठगे होने का अहसास अब भी नहीं है? जिस टोपी को आप राजमुकुट समझ रहे थे, उसने आपको आरक्षण की मांग करने वाली भीड़ का हिस्सा ही तो बनाकर रखा, दीन की ताकत कहां गई? आपकी पीढ़ियाँ ठगी जा चुकी हैं और वह झूठे वहम की पोटलियां अब भी आपके सिर पर धरी हैं, गले से बंधी हैं। तंबू से बाहर ही आ जाइए। अपने पुराने तंबू अब उतने बुरे भी नहीं हैं।


भारतीय लोकतंत्र के खुलेपन और उदारता से भरे आकाश में हर तरह के परिंदों को उड़ान भरने की आजादी है। मगर वे सब अपने घोंसलों में लौटने के लिए ही उड़ानें नहीं भर रहे हैं। यह आसमान ऐसे चीलों और गिद्धों से भरा हुआ है, जिनकी उड़ानें लगती लुभावनी हैं मगर होती प्राणघातक हैं। इन शिकारी परिदों के शोरशराबे और चीख-पुकारें समय के साथ बदलती रहती हैं। बस शिकार पर चौकन्नी नजर ही एक ऐसी बला है, जो कभी नहीं बदलती। 


अगर भारत की सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं में समाज का दूर का भला सोचने और देखने वाले बैठे हैं तो उनके आज के निर्णय कल के भारत की शक्ल तय करेंगे। जैसा कि कल के भारत के नीति निर्धारकों के निर्णयों ने आज जैसा भारत बनाकर छोड़ा है!

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