वैदिक 16 संस्कारों का परिचय

 वैदिक 16 संस्कारों का परिचय

मनुष्यों के स्थूल और सूक्ष्म शरीर तथा आत्मा की उन्नति में संस्कारों का महत्वपूर्ण योगदान है।

संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति- ‘सम्’ उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय होकर “संस्कार” शब्द बनता है. पाणिनि के सूत्र “सम्पर्युपेभ्यः करोतौ भूषणे” के अनुसार, “जिनसे शरीरादि सुभूषित हो, उन्हें संस्कार कहते हैं।”

“संस्करणं गुणान्तराधानम् संस्कारः” गुणों के आधान को संस्कार कहते हैं।

ऋषि दयानन्द सरस्वती के शब्दों में,

“संस्कार करके शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं, और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं। इसीलिए संस्कारों का करना सभी मनुष्यों को अत्यन्त उचित है।”

1. गर्भाधान संस्कार: जिस रात्रि गर्भस्थापन की इच्छा पति-पत्नी की हो, उस दिन सामान्यप्रकरण से हवन करके संस्कार-विधि में वर्णित मन्त्रों से आहुति दे, दोनों वर-वधू कुण्ड की प्रदक्षिणा करके सूर्य का दर्शन करते हैं. गर्भाधान क्रिया का समय प्रहर रात्रि के गए पश्चात् एवं प्रहर रात्रि शेष रहने के बीच का है. गर्भ स्थित होने के दूसरे दिन वा दूसरे महीने संस्कार-विधि में वर्णित अन्य मन्त्रों से आहुति देनी चाहिए।

2. “पुंसवन संस्कार” का समय गर्भस्थिति-ज्ञान हुए समय से दूसरे वा तीसरे महीने में है।

3. “सीमन्तोनयन संस्कार” का समय आश्वलायन के अनुसार, “गर्भमास से चौथे महीने में शुक्ल पक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो”. पारस्कर के अनुसार, “पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे वा आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्र युक्त चन्द्रमा के दिन करना चाहिए”।

4. “जातकर्म संस्कार” संतानोत्पत्ति के दिन किया जाता है।

5. “नामकरण संस्कार” जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेकर दश दिन छोड़ 11वें वा 101वें अथवा दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो, सन्तान का नाम रखना चाहिए।

6. “निष्क्रमण संस्कार” में घर से जहाँ का वायु शुद्ध हो वहाँ शिशु को भ्रमण कराया जाता है. इसका उपयुक्त समय सन्तान के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अथवा चौथे महीने में जिस तिथि में सन्तान का जन्म हुआ हो, उस तिथि में करना चाहिए।

7. “अन्नप्राशन संस्कार” जन्म से छठे महीने में जब शिशु की शक्ति अन्न पचाने की हो जाए तब करते हैं।

8. “चूडाकर्म संस्कार” जन्म के तीसरे वर्ष अथवा एक वर्ष में, उत्तरायण काल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्द हो, उस दिन शिशु का केशछेदन(मुण्डन) करना चाहिए।

9. “कर्णवेध संस्कार” जन्म से तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष करना उचित है।

10. “उपनयन संस्कार” मनुस्मृति के अनुसार, ब्राह्मण के बालक का जन्म/गर्भ से 5वें, क्षत्रिय के बालक का जन्म/गर्भ से 6ठे, वैश्य के बालक का जन्म/गर्भ से 8वें वर्ष में प्रातःकाल विद्या, बल, व्यवहार की इच्छा से करना चाहिए. आश्वलायन एवं पारस्कर के अनुसार, जन्म/गर्भ से 8वें वर्ष में अथवा अधिकतम 16वें वर्ष में ब्राह्मण के बालक का, जन्म/गर्भ से 11वें वर्ष में अथवा अधिकतम 22वें वर्ष में क्षत्रिय के बालक का, और जन्म/गर्भ से 12वें वर्ष में अथवा अधिकतम 24वें वर्ष में वैश्य के बालक का उपनयन संस्कार अवश्य हो जाना चाहिए।

11. “वेदारम्भ संस्कार” जो गायत्री से लेकर साङ्गोपाङ्ग चारों वेदों का अध्ययन करने के लिए नियम को धारण करने को कहते हैं, इसका समय उपनयन संस्कार के दिन से लेकर एक वर्ष के भीतर किसी भी अनुकूल दिन करना चाहिए।

12. “समावर्त्तन संस्कार” विद्यालय छोडकर घर की ओर आने को कहते हैं।

13. “विवाह संस्कार” का समय पुरुष का न्यूनतम 25वें वर्ष में और कन्या का न्यूनतम 16वें वर्ष में विवाह का कनिष्ठ समय कहलाता है, 30वें वर्ष से लेकर 38वें वर्ष तक में पुरुष का और 17वें वर्ष से लेकर 19वें वर्ष तक में स्त्री के विवाह का मध्यम समय कहलाता है, 40वें वर्ष से लेकर 48वें वर्ष तक के पुरुष का और 20वें वर्ष से लेकर 24वें वर्ष तक में स्त्री के विवाह का उत्तम समय कहा जाता है. इस संस्कार को उत्तरायण, शुक्लपक्ष के किसी अच्छे दिन अथवा किसी भी दिन सायंकाल करना चाहिए।

14. “वानप्रस्थ संस्कार” जब 50 वर्ष की आयु के पश्चात्, पुत्र का भी पुत्र हो जाये तब वन जाकर एकान्त में निवास कर योगाभ्यास एवं आत्मचिन्तन करना चाहिए।

15. “संन्यास संस्कार” उसको कहते हैं, की जो मोहादि आवरण, पक्षपात छोड़कर, विरक्त होकर सब पृथ्वी में परोपकार्थ विचरण करना. आयु का तीसरा भाग जंगलों में न्यूनतम 12 वर्ष और अधिकतम 25 वर्ष व्यतीत करके आयु के चौथे भाग में अर्थात् 70 वर्ष के पश्चात् सन्यासी होने का समय होता है।

16. “अंत्येष्टि संस्कार” इसमें मृत्त शरीर को भस्म करने पर्यन्त कर्म किया जाता है, इसे नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग भी कहते हैं।

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