आज का वेद मंत्र

 🕉️🙏ओ३म् सादर नमस्ते जी 🙏🕉️

🌷🍃 आपका दिन शुभ हो 🍃🌷


दिनांक  - -    ०६ अगस्त  २०२२ ईस्वी 

 

दिन  - -   शनिवार 


  🌓 तिथि - - -  नवमी ( २६:११ + तक तत्पश्चात दशमी  )


🪐 नक्षत्र -  - विशाखा ( १७:५२ तक तत्पश्चात अनुराधा )


पक्ष  - -  शुक्ल 


 मास  - -  श्रावण 


ऋतु  - -  वर्षा 

,  

सूर्य  - -  दक्षिणायन


🌞 सूर्योदय  - - दिल्ली में प्रातः ५:४५ पर


🌞 सूर्यास्त  - -  १९:८ पर 


🌓 चन्द्रोदय  - -  १३:३७ पर 


🌓चन्द्रास्त  - -  २४:२६+  पर 


सृष्टि संवत्  - - १,९६,०८,५३,१२३


कलयुगाब्द  - - ५१२३


विक्रम संवत्  - - २०७९


शक संवत्  - - १९४४


दयानंदाब्द  - - १९८


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 🚩‼️ओ३म्‼️🚩


🔥भोगा न भुक्ता वयमेव भूक्ता:

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    शरीर सिकुड़कर जुक गया है, चाल धीमी और डगमगा गई है, दांतो की पंक्तियां तूट चुकी है, आंखो से ठीक दिखाई नहीं देता, कानों ने सुनना बंध कर दिया है, मुंह से लार टपकती रहती है, कुटुम्बीजन हमारा आदर नहीं करते, भार्या भी सेवा नहीं कर सकती। ओहो? बुढापा कितना कष्टपूर्ण है कि स्वयं के पाले पुत्र भी शत्रु के समान व्यवहार करने लगते है। फिर भी यह मनुष्य प्रभु की शरण नहीं लेता। ( भर्तृहरि वैराग्यशतम श्लोक  १७ )

                      

   संसार भोगने की लालसा प्रभु की ओर मुड़ने नहीं देती। संसार में सुख लेने की कामना ईश्वर से दूर ले जाती है। प्रभु के साथ जुड़ने के लिए विवेक और वैराग्य को उत्पन्न करना अनिवार्य है। संसार के भोग भोगने की इच्छाएं मनुष्य को बार बार मां के गर्भ में प्रवेश करवाती है। संसार को भोगने से पुन: पुन: पशु - पक्षी, वृक्ष - वनस्पति या मनुष्य योनि में आना पड़ता है। गर्भ में आना मतलब जन्म मिलना। जन्म हुआ अर्थात भूख - प्यास, ठंडी - गर्मी, प्रेम - तिरस्कार, मान - अपमान, सुख - दुःख आदि से बच नहीं सकते। जन्म मिला तो पापी पेट को भरने के लिए क्या नहीं करना पड़ता?


     कोई यह कह दे कि संसार में सुख नहीं है। तो यह बात बिल्कुल ग़लत है। संसार में सुख अवश्य है, किन्तु क्षणिक है, अशुद्ध है, तीनों गुणों से रंजित है। उत्तम सुख भी निरंतर भोग नहीं सकते। सुख से भी हम उब जाते हैं। सुख में विकार = परिवर्तन आते ही रहते है। संसार का उत्कृष्ठ सुख भी दु:ख से सना हुआ है। अतः हमारे पूर्वजों ने, ऋषि, महर्षियोने संसार को त्याज्य = हेय कहा हैं।


    क्या हम संसार को भोग सकते है ?


     हम सांसारिक विषय भोगों का उपभोग सतत नहीं कर सकते, अपितु हम ही उनसे भुगत जाते है। संसार के भोग हमे ही अपना ग्रास बना लेते है। उनको भोगते -भोगते हमारा सामर्थ्य कम होने लगता है। संसार का उपभोग करके हम ही रोग से युक्त और वियोग प्राप्त करते है। हम तीनों प्रकार के ताप से तपते रहते है भय से युक्त तथा उनसे पराधीन हो जाते है। संसार के भोगों को भोगते - भोगते हम ही जीर्ण - शीर्ण होकर काल के ग्रास बन जाते हैं।


भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता:, तपो न तप्तं वायमेव तप्ता:।

कालो न यातो वयमेव याता: तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।। (  भर्तृहरि वैराग्यशतम श्लोक १२  )


   ऋषि - मुनि, संत - महात्माओं ने इस संसार को दु:खमय कहा हैं - "दुःखम् एवम् सर्वम् विवेकिन:।"


    संसार में आकर संसार को भोगकर कोई मनुष्य यह कह दे कि "मैं संसार को भोगकर पूर्ण तृप्त हो गया हूं, अब मेरी कोई इच्छा बची नहीं" यह हो नहीं सकता। भोग -भोगकर मन मलिन हो जाता है, निर्बल हो जाता है। मलिन मन - निर्बल मन पदार्थो का यथार्थ दर्शन नहीं करा सकता। मलिन मन ईश्वर में प्रीति उत्पन्न नहीं कर सकता।

वेद तथा ऋषि - महर्षियों के शब्द पत्थर की लकीर होते है। उनका ज्ञान तथा निर्णय शाश्वत अटल होते है। वे वहीं बोलते है, जो होता है। वे वितरागी, निस्पृही और परोपकारी होते हैं। अतः उनका अनुशीलन आंखे बन्द करके भी कर सकते हैं।


     यह संसार कारागार है, उसे हमने मुक्ति का आगार मान लिया हैं। मुक्ति का साधन तो परमात्मा है। संसार तो मौत का सामान है। वहां तो अपने से भी विस्फोट होते रहते हैं। संसार के साथ रस पूर्वक संबंध स्थापित करने से बार बार जन्म, पीड़ा, बंधन और परतंत्रता मिलते रहते हैं। संसार को भोगने से इच्छाएं अधिक भड़कती है, शांत नहीं होती। त्याग से शांति प्राप्त होती है, भोग से नहि। इच्छाएं अनंत है, उनकी परिपूर्णता नहीं हो सकती। आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है, इच्छाओं की कभी नहीं।


      यह संसार तो गुटली है, छिलके हैं। अतः वह त्याज्य है। उसमें कोई दम नहीं। आम का रस परमात्मा है । मधुर रस, अमृत रस से परिपूर्ण परमात्मा हैं। हम परमात्मा की शरण प्राप्त करे। धीर - गंभीर, वितरागी -विद्यावान पुरुष दु:खमय संसार को छोड़कर आनंद के महासागर परमात्मा को प्राप्त करके जन्म मृत्यु की श्रंखला को तोड देते हैं।


      हम तीन तत्वों का बोध वेद आदि आर्ष ग्रंथो से तथा ईश्वर उपासना से प्राप्त करे तथा तदनुसार जीवात्मा, परमात्मा और संसार का ठीक प्रयोग करे। जड़ हो या चेतन पदार्थ, उनका यथार्थ स्वरूप जानकर आसक्त हुए बिना उनका केवल प्रयोग करने से वे बंधनकारक नहीं बनते, अपितु वे बंधन से छुड़ाकर मुक्ति प्रदान करते हैं।


     आइए, हम संसार से उपराम हो जाएं। सांसारिक विषयो में दोषदर्शन करे। दोष को दोष देखना और विशेष को विशेष देखना यथार्थ दर्शन है।  परमात्मा को ही हम अतिशय प्रेम करे। संसार के पदार्थो को मालिक बनकर नहीं, ट्रस्टी बनकर उपयोग करे । मालिक केवल परमात्मा को माने। समस्त कार्य एवम् व्यवहार परमात्मा की आज्ञानुसार करे और जीवनमुक्त हो जाएं।


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 🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🚩🕉️


 🔥  ओ३म् चित्रम् देवानामुदगादनीकम् चक्षुर्मित्रस्य वरुण स्याग्ने:। 

आप्रा द्यावापृथिवी अंतरिक्षम् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।।


  💐 :- सूर्य के पक्ष में मंत्र का अर्थ- प्रकाशक सूर्य-किरणों की अद्भुत अथवा रंग-बिरंगी सेना उदय को प्राप्त हुई है, जो शरीर में प्राण की तथा बाहर दिन की, शरीर में अपान की तथा बाहर रात्रि की और शरीर में वाणी की तथा बाहर पार्थिव अग्नि की प्रकाशक है। सूर्य ने द्युलोक और भूमिलोक को तथा मध्यवर्ती अंतरिक्षलोक को प्रकाश से परिपूर्ण कर दिया है। वह सूर्य जंगम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का तथा स्थावर वृक्ष, पर्वत आदि का जीवनाधार है।


मंत्र का भावार्थ है कि जैसे सूर्य किरणों को बखेर कर स्थावर-जंगम का उपकार करता है, वैसे ही परमेश्वर हृदय में दिव्यगुणों को विकीर्ण कर मनुष्यों का हित सिद्ध करता है।


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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक  पञ्चाङ्ग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ🕉🚩🙏


(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त)       🔮🚨💧🚨 🔮


ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- त्रिविंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२३ ) सृष्ट्यब्दे】【 नवसप्तत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०७९ ) वैक्रमाब्दे 】 【 अष्टनवत्यधिकशततमे ( १९८ ) दयानन्दाब्दे, नल-संवत्सरे,  रवि- दक्षिणयाने वर्षा -ऋतौ, श्रावण -मासे , शुक्ल  - पक्षे, -  नवम्यां - तिथौ,  -  आश्लेषा नक्षत्रे,  शनिवासरे , तदनुसार  ०६ अगस्त, २०२२ ईस्वी , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे 

आर्यावर्तान्तर्गते.....प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ,  आत्मकल्याणार्थ,  रोग, शोक, निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे


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