आदर्श आचार-व्यवहार

 आदर्श आचार-व्यवहार

(दार्शनिक विचार)

प्रेषक #डॉविवेकआर्य

पूर्वाभिभाषी,सुमुखः,होता,यष्टा,दाता,अतिथीनां पूजकः,काले हितमितमधुररार्थवादी,वश्यात्मा,धर्मात्मा,हेतावीर्ष्यु,फलेनेर्ष्युः,निश्चिन्तः,निर्भीकः,ह्रीमान्,धीनाम्,महोत्साहः,दक्षः,क्षमावान्,धार्मिकः,आस्तिकः,मंगलाचारशीलः ।।

―(चरक० सूत्र० ८/१८)

अर्थ―मनुष्य को चाहिये कि यदि अपने पास कोई मिलने के लिए आये तो उससे स्वयं ही पहले बोले। वह सदा प्रसन्नमुख, हँसता और मुस्कराता हुआ रहे। प्रतिदिन हवन और यज्ञ करने वाला हो। मनुष्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिये, अतिथियों का आदर-सत्कार करना चाहिए। समय पर हितकर, थोड़े और मधुर, अर्थवाले वचनों को बोलना चाहिए।जितेन्द्रिय और धर्मात्मा होना चाहिए। दूसरे की उन्नति के कार्यों में स्पर्धा रखनी चाहिए, परन्तु उसके फल में ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। चिन्ताओं से मुक्त रहना चाहिए। निडर होना चाहिए। निन्दनीय कामों को करने में लज्जाशील होना चाहिए। बुद्धिमान, अत्यधिक उत्साही और प्रत्येक काम में चतुर होना चाहिए। क्षमाशील, धार्मिक और आस्तिक (ईश्वर, वेद और पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाला) होना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को मंगल आचार से युक्त होना चाहिए।

सर्वप्राणिषु बन्धुभूतः स्यात्,क्रुद्धानामनुनेता,भीतानामाश्वासयिता,दीनानामभ्युपपत्ता,सत्यसन्धः,सामप्रधानः,परपरुषवचनसहिष्णुः,अमर्षघ्नः,प्रशमगुणदर्शी,रागद्वेषहेतूनां हन्ता च ।।

―(चरक० सूत्र० ८/१८)

अर्थ―मनुष्य को सब प्राणियों के साथ भाई के समान व्यवहार करने वाला होना चाहिए, कुद्ध मनुष्यों को अनुनय-विनय से प्रसन्न करने वाला होना चाहिए, भयभीत=डरे हुए मनुष्यों को आश्वासन=ढाढस, तसल्ली देने वाला होना चाहिए, दीन-दुखियों का सहायक होना चाहिए, सत्य प्रतिज्ञ होना चाहिए, साम, दाम, दण्ड, और भेद-इन चारों उपायों में से साम (शान्ति) का ही प्रधान रुप से आलम्बन करने वाला, अर्थात् सदा शान्त रहना चाहिए, दूसरों के कठोर वचनों को सहने वाला होना चाहिए, अमर्ष=क्रोध का नाशक होना चाहिए, शान्ति को गुण की दृष्टि से देखने वाला होना चाहिए, राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले कारणों का त्याग करने वाला होना चाहिए।

सत्त्वसम्पन्नो,वृद्धदर्शी,सत्यवाक्,अविसंवादकः,कृतज्ञः,स्थूललक्षः,अदीर्घसूत्रः,दृढबुद्धिः,विनयकामः,इत्याभिगामिका गुणाः ।।

―(कौटिल्य अर्थ० ६/१/३)

अर्थ―मनुष्य को आत्मिक बल से सम्पन्न होना चाहिए, वृद्ध पुरुषों का उपासक होना चाहिए, सत्यवादी होना चाहिए, वचन और आचरण में एकता रखनी चाहिए, कृतज्ञ (किये हुए उपकार को मानने वाला) होना चाहिए, अपना लक्ष्य सदा ऊँचा और महान् रखना चाहिए, दीर्घसूत्री नहीं होना चाहिए―सब काम यथासम्भव शीघ्रता से करने चाहिएँ, अपनी बुद्धि को दृढ़ रखना चाहिए-ढुल-मुल नहीं, शास्त्र मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए-ये आभिगामिक गुण हैं-इन गुणों के कारण मनुष्य के पास जाने की इच्छा होती है।

वाग्मी, प्रगल्भः, स्मृति-मति-बलवान्, उदग्रः, स्ववग्रहः, दीर्घदूरदर्शी, पैशुन्यहीन इत्यात्मसम्पत् ।।

―(कौटि० ६/१/६)

अर्थ―मनुष्य को वाग्मी (अर्थपूर्ण भाषण करने में समर्थ, उत्तम वक्ता=बोलने वाला) होना चाहिए, बोलने में निर्भीक और प्रौढ़ होना चाहिए, स्मरणशील, मतिमान् और बलवान् होना चाहिए, वीर, पराक्रमी और साहसी होना चाहिए, नमनशील स्वभाव का होना चाहिए, हठी एवं कठोर स्वभाव का नहीं, शिल्प और कला में कुशल होना चाहिए, दीर्घदर्शी और दूरदर्शी होना चाहिए, पिशुनता=चुगली नहीं करनी चाहिए, यह मनुष्य की आत्मसम्पत्ति है।

यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।।

―(महाभा० शा० २५९/२२)

अपने लिए जिन-जिन बातों की इच्छा हो ,उनकी दूसरों के लिए भी इच्छा करनी चाहिए।

न तत्परस्य सन्दध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः ।

―महाभा० उद्योग० ३८/७१)

जो बात अपने लिए प्रतिकूल जान पड़े,वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिए।

ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु वल्गु च सुष्ठु च ।

―(महाभा० शा० ६७/३९)

यदि कोई अपनी और देखे तो उसकी और मृदु,मधुर एवं सौजन्यपूर्ण दृष्टि से देखना चाहिए।

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