गौभक्तों का महानतम बलिदान.

 गौभक्तों का महानतम बलिदान.

शोर्य दिवस - 18 सितम्बर, 1918 ई. कटारपुर, हरिद्वार, उत्तराखण्ड.

सन 1918 में ग्राम कटारपुर, हरिद्वार के मुसलमानों ने बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गोहत्या की घोषणा की, मायानगरी हरिद्वार के मायापुरी क्षेत्र में कभी ऐसा घोर अनर्थ नहीं हुआ था.

अतः हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की, पर वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह सब कुकर्म हो रहा था, हरिद्वार थाने में शिवदयाल सिंह थानेदार थे, उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया. अतः हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो, पर गोहत्या नहीं होने देंगे. तत्कालीन समय 17 सितम्बर सन 1918 को बकरीद थी, हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ, पर अगले दिन मुसलमानों ने पांच गायों को सार्वजनिक रुप से जुलूस निकालकर सरेआम कुर्बानी, कत्ल करने हेतु उन्हें इमली के पेड़ से बांध दिया.

वे "नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर" जैसे नारे लगा रहे थे, दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों वीर गौभक्त निर्भिक हिन्दू युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध थे.

जैसे ही कुर्बानी के लिये मुसलमानों ने गाय माता की गर्दन पर छुरी रखी तो तैयार खडे गौभक्तो ने "जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव" के जयकारो के साथ धावा बोला और सब गाय छुड़ा लीं. लगभग 30 मुसलमान मौके पर ही मारे गये,"संख्या का आंकडा सुनिश्चित नहीं, केवल जनश्रुति के आधार पर" बाकी सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए.

इस गौरक्षा के निमित्त मुठभेड़ में असंख्य हिन्दू भी हताहत हुए, गौभक्त महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे, अतः वे भी बच नहीं सके. पुलिस और प्रशासन को जैसे ही मुसलमानों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा.

हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया, महिलाओं का अपमान किया गया. 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया. जेल का डर दिखाकर कई लोगों से भारी रिश्वत ली गयी. गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्र भी इसमें फंसा दिये गये.

फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा, कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था. गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री ‘वेदतीर्थ’ ने वहां जाकर मोहनदास गांधी को सारी बात बतायी, पर मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे हुए गांधी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं हुआ.

अतः वे शान्त रहे, पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे, उनका हृदय पीड़ा से भर उठा. उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी. इसके बावजूद आठ अगस्त सन 1919 को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गोभक्तों को फांसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को कालेपानी की सजा दी गयी.

इनमें सभी जाति, वर्ग और अवस्था के लोग थे, जो लोग अन्डमान द्वीप पर कालेपानी की सजा हेतु भेजे गये, उनमें से कई भारी उत्पीड़न सहते हुए वहीं मर गये. महानिर्वाणी अखाड़ा, कनखल के महंत रामगिरि जी भी प्रमुख अभियुक्तों में थे, पर वे घटना के बाद गायब हो गये और कभी पुलिस के हाथ नहीं आये.

पुलिस के आतंक से डरकर अधिकांश हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया. अतः अगले आठ वर्ष तक कटारपुर के खेतों में कोई फसल नहीं बोई गयी. आठ फरवरी सन 1920 को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास 45 वर्ष तथा चौधरी जानकीदास 60 वर्ष को प्रयाग में; डा. पूर्णप्रसाद 32 वर्ष को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान 22 वर्ष को वाराणसी जेल में फांसी दी गयी.

चारों वीर "गोमाता की जय" कहकर फांसी पर झूल गये, प्रयाग वालों ने इन गोभक्तों के सम्मान में उस दिन हड़ताल रखी. इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी. महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष आठ फरवरी को कटारपुर में "गोभक्त बलिदान दिवस" मनाने की प्रथा शुरू की.

वहां स्थित गौरक्षा के निमित्त हुए बलिदान का साक्षी वो इमली का पेड़ और गौ स्मारक आज भी उन महान गौभक्त वीरों की याद दिलाता है.

संदर्भ - घटनाक्रम के सम्बन्ध में प्रकाशित विभिन्न लेख, पुस्तक, इन्टरनेट पर सार्वजनिक रुप उपलब्ध जानकारी के स्रोत तथा सोशल मीडिया पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत विचारो पर आधारित एवं बलिदानी परिवारो के, स्थानीय ग्रामीणो के अनुसार.

साभार पंकज चौहान

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