आज का वेद मंत्र

 🕉️🙏ओ३म् सादर नमस्ते जी 🙏🕉️

🌷🍃 आपका दिन शुभ हो 🍃🌷


दिनांक  - -    १७ अगस्त २०२२ ईस्वी 

 

दिन  - - बुधवार 


  🌗 तिथि - - -  षष्ठी  ( २०:२४ तक तत्पश्चात सप्तमी )



🪐 नक्षत्र -  -  अश्विनी  ( २१:५७ तक तत्पश्चात भरणी  )


पक्ष  - - कृष्ण


 मास  - -   भाद्रपद 


ऋतु  - -  वर्षा 

,  

सूर्य  - -  दक्षिणायन


🌞 सूर्योदय  - - दिल्ली में प्रातः ५:५१ पर


🌞 सूर्यास्त  - -  १८:५९ पर 


🌗 चन्द्रोदय  - -  २२:३०  पर 


🌗चन्द्रास्त  - -  ११:०३


सृष्टि संवत्  - - १,९६,०८,५३,१२३


कलयुगाब्द  - - ५१२३


विक्रम संवत्  - - २०७९


शक संवत्  - - १९४४


दयानंदाब्द  - - १९८


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🚩‼️ओ३म्‼️🚩


***१८५७ और महर्षि दयानन्द सरस्वती

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   १८५७ की क्रांति में ऋषि दयानन्द का योगदान ~~

सन १८५७ में अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद से भारत को पूर्णतया लूटा दबाया और लार्ड डलहौजी ने तो २० हजार से अधिक पुरानी जमींदारियों को अपहरण नीति के तहत जब्त करके हर प्रकार से हमारा राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक, धार्मिक, व्यापारिक और ओद्योगिक शोषण किया तो सारे देश में सर्वत्र अत्याचारों के विरुद्ध त्राहि-त्राहि मच गई। चारों ओर राजा, नवाबों और जनता में विद्रोह की अग्नि जलने लगी साधु जन आंदोलित हुए। राष्ट्रीय विपत्ति में साधु वर्ग सदा आगे रहा है।


 १८५७ संग्राम में संतों का प्रेरक संयोजन –

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   इन विद्रोही सन्यासी संतों की संख्या दो ढाई हजार थी जिनमें अगवा साढ़े चार सौ साधु थे जिन्होने सर्वखाप पंचायत के लेखानुसार स्वा० विरजानन्द को फाल्गुन मास की पूर्णमासी स० १९०७ विक्रमी (सन १९५० ई०) को मथुरा में ‘भारत गुरुदेव’ की पदवी दी थी इसलिए आर्य जगत में भी केवल इन्हीं के नाम में गुरु पद लगाया जाता है। उक्त संग्राम में इन संतों के निर्देशक सवा सौ साधु और इन सबके प्रमुख संयोजक प्रेरक वेद संस्कृत के मर्मज्ञ योगी सन्यासी चार महापुरुष थे जो बाल ब्रह्मचारी थे। प्रथम हिमालय के योगी २६० वर्षीय स्वामी ओमानन्द दूसरे उनके शिष्य कनखल के स्वामी पूर्णानन्द तीसरे उनके शिष्य मथुरा में स्वामी विरजानन्द और चौथे उनके शिष्य ३३ वर्षीय गोल मुख वाले स्वामी दयानन्द सारे भारत में साधुओं और क्रांतिकारी योद्धा राजा नवाबों के उत्साहवर्धक संयोजक थे।


 विशेष ज्ञातव्य बातें –

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१८५४ से ५६ ई० तक मथुरा में गुरु विरजानन्द जी ने लाखों लोगों को बुलाकर श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर स्वाधीनता संग्राम का प्रबल गुप्त प्रचार किया था जिसमें विशाल हरयाणा की जनता अधिक थी।


  क्रांति प्रारम्भ के लिए ३ मई निश्चित की थी। मथुरा सभाओं में स्वामी दयानन्द, राव तुलाराम और राजा नाहरसिंह भी सम्मिलित थे।


 गुरु विरजानन्द के आदेश से सर्वत्र अंग्रेज़ स्त्री-बच्चों को सुरक्षित रखा।


   यह गदर या केवल सैनिक क्रांति नहीं थी अपितु दो राष्ट्रों का स्वाधीनता संग्राम था, राज बदलो क्रांति युद्ध था।


   साधुओं फकीरों ने स्थान-स्थान पर अपने कई-कई नाम और वेश रूप बदले थे। गुप्त भाषाओं के गुप्त संकेत भी थे।


   तीर्थ स्थानों, पर्वों और मेलों पर ये साधु गुप्त संदेश देते थे। भारतीय सेनाओं में भी कमाल प्रचार और देशप्रेम जागृत था।


  स्वामी दयानन्द जन सामान्य से जंगलों वनों में गुजराती हरयाणवी मिश्रित सामान्य हिन्दी भी बोलते थे क्योंकि उनके पूर्वज हरयाणा के थे।


   अंग्रेजों पर भेद खुल जाने और घर वालों द्वारा पकड़ा जाने के कारण ही विशेषतया गुप्त रहते थे। उनका नाम गोल मुख वाला साधु प्रचलित था।


  संग्राम प्रचार में स्वामी दयानन्द के बदले हुए नाम मूलशंकरा, रेवानन्द और दलालजी थे।


   गृहत्याग काल से ही स्वामी दयानन्द ज्ञान और योग के तीव्र पिपासु थे। वे १८५५ ई० में हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी पूर्णानन्द से व्याकरणसूर्य गुरु विरजानन्द का पता पाकर भी सीधे मथुरा जभी नहीं गए अपितु पूर्णानन्द से प्रेरित क्रांतियोजनाबद्ध होकर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा पंचायत में पहुँचें और ११ अक्तूबर १८५५ में पुन: स्वामी पूर्णानन्द की गुप्त साधु सभा में हरद्वार गए। खापों का इतिहास बताता है कि इसी वर्ष के अंत में बिठुर में ५ दिन तक नाना साहब से मिले जो उन्हीं के समवयस्क थे। वहाँ विशेष योजना बन रही थी। १८५६ ई० तक तीर्थ स्थानों पर नाना साहब से उनकी मुलाक़ात ११ बार हुई थी। उन्होने नाना साहब से कहा था कि अंग्रेजों से स्वतंत्र होने पर पंचायती राज चलाकर सारे भारत को स्वर्ग बनाएँगे। ऋषि ने देश भ्रमण के दौरान ही दिल्ली के चारों और खाप पंचायतों में देशप्रेम, वीरता, सदाचार और सात्विक भोजन देखा था।


मई १८५७ से नवंबर १८६० तक अज्ञात

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    महर्षि दयानन्द के जीवन में ये तीन वर्ष ‘अज्ञात वास’ कहलाते है परंतु पंचायती रिकार्ड और स्वामी वेदानन्द वेदवागीश के लेखानुसार इन तीन वर्षों में विशेषतया गुप्त रहकर स्वामी जी ने संग्राम की विफलता के कारणों को जानने और अँग्रेजी अत्याचारों से शोषित जनता की जानकारी लेने का सारे देश का गुप्त भ्रमण किया था जिसमें वे श्वेत अश्वारोही भी रहे थे। श्री स्वामी भीष्म आर्य भजनीक, श्री वेदवागीश और मथुरा गुरु विरजानन्द का लेखक मिर्जा अफजल बेग भी इस घटना की पुष्टि करते है। भालौट ग्राम के श्री सत्यमुनि (शेरसिंह) ने अपने दादा की बताई यह घटना मुझे भी २७ मई, १९७८ और १९७९ में दो बार मुझे भी नरेला में बताई थी। पं० बस्तीराम ने दो में से गोल मुख वाले अश्वारोही का नाम स्वामी दयानन्द बताया था क्योंकि वे १८५७ से १८६९ तक कई बार महर्षि जी से मिले थे।


   इन तीन वर्षों की अज्ञात यात्रा में भारत के बड़े-बड़े राजविद्रोहियों के क्रांति कार्यों की खुफिया जांच करने वाले स्वदेशी-विदेशी सरकारी कर्मचारियों से स्वामी दयानन्द की ३१ बार मुठभेड़ हो गयी थी मगर आखिर में उनके तेज से हतप्रभ होकर क्षमा मांग झुककर चले जाते थे। एक बार सन १८५८ में एक अंग्रेज़ नामालूम मुकाम पर १५ घुड़ सवारों सहित स्वामी जी के पास आ धमका और कुछ प्रशानोत्तर कर उनकी दिव्य तीव्र ज्योति से बेसुध होकर कदमों पर गिर पड़ा और क्षमा सहित मसीहा मानकर उन्हें १२५ रुपए देकर चला गया। फिर नवंबर १८६० में स्वामी जी मथुरा में गुरु विरजानन्द से स्पष्टया मिले और ढाई वर्ष पर्यन्त अष्टाध्यायी, महाभाष्य, दर्शन, उपनिषद,  निरुक्त ग्रंथ पढे। व्याकरण पाठ के समय के अतिरिक्त समय एकांत में भी इन अपूर्व गुरु शिष्य का समागम होता था।


(स्वा० वेदानन्द द० तीर्थ)

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   “जब गुरु विरजानन्द क्रांति पश्चात तीन वर्षों के देश भ्रमण की इतिवृत्ता दयानन्द जी से सुन चुके तब राजनयिक गोष्ठी के लिए दयानन्द को विश्वस्त समझ के एकांत में उनसे वार्तालाप करने लगे।”


सुधारक – (देव पुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती पृष्ठ ३६)


(गुप्त वार्ता लेख की नकल)


   “स्वामी दयानन्द धार्मिक नेता ही नहीं थे वे सच्चे राजनैतिक नेता भी थे। एक बार हम उनके साथ जिला एटा में सौरों के मुकाम पर थे। उस वक्त उनसे एक साधु मिलने आया। उसने ढाई दिन रहकर उससे बातचीत करी थी। फिर चला गया था। श्री स्वामी जी से हमने इस साधु के हसब नसब की बात पूछी तब स्वामी जी मौन रहे। हमने बहुत ज्यादह इसरार किया और हल्फ लिया कि हम आपकी बात को नहीं बताएँगे।”


   इस पर स्वामी जी ने कहा – “इनका पहला नाम गोविंदराम है और अब इनका नाम गुरु परमहंस है। ये जाति के ब्राह्मण है। इनका एक साथी रामसहायदास था जो अब से ८ महीने पहले मर गया है। उसने अपना नाम जगनानन्द धरा था। जो जाति का कायस्थ था। हम सब लोग सन १८५५ व ५६ में गुरु विरजानन्द से आज्ञा लेकर भारत के साधु समाज के हुक्म से क्रांति यज्ञ में आहुति डालते रहे थे। ये रामसहायदास और गोविंदराम रानी झाँसी के यहाँ रहते थे। रानी के बलिदान होने पर ये दोनों साधु बन गए थे। इस तरह १२५ हमारे पहले साथी थे। हम १८५७ में कभी घोड़ों पर कभी पैदल चले थे और ऊंटों पर सन १८५५ ई० से सन १८५८ के शुरू तक देश में क्रांति यज्ञ में आहुति डाली थी।”  संभवत: यह उपरोक्त गोविन्दराम नाटोरे की धर्मात्मा रानी भवानी का वंशज राजा था।


  (कथन चौ० नानकचन्द एटा पंचायत मंत्री)


 2) इस संग्राम में भारतीयों की आपसी फूट, उत्तम अस्त्राभाव, अनुशासनहीनता तथा कुशल नेतृत्व के अभाव में निश्चित तिथि से पहले ही मेरठ में युद्ध छिड़ जाने से मिली असफलता से महर्षि जी बहुत दुखित हुए और इसलिए एक बार कहा था कि – “सारे भारत में घूमने पर भी मुझे धनुर्वेद के केवल ढाई पन्ने ही मिले है यदि मैं जीवित रहा तो सारा धनुर्वेद प्रकाशित कर दूंगा।” स्वामी जी ने यही बात दोबारा नवंबर १८७८ ई० में अजमेर में कही थी।


  (अजमेर और ऋषि दयानन्द प्रि० ६१)


  ३) सन १८५८ में क्रांति को कुचलने के बाद महारानी विक्टोरिया ने कहा था कि भारतीय प्रजा के साथ माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया का व्यवहार किया जाएगा। महर्षि जी ने इसीलिए सत्यार्थ-प्रकाश में लिखा है कि कोई कितना ही करे परंतु स्वदेशी राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है……..प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता।”


  ४) १८५७ संग्राम में अँग्रेजी तोपों द्वारा महलों के तोड़ने, बाघेरों द्वारा लड़ने की घटना महर्षि ने स्वयं देखी थी इसलिए ११वें समुल्लास में लिख दिया कि “जब सन १८५७ ई० के वर्षों में तोपों के मारे मन्दिर मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थी तब मूर्ति कहाँ गई थी। प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता से लड़े, शत्रुओं को मारा परंतु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश (समान) कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते।” यह घटना उनका प्रत्यक्षदर्शी होना सिद्ध करती है।


प्रमुख विद्वान लेखकों की साक्षियाँ


  १) महर्षि जी के सेवक चौ० नानकचन्द के शिष्य सौरम के इमदान खां की सन १८८८ ई० में लिखी कविता के ८ पद्यों में दो इस प्रकार है :-


  दिल में शोले उठते है देव दयानन्द की याद के, पन्ने पलट कर देखलो उनकी जिंदगी की दाद के ।


  १८५७ की आजादी की जंग में सब कुछ ही किया, मगर देश के कपूतों ने दगा करके हरवा दिया ॥


 


  २) महर्षि दयानन्द के कई बार दर्शक, उपदेशश्रोता सूफी इमामबख्स के लम्बे लेख के प्रमाण में १८५७ में अंग्रेजी अत्याचारों के विवरण में लिखा है “कुछ साधु संतों का ऐसा भी कहना था के स्वामी दयानन्द जी गदर के क्रांतिकारियों के साथ रहे थे।” कृपया पढ़ें ‘सर्वहितकारी रोहतक’ २१-१-८१ और ७-८-७५ के लेख।


  ३) पं० जयचन्द्र विद्यालंकार लिखते है कि बनारस के उदासी मठ के शास्त्री सत्यस्वरूप (लिखते है) का कथन है कि – “साधु संप्रदाय में तो बराबर यह अनुश्रुति चली आती है कि दयानन्द ने सन १८५७ के संघर्ष में महत्वपूर्ण भाग लिया था।”


 (पुस्तक राष्ट्रीय इतिहास का अनुशीलन)


  ४) श्री पृथ्वीसिंह मेहता जी लिखते है कि “यह बात तो स्पष्ट हो ही सकती है कि क्रान्ति की तैयारियों आदि से उसे (दयानन्द को निकट परिचय करने का अवसर मिला। यह मान लेना आसान नहीं कि दयानन्द सदृश भावनाप्रवण और चेतनावान हृदय, मस्तिष्क का युवक उसके प्रभाव से अछूता बचा रहा हो।”                              – (हमारा राजस्थान, जागृति के अग्रदूत दयानन्द पृ २६५)


  ५) यशस्वी विद्वान आर्यनेता पं० जगदेवसिंह सिद्धांती ने सितंबर १९७८ ई० को मुझे यह बताया था कि “१९६३-६४ में हलका मेहसाना के सांसद श्री मानसिंह के साथ मैं टंकारा और पोरबंदर गया था। पोरबंदर के लोगों ने तब बताया कि स्वामी दयानन्द की एक चिट्ठी १८५७ में नाना साहब (स्वामी दिव्यानन्द) की रक्षार्थ पोरबंदर में सेठ के नाम आई थी। मानसिंह ने भी बताया था कि सिद्धपुर सौराष्ट्र के राजा ने हरयाणा से हजारों ब्राह्मण घर बुलाकर महर्षि दयानन्द के पूर्वजों सहित अपने राज्य में बसाए थे।”


  - (कथन, सम्राट प्रेस पहाड़ी धीरज दिल्ली)


  ६) पं० श्रीकृष्ण शर्मा आर्योप्देशक राजकोट लिखते है कि “सन १८५७ से पूर्व भारतीय क्रान्ति के एक सूत्रधार स्व० श्री नाना साहब पेशवा ने बिठुर में महर्षि का संपर्क साधा था और स्वतन्त्रता संग्राम में विजयी बनने के लिए मार्गदर्शन भी मांगा था पर महर्षि की सलाह के अनुसार कार्यारम्भ करने से पूर्व ही मेरठ और दिल्ली में सशस्त्र क्रांति की ज्वाला भड़क उठी थी। क्रान्ति के पश्चात नाना साहब पुन: महर्षि को मिले थे। सौराष्ट्र में ही उनके गुप्तावास के लिए महर्षि ने प्रबन्ध कर दिया था। (एक पत्र से)….. वे साधु थे श्री नाना साहब पेशवा और वह पत्र था महर्षि दयानन्द का। ……. अंग्रेजी पत्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि छप्पनियां के दुष्काल में महर्षि दयानन्द का मार्गदर्शन न मिला होता तो लाखों मानव अपनी जान गवां बैठते।”


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 🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🚩🕉️


  🔥ओ३म् हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। योऽसावादित्ये पुरूष: सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म।


  💐 अर्थ:- सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है। हे मनुष्यों जो मै यहाँ हूँ, वह अन्यत्र सूर्य आदि में हूँ, और जो अन्यत्र सूर्यादि में हूँ, वही यहाँ हूँ। मैं सर्वत्र परिपूर्ण, आकाश के समान व्यापक हूँ, मुझ से कोई भी दुसरा बड़ा नहीं है, मैं ही सब से महान्  बड़ा हूँ।


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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक  पञ्चाङ्ग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ🕉🚩🙏


(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त)       🔮🚨💧🚨 🔮


ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- त्रिविंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२३ ) सृष्ट्यब्दे】【 नवसप्तत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०७९ ) वैक्रमाब्दे 】 【 अष्टनवत्यधिकशततमे ( १९८ ) दयानन्दाब्दे, नल-संवत्सरे,  रवि- दक्षिणयाने वर्षा -ऋतौ, भाद्रपद -मासे , कृष्ण   - पक्षे, -  षष्ठयां - तिथौ,  - अश्विनी  नक्षत्रे, बुधवासरे  , तदनुसार  १७ अगस्त, २०२२ ईस्वी , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे 

आर्यावर्तान्तर्गते.....प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ,  आत्मकल्याणार्थ, रोग, शोक, निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे


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