*केवल हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा

 [13:35, 8/9/2022] Da Vivek Arya Delhi: *केवल हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा 


 सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ-साफ कहा है कि ‘‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’’ (8 अप्रैल 2019)। सुप्रीम कोर्ट हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को कई बार अनुचित कह चुकी है। उस ने चिदंबरम के प्रसिद्ध नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश 2014 ई. में दिया था। इस के अलावा भी दो वैसे फैसले आ चुके हैं। फिर भी, जहाँ-तहाँ विभिन्न राज्य सरकारें हिन्दू मंदिरों पर कब्जा बनाए हुए हैं।


इस के विपरीत, किसी चर्च, मस्जिद या गुरुद्वारे को सरकार कभी नहीं छूती। क्या इस से बड़ा धार्मिक अन्याय, और संविधान में मौजूद ‘नागिरक समानता’ का मजाक संभव है? जो दलीलें हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा रखने के पक्ष में दी जाती हैं, वह सब मस्जिदों, चर्चों पर भी लागू हैं। किन्तु केवल हिन्दू मंदिरों पर कब्जा है, शेष सभी समुदाय अपने-अपने धर्म-स्थान स्वयं चलाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं!


 पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बोवड़े ने कहा, “मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?” उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण भी दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं भी होती रही हैं। कारण यही है कि भक्तों के पास देवमूर्तियों की रक्षा का अधिकार ही नहीं है!  जिन्होंने वह अधिकार ले लिया है, वे उसी तरह बेपरवाह काम करते हैं जैसे सरकारी विभाग। यही नहीं, वे धार्मिक गतिविधियों, रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं। कई बार अनजाने, तो कई बार जान-बूझ कर भी। सरकारी अफसरो को तो मात्र नागरिक शासन चलाने की ट्रेनिंग मिली है। इसलिए कोई अफसर अपने वैचारिक पूर्वग्रह, अज्ञान या मतवादी कारणों से हिन्दू रीतियों के प्रति उदासीनया या दुराग्रह भी दिखा सकता है।


अभी देश भर में 4 लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। एक भी चर्च या मस्जिद पर नहीं। अकेले आंध्र प्रदेश में 34 हजार मंदिर सरकारी कब्जे में हैं। कम से कम 15 राज्य सरकारें उन लाखों मंदिरों पर नियंत्रण रखती हैं। मंदिरों के प्रशासक नियुक्त करती है। वे जैसे ठीक समझें व्यवस्था चलाते हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार अलग। इस बीच, जैसा सरकारी विभागों में प्रायः होता है, मंदिरों के कोष और संपत्ति के मनमाने उपयोग, दुरूपयोग के समाचार आते रहते हैं। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सत्ताधारी बहुते पहले से मंदिरों की आय का उपयोग ‘अल्पसंख्यक’ समुदायों को विविध सहायता देने में करते रहे है। यह निस्संदेह हिन्दू-विरोधी कार्य भी है। सर्वविदित है कि कुछ बाहरी धर्म हिन्दू धर्म पर प्रहार करते रहे हैं, छल-बल से हिन्दुओं का धर्मांतरण कराते रहे हैं, अपने दबदबे के इलाकों में उन्हें मारते-भगाते रहे हैं। उन्हीं समुदायों को हिन्दू मंदिरों की आय से सहायता देना सीधे-सीधे हिन्दू धर्म को चोट पहुचाने के लिए ही सहायता देना है!


इस बीच, राजकीय कब्जे वाले हिन्दू मंदिरों के पुजारी मूक दर्शक बना दिए गए हैं। उन्हें अपने ही मंदिरों की देख-रख से वंचित या बाधित कर दिय़ा गया। वे मंदिरों के पारंपरिक शैक्षिक, कला, संस्कृति या सेवा संबंधी कार्य नहीं कर सकते जो अंग्रेजों के शासन से पहले तक होते रहे थे। जैसे, पाठशालाएं, वेदशालाएं, गौशालाएं, चिकित्सालय अथवा शास्त्रीय नृत्य आयोजन, आदि।


इस प्रकार, हिन्दू मंदिर के पुजारियों की तुलना में किसी मस्जिद के ईमाम या चर्च के बिशप की सामाजिक स्थिति और मजबूत होती है। वे अपने समुदाय को समर्थ, सबल बनाने के लिए मस्जिद और चर्च का बाकायदा इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। यह भी तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं की एक गंभीर हानि है, जिसे हिसाब में लेना चाहिए। विशेषकर भारत में यह हानि अब अधिक खतरनाक है।


अभी कुछ सत्ताधारी कोरोना-संकट में धन की कमी को मंदिरों में मौजूद सोना से पूरा करने की योजना बना रहे हैं या बना चुके थे। हाल में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री पृथ्वीराज चौहान ने इस की खुली माँग की। कई बार मंदिरों में जमा सोने को सरकार दबाव देकर जबरन रूपयों में बदलवाती है, ताकि उस पैसे का उपयोग कर सके। इस बीच, सोने को रूपये में बदल लेने से आगे जो घाटा होगा वह अलग।


यह सब हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध अनुचित, पक्षपाती जबर्दस्ती है। जो इसीलिए चल रही है क्योंकि मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। वे किसी मस्जिद या चर्च की संपत्ति से राजकीय कोष की जरूरत पूरी करने की नहीं सोचते। मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना संविधान के अनुच्छेद 25-26 का भी उल्लंघन है। पर कौन क्या करे, जब बाड़ ही खेत को खाने लगे!


फिर, सरकारी कब्जे के कारण मंदिरों से 13-18 प्रतिशत अनिवार्य सर्विस-टैक्स वसूला जाता है। यह भी मस्जिदों या चर्चों से नहीं वसूला जाता। कई मंदिरों में ‘ऑडिट फीस’, ‘प्रशासन चलाने’ की फीस, इन्कम टैक्स, और दूसरे तरह के टैक्स भी लगाए जाते हैं! जबकि उन्हीं मंदिरों में वेद-पाठ करने वालों, अर्चकों, आदि को जो पारंपरिक दक्षिणा आदि मिलती थी, वह नहीं मिलती या नगण्य़ मिलती है। किसी-किसी मंदिर की आय का लगभग 65-70 प्रतिशत तक विविध मदो में सरकार हथिया लेती है। जैसे, पलानी (तमिलनाडु) के दंडयुतपाणि स्वामी मंदिर में।

 

मूल लेखक

डॉक्टर शंकर शरण

[13:35, 8/9/2022] Da Vivek Arya Delhi: पिछले कुछ सालों से एक झूठ फैलाया जा रहा है कि सनातन धर्म के ग्रन्थों में पैगम्बर और इस्लाम के बारे में लिखा गया है. इस तरह की गप्प को जाकिर नायक ने बहुत अधिक प्रचारित किया. लगभग 10 किताबें इस विषय पर मुस्लिम संस्थाओं ने छापी हैं. चित्र उसी तरह की एक किताब का है. वास्तव में यह कोशिश नई नहीं है. बहुत साल पहले भी यह छल कपट किया जा चुका है. उसका विवरण पढ़ें-

जिन दिनों महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश का द्वितीय संशोधित संस्करण के सम्पादन-प्रकाशन कार्य में व्यस्त थे, उन दिनों कलकत्ता से निकलने वाले 'भारत मित्र' नामक एक पत्र के श्रावण 6 गुरुवार वि. सं. 1940 के अंक में छपा था कि मुसलमानों के मजहब का मूल अथर्ववेद में है और इस सम्बन्ध में अल्लोपनिषद् का उल्लेख भी किया गया था।

यह समाचार पढ़कर महर्षि ने उक्त पत्र के सम्पादक को एक पत्र लिखा। महर्षि का यह पत्र 'ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन' में पढ़ा जा सकता है (पृ. 447-448, द्वितीय संस्करण)।

इसीलिए सत्यार्थ प्रकाश के कुरआन की समीक्षा विषयक 14वें समुल्लास के अन्त में महर्षि ने अल्लोपनिषद् की वास्तविकता प्रकट करने के लिए अपने निम्नलिखित विचार व्यक्त किए हैं -

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"अब एक बात यह शेष है कि बहुत से मुसलमान ऐसा कहा करते और लिखा वा छपवाया करते हैं [यह संकेत भारत मित्र के उपर्युक्त लेख की ओर है] कि हमारे मज़हब की बात अथर्ववेद में लिखी है। इसका यह उत्तर है कि अथर्ववेद में इस बात का नाम निशान भी नहीं है।

(प्रश्न) क्या तुमने सब अथर्ववेद देखा है? यदि देखा है तो अल्लोपनिषद् देखो। यह साक्षात् उसमें लिखी है। फिर क्यों कहते हो कि अथर्ववेद में मुसलमानों का नाम निशान भी नहीं है? 'अथाल्लोपनिषदं व्याख्यास्यामः... इत्यल्लोपनिषत् समाप्ता॥' जो इसमें प्रत्यक्ष मुहम्मद साहब रसूल लिखा है इससे सिद्ध होता है कि मुसलमानों का मत वेदमूलक है।

(उत्तर) यदि तुमने अथर्ववेद न देखा हो तो हमारे पास आओ, आदि से पूर्त्ति तक देखो अथवा जिस किसी अथर्ववेदी के पास बीस काण्डयुक्त मन्त्रसंहिता अथर्ववेद को देख लो। कहीं तुम्हारे पैग़म्बर साहब का नाम वा मत का निशान न देखोगे। और जो यह अल्लोपनिषद् है वह न अथर्ववेद में, न उसके गोपथ ब्राह्मण वा किसी शाखा में है। यह तो अकबरशाह के समय में अनुमान है कि किसी ने बनाई है। इस का बनाने वाला कुछ अर्बी और कुछ संस्कृत भी पढ़ा हुआ दीखता है क्योंकि इसमें अरबी और संस्कृत के पद लिखे हुए दीखते हैं। देखो! (अस्माल्लां इल्ले मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते ) इत्यादि में जो कि दश अंक में लिखा है, जैसे—इस में (अस्माल्लां और इल्ले) अर्बी और (मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते) यह संस्कृत पद लिखे हैं वैसे ही सर्वत्र देखने में आने से किसी संस्कृत और अर्बी के पढ़े हुए ने बनाई है। यदि इसका अर्थ देखा जाता है तो यह कृत्रिम अयुक्त वेद और व्याकरण रीति से विरुद्ध है। जैसी यह उपनिषद् बनाई है, वैसी बहुत सी उपनिषदें मतमतान्तर वाले पक्षपातियों ने बना ली हैं। जैसी कि स्वरोपनिषद्, नृसिंहतापनी, रामतापनी, गोपालतापनी बहुत-सी बना ली हैं।

(प्रश्न) आज तक किसी ने ऐसा नहीं कहा, अब तुम कहते हो। हम तुम्हारी बात कैसे मानें?

(उत्तर) तुम्हारे मानने वा न मानने से हमारी बात झूठ नहीं हो सकती है। जिस प्रकार से मैंने इसको अयुक्त ठहराई है उसी प्रकार से जब तुम अथर्ववेद, गोपथ वा इसकी शाखाओं से प्राचीन लिखित पुस्तकों में जैसे का तैसा लेख दिखलाओ और अर्थसंगति से भी शुद्ध करो तब तो सप्रमाण हो सकता है।"

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स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश का 'सत्यार्थ भास्कर' नामक दो भागों में विस्तृत भाष्य लिखा है। उसमें उन्होंने अल्लोपनिषद् के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें लिखीं हैं -

अल्लोपनिषद् : इस विषय में अभी तक भी भ्रान्ति बनी हुई है। सन् 1947 के मई मास में महात्मा गाँधी दिल्ली में ठहरे हुए थे। उनकी प्रार्थना में वेद, उपनिषद्, गीता, बाइबल आदि के अंश नियमित रूप से बोले जाते थे। कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगता था। गाँधीजी तक भी यह बात पहुंची। तब एक दिन उन्होंने प्रार्थनोपरान्त प्रवचन में कहा - 'हिन्दू लोग मेरी प्रार्थना में कुरान शरीफ की आयतों के पढ़े जाने पर क्यों आपत्ति करते हैं, जबकि उनकी उपनिषदों में एक अल्लोपनिषद् भी है।' इस पर मैंने गाँधीजी को भेजे अपने एक पत्र में लिखा - 'आपका यह कहना ठीक नहीं है कि हिन्दुओं द्वारा मान्य उपनिषदों में एक अल्लोपनिषद् भी है। मेरे पास वर्तमान में उपलब्ध सभी 108 उपनिषदें हैं। उनमें अल्लोपनिषद् नाम की कोई उपनिषद् नहीं है। उसका अता-पता देने की कृपा करें।' गाँधीजी ने उत्तर में लिखा - 'मुझे मेरे एक मित्र ने बताया था कि उसने किसी पुस्तक की भूमिका में लेखक द्वारा उद्धृत प्रमाण के आधार पर ऐसा कहा था।’ मैंने प्रत्युत्तर में गाँधीजी को लिखा कि - 'आप जैसे महापुरुष को, जिनकी वाणी या लेखनी से निकला हुआ एक-एक शब्द महत्त्वपूर्ण होता है, सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ऐसा वक्तव्य नहीं देना चाहिए। अब मैं आपको अल्लोपनिषद् की जानकारी देता हूं। आप जानते हैं कि मुगल सम्राट् अकबर ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए 'दीने इलाही' के नाम से एक मत चलाया था। प्रत्येक मत का एक धर्मग्रन्थ भी होता है। अल्लोपनिषद् अकबर द्वारा बनवाये गये ऐसे ही धर्मग्रन्थ का नाम है। अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में रचित इस ग्रन्थ में अल्ला, ब्रह्म, ऋषि, मुहम्मद, अकबर, अथर्व, उपनिषद्, यज्ञ, अन्तरिक्ष, माया आदि शब्दों को देखकर आपातत: इसके हिन्दुओं और मुसलमानों में समानरूप से मान्य धर्मग्रन्थ होने का भ्रम हो सकता है, किन्तु वास्तव में इसका वेद, उपनिषद् आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है ।' (सत्यार्थ-भास्कर, भाग-2, पृ. 795-6)

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