"जो व्यक्तियों के मरते रहने पर भी अमर रहनेवाला है,

 "जो व्यक्तियों के मरते रहने पर भी अमर रहनेवाला है, जो अमरत्व का रक्षक 'अमृतस्य गोपा' है, यह अग्नि इस सब संसार को ज्ञान, चैतन्य, स्फूर्ति दे रहा है। यह वह अग्नि है जिसमें या जिसके द्वारा यह संसाररूपी महान् यज्ञ हो रहा है।"

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स इत्तन्तुं स वि जानात्योतुं स वक्त्वान्यृतुथा वदाति। 

य ई चिकेतेदमृतस्य गोपा अवश्चरम्परो अन्येन पश्यन्।।

-ऋ०६।९।३

ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। 

देवता - वैश्वानरः। 

छन्दः - प्रस्तार पङक्तिः।

विनय - मैं नहीं जानता कि यह जो संसाररूपी वस्त्र बुना जा रहा है उसका तान क्या है, बाना क्या है, और जब कभी बुनते हुए इसका कोई तन्तु टूट जाता है तो उसे जोड़ने वाला कौन है। हाँ, वह वैश्वानर अग्नि अवश्य जानता है। वह ही इस संसाररूपी वस्त्र के लिए ताना तनना और बाना भरना जानता है। वह अग्नि ऋक् [ज्ञान] के ताने में यज (कर्म) का बाना डालता हुआ इस महायज्ञ के वस्त्र को निरन्तर बुन रहा है, और यही समय-समय पर किसी ज्ञानतन्तु के विच्छिन्न होने पर नया ज्ञान देने द्वारा, वक्तव्य के बोलने द्वारा, उसे जोड़ता रहता है।

यह वैश्वानर अग्नि कौन है ? यह वह अग्नि है जो इस विश्व-शरीर का अग्नि है, जोकि असंख्यों व्यष्टि (वैयक्तिक) अग्नियों को समष्टि (सामूहिक) अग्नि से एक करनेवाला है, अतएव जो व्यक्तियों के मरते रहने पर भी अमर रहनेवाला है, जो अमरत्व का रक्षक 'अमृतस्य गोपा' है। यह अग्नि इस सब संसार को ज्ञान, चैतन्य, स्फूर्ति दे रहा है। यह अपने व्यष्टिरूप से जहाँ नीचे पृथिवी पर पैर बनकर विचर रहा है, वहाँ यह अपने समष्टिरूप से ऊपर द्युलोक में नेत्र होकर सबको देख रहा है। भाइयो ! क्या तुमने 'वैश्वानर अग्नि' को पहचाना? यह वह अग्नि है जिसमें या जिसके द्वारा यह संसाररूपी महान् यज्ञ हो रहा है।

शब्दार्थ - (सः) वह वैश्वानर अग्नि (इत्) ही (तन्तुं) ताना तनने को और (सः) वही (ओतुं) बाना करने को (विजानाति) जानता है, (सः) वह (ऋतुथा) समय-समय पर (वक्त्वानि) वक्तव्य ज्ञानों को भी (वदाति) बोलता है, प्रकाशित करता है। (यः) जो [वैश्वानर अग्नि] (अमृतस्य गोपाः) अमरत्व का रक्षक हो (अवः) इधर नीचे (चरन्) चलता हुआ और (परः) ऊपर-ऊपर (अन्येन) अपने दूसरे रूप से (पश्यन्) देखता हुआ (ई) इस संसार को (चिकेतत्) जान रहा है, इसमें ज्ञान-चैतन्य दे रहा है। 

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स्रोत - वैदिक विनय। (मार्गशीर्ष १४)

लेखक - आचार्य अभयदेव।

प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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