वेद वाणी --
वेद वाणी --
अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य ।
―(अथर्व० ८/४/१५)
भावार्थ―यदि मैं प्रजा को पीड़ा देने वाला होऊँ अथवा किसी मनुष्य के जीवन को सन्तप्त करुँ तो आज ही, अभी, इसी समय मर जाऊँ।
वाचं जुष्टां मधुमतीमवादिषम् ।
―(अथर्व० ५/७/४)
भावार्थ―हम अतिप्रिय और मीठी वाणी बोलें।
विश्वदानीं सुमनसः स्याम ।―(ऋ० ६/५२/५)
भावार्थ―हम प्रत्येक अवस्था और परिस्थिति में पुष्प की भाँति सदा प्रसन्न और खिले हुए रहें।
मांस-भक्षण निषेध―
शेरभक शेरभ पुनर्वो यन्तु यातवः पुनर्हेतिः किमीदिनः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।
―(अथर्व० २/२४/१)
भावार्थ―हे नृशंस हिंसक ! हे हत्यारे ! सर्वभक्षियो ! तुम्हारे अनुयायी लौट जाएँ। तुम्हारे अस्त्र-शस्त्र भी तुम्हारे पास ही लौट जाएँ अर्थात् तुम्हारे हथियार तुम्हें ही दुःखदायी हों। तुम जिनके सम्बन्धी हो उन्हें खाओ, जो तुम्हें हिंसा के लिए प्रेरित करे उसे खाओ, अपने मांस को खाओ।
वेद ने मांस-भक्षण का निषेध कितने प्रबल शब्दों में किया है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से बचो―
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् ।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।।
―(अथर्व० ८/४/२२)
भावार्थ―उलूक=उल्लू की चाल मोह को, भेड़िये की चाल क्रोध को, कुत्ते की चाल स्वजाति-द्रोह, मत्सर=जलन और चाटकारिता को, कोक=चिड़ा-चिड़े की चाल कामवासना को, गरुड़ की चाल अभिमान को और गीध की चाल लोभवृत्ति को छोड़ दे। हे आत्मन् ! इन राक्षसों को ऐसे रगड़ दे जैसे सिल-बट्टे पर मसाला रगड़ा जाता है।