हे रुद्र ! तुम हमारे सच्चे वैद्य हो, तुम ही पूर्ण चिकित्सक हो

 हे रुद्र ! तुम हमारे सच्चे वैद्य हो, तुम ही पूर्ण चिकित्सक हो।  जहां असह्य पीड़ाओं ने मुझे पाप की दुःखरूपता अनुभव कराई है वहीं आपका सुखदायक औषधिमय हाथ  आनन्द की अनुभूति भी कराने वाला है।"  

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क्व स्य ते रुद्र मुळ्याकुर्हस्तो यो अस्ति भेषजो जलाषः। अपभर्ता रपसो दैवस्याभी नु मां वृषभ चक्षमीथाः॥

-ऋक्०२।३३।७ 

ऋषिः - गृत्समदः। 

देवता - रुद्रः। 

छन्द: - त्रिष्टुप्। 

विनय - मैंने बेशक बहुत अपराध किये हैं। उन्हीं का फल भोगता हुआ मैं आज इतना दुःखी हूँ, आर्त हूँ, रोगग्रस्त हूँ। परन्तु हे रुद्र ! मैं जानता हूँ कि तुम जहाँ ताड़ना करते हो, वहाँ प्रेम भी करते हो। तुम रुद्र हो, तो वृषभ भी हो। तुम कभी तुरन्त दण्ड देते हो, तो कभी सहन (क्षमा) भी करते हो। तुम्हारा कठोर हाथ जहाँ हमें ताड़ना करता है, वहाँ तुम्हारा करुणाहस्त कभी हमें प्रेम भी दिखलाता है। मैं आज तुम्हारे उस भयदायक हस्त का तो अच्छी तरह अनुभव करता हूँ जो कि उग्ररूप होकर हमारा दण्डविधान करता है। परन्तु मैं जानता हूँ कि तुम्हारा वह दूसरा 'मृडयाकु' सुखदायक हस्त भी है जो कि कल्याणरूप होकर हमें शान्ति और सान्त्वना प्रदान करता है। मैंने अवश्य देवों के प्रति अक्षम्य पाप किये हैं, किन्तु मैं दुःख भी बहुत भोग चुका हूँ। अब तो मैं दुर्बल अधिक ताड़ना को नहीं सह सकता, इसलिए, हे कामनाओं के पूरा करनेवाले ! हे सुखवर्षक ! तुम्हीं मुझे सहन करो, क्षमा करो ! मेरा यह सच्चा पश्चात्ताप मुझे अब पाप में पड़ने से बचायेगा। इन असह्य पीड़ाओं ने मुझे पाप की दुःखरूपता अनुभव करा दी है। इसलिए मैं अब सहनीय हूँ, तुम्हारी क्षमा का पात्र हूँ। इस समय तो तुम मुझे अपने उस दूसरे करुणा-हस्त का ही अनुभव कराओ। तुम सच्चे वैद्य हो, तुम ही पूर्ण चिकित्सक हो। आः ! तुम्हारा वह सुखदायक हस्त कहाँ है जो कि औषधमय है, जो कि आनन्दजनक है ? तुम्हारा वह 'मडयाकू' हस्त कहाँ है जो कि मेरे इस दैव्य पाप को शमन कर देगा, जो कि मेरे इस पाप-रोग को दूर कर देगा? मुझे तो अब अपने इसी हस्त का संस्पर्श कराओ। हे वृषभ ! मुझे अब क्षमा करो, और अपने इसी सुखहस्त का अनुभव कराओ।

शब्दार्थ - (रुद्र) हे रुद्र ! दुःख-रोगनाशक ! (ते) तेरा (स्यः) वह (मृडयाकुः) सुखदायक (हस्तः) हाथ (क्व) कहाँ है, (यः) जो कि (भेषजः) औषधमय और (जलाष:) आनन्दजनक (अस्ति) है जो (देवस्य) देवसम्बन्धी (रपसः) पाप का, रोग का (अपभर्ता) दूर करनेवाला है ? (वृषभ) हे सुखवर्षक ! तू (नु) अब तो (मा) मुझे (अभिचक्षमीथाः) क्षमा कर, सहन कर।

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स्रोत - वैदिक विनय। (पौष २)

लेखक - आचार्य अभयदेव।

प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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