सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री

 सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री

भाग 2 

6.0 छठे समुल्लास में राजनीति और शासन व्यवस्था पर विस्तार से विचार किया गया है ।

6.1 स्वामी जी ने वेद तथा स्मृतियों के आधार पर जो शासन व्यवस्था बताई है वह ' जनतंत्र ' पर आधारित है। इसीलिए उन्होंने ' राजा ‘ (अर्थात शासक)  का निर्वाचन प्रजा के द्वारा करने, और राजा को निरंकुश ढंग से नहीं,  बल्कि प्रजा के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के परामर्श से शासन करने की बात कही है ।

6.2 इसके लिए आवश्यक है कि राजा तीन सभाएं ( राजार्य सभा,  धर्मार्य सभा और विद्यार्य सभा ) बनाकर न्याय व्यवस्था,  धर्म व्यवस्था तथा शिक्षा व्यवस्था का संचालन करे ।

6.3 सभासद (अर्थात जनता के प्रतिनिधि) वेद,  दंड नीति,  न्याय व्यवस्था, शास्त्रों आदि के ज्ञाता होने चाहिए। अमात्य (मंत्री ), दूत (राजदूत आदि ),  दुर्गपाल ( सेनापति आदि ) के पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करने से राजा को अपने कर्तव्य पालन में सहायता मिलती है ।

6.4 यह आवश्यक है कि राजा एवं सभासद धार्मिक हों, विद्वान हों , विभिन्न प्रकार के व्यसनों - दुर्गुणों से दूर हों ।

6.5 कर वसूली और राजस्व प्राप्त करने के लिए शासक को उसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए जैसे भौंरा फूल को कोई हानि पहुंचाए बिना रस ग्रहण कर लेता है । प्रजा से उसकी आय का छठा भाग कर के रूप में  लिया  जाए और इसे प्रजा के हित में ही व्यय किया जाए ।

6.6 शासक के लिए आवश्यक है कि वह अन्याय, अत्याचार और अपराध वृत्ति का उन्मूलन करने के उपाय करे । अपराधियों को दंड अवश्य दिया जाए ताकि एक ओर तो स्वयं अपराधी भविष्य में अपराधों से दूर रहे, दूसरी ओर अन्य लोगों के सामने यह उदाहरण रहे कि अपराध करने पर दंड निश्चित रूप से मिलता है । साथ ही, जो सामान्य लोग हैं वे बिना किसी भय के अपना जीवन यापन कर सकें ।

6.7  यदि शासकगण कोई अपराध करें तो उन्हें सामान्य जनता से भी अधिक दंड मिलना चाहिए । इस विषय पर विस्तार से अध्ययन करने के लिए उन्होंने मनुस्मृति,  विदुर नीति,  शुक्र नीति जैसे ग्रंथों की संस्तुति की है ।

आगामी तीन समुल्लासों में ईश्वर, वेद, सृष्टि , विद्या – अविद्या आदि दार्शनिक विषयों की चर्चा की गई हैं ।

7.0 सातवें समुल्लास में ईश्वर और उसके ज्ञान वेद की चर्चा की गई है। यह विषय दार्शनिक है, अतः विषय और भाषा की दृष्टि से यह समुल्लास थोड़ा कठिन है । इसमें वेद के एकेश्वरवाद की और परमात्मा के गुणों की विवेचना हुई है ।

7.1 परमात्मा सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, अनादि, अनुपम आदि गुणों से युक्त है ।

7.2 उसी की स्तुति ( अर्थात गुणों का कथन ) , प्रार्थना ( अर्थात सहायता की याचना ) और उपासना ( अर्थात उसके निकट पहुँचने की कोशिश ) करनी चाहिए ।

7.3 ऐसा करने से मनुष्य की आत्मा का बल बढ़ता है और उसमें निर्भयता का गुण आता है।

7.4 ईश्वर निराकार है, अतः वह  “ अवतार ” नहीं लेता ।

7.5 कुछ लोग “अहं ब्रह्मास्मि “ कहकर जीव और ईश्वर को एक ही मान लेते हैं । स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि यद्यपि जीव और ईश्वर दोनों चेतन हैं, पर ईश्वर सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक भी है, जबकि जीव ये काम नहीं कर सकता । जीव परिच्छिन्न ( सीमित) है जबकि परमात्मा विभु (सर्वव्यापक और सर्व शक्तिमान) है ।

7.6 वेद कैसे बने – इस संबंध में स्वामी जी ने बताया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने  मानव जाति के लाभ के लिए ऋग, यजु , साम और अथर्व चार वेद अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट किए । इन्हीं को “ संहिता “ भी कहते हैं ।

7.7 वेद में शाश्वत , सर्व जनोपयोगी, सार्वदेशिक ज्ञान निहित है । अतः वह मनुष्यमात्र के लिए ग्राह्य है ।

7.8 वेद की भाषा किसी विशेष देश की या विशेष जाति की भाषा नहीं है, वह मानवमात्र की भाषा है । वेद की भाषा से ही विश्व में विभिन्न भाषाएँ विकसित हुई हैं ।

7.9 कुछ लोग ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों आदि को भी वेद कह देते हैं, जबकि ये वेद नहीं, वेदों की व्याख्या में लिखे गए ग्रन्थ हैं । इसीलिए इन ग्रंथों में ऋषियों - राजाओं आदि का इतिहास भी मिलता है , जबकि वेद में कोई इतिहास नहीं ।

7.10 वेदों की शाखाओं के संबंध में स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि जब वेदों का पठन-पाठन विभिन्न गुरुकुलों में होने लगा तब अध्ययन की सुविधा के लिए कुछ विद्वानों ने इन मन्त्रों में अपने मत के अनुरूप अनेक परिवर्तन भी किए। ये ही पाठ-परिवर्तन विभिन्न “ शाखाओं “ के नाम से प्रचलित हुए । यही कारण है कि वेद की शाखाएं आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं, जबकि ' मन्त्र संहिता ' परमात्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन शाखाओं की संख्या 1127 बताई जाती है, पर अब इनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं । ऋग्वेद की शाकल, यजुर्वेद की माध्यन्दिन, साम और अथर्व की शौनक शाखा में ही वेद संहिता का मूल पाठ सुरक्षित है, शेष में  ब्राह्मण पाठ का मिश्रण हो गया है ।

7.11 वेद का अध्ययन करने के लिए निरुक्त प्रतिपादित यौगिक प्रणाली ही उपयुक्त है ।

7.12 प्रत्येक मन्त्र के आरम्भ में ऋषि,  देवता. छंद और स्वर लिखा होता है। इनमें से ऋषि तो ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसने उस मन्त्र के अर्थ  और  ज्ञान का प्रसार किया । देवता से यह पता चलता है कि उस मन्त्र में किस विषय का वर्णन किया गया है । छंद और स्वर  का ज्ञान उस मन्त्र का सही ढंग से पाठ करने में सहायक होता है ।

8.0 आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, उसके पालन और प्रलय के प्रश्न पर विचार किया गया है। ये सभी दार्शनिक प्रश्न हैं, अतः विषय और भाषा की दृष्टि से यह भी थोड़ा कठिन अध्याय है।

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