आजादी का अमृत महोत्सव-

 ओ३म्

-आजादी का अमृत महोत्सव-

“देश की आजादी में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की प्रमुख भूमिका”

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आज देश स्वाधीन भारत की आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। देश को यह आजादी असंख्य लोगों के त्याग और बलिदान के परिणामस्वरूप प्राप्त हुई है। देश को आजादी दिलाने के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन की दो धारायें नरम और गरम प्रवाहित हुईं। दोनों ने ही अपना अपना कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1947 को देश स्वाधीन हुआ था। अतः अमृत महोत्सव के अवसर पर पराधीन भारत में उन सभी देशभक्तों को जिन्होंने देश को आजाद कराने में किसी भी रूप में योगदान किया है, उनको हमारा सादर नमन एवं श्रद्धांजलि है। आज इस अवसर पर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज को भी याद करने सहित उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का भी दिन है। देश को आजाद कराने का विचार सन् 1857 के बाद जिस महापुरुष ने दिया था उसका नाम ऋषि दयानन्द सरस्वती था। उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर करने सहित सहित शिक्षा के प्रचार एवं समाज सुधार के अनेकानेक कार्य किये। उन्होंने देशवासियों को सत्यधर्म से परिचित कराने व मानव जाति की उन्नति को ध्यान में रखकर सन् 1875 में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ मनुष्य को सत्य और असत्य दोनों से परिचित कराने के साथ असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण करने की प्रेरणा करता है। ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कहते हैं कि सत्योपदेश और सत्य के ग्रहण करने तथा असत्य को छोड़ने के विना अन्य कोई भी कार्य मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।  


स्वदेशी, स्वाधीन व स्वतन्त्र राज्य को परतन्त्रता वा विदेशी राज्य की तुलना में सर्वोपरि बताने वाले उनके वचन सत्यार्थप्रकाश के आठवें अध्याय में पढ़ने को मिलते हैं। वह शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सत्यार्थप्रकाश में यह वचन ऋषि दयानन्द ने सन् 1883 में लिखे थे। इसमें उन्होंने लिखा है ‘अब अभाग्योदय से और आर्यों (श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाले मनुष्यों) के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावत्र्त (भारत) में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय (सन् 1883 में) नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पदाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।’ इसके आगे वह लिखते हैं- ‘कोई कितना ही करे परन्तु जो सवदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता व माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।’ ऋषि दयानन्द के यह वाक्य स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। यह वाक्य उन्होंने देश को आजादी की प्रेरणा देने के लिए लिखे, ऐसा प्रतीत होता है। इसी क्रम में वह यह भी लिखते हैं ‘परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।’ ऋषि दयानन्द से पूर्व किसी विद्वान व नेता के देश की आजादी के विषय में इस प्रकार के शब्द वा वाक्य पढ़ने को नहीं मिलते। इससे यह ज्ञात होता है कि ऋषि दयानन्द ही आजादी का मन्त्र देने वाले प्रथम मनीषी, विचारक, ऋषि व राष्ट्रीय नेता थे। 


सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें अध्याय में ऋषि दयानन्द ने सन् 1857 में स्वतन्त्रता की प्रथम क्रान्ति की एक घटना का उदाहरण देते हुए श्रीकृष्ण जी की महिमा पर प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं ‘जब संवत् 1914 (अर्थात् सन् 1857) के वर्ष में तोपों के मारे (तोपों से मारकर) मन्दिर (की) मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्ति (व इसकी शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत (गुजरात वा द्वारका के निकटवर्ती) वाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं (अंगरेजों) को मारा, परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो इन (अंगरेजों) के धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते।’ वाघेर व अंगरेजों का यह युद्ध गुजरात में द्वारिका के द्वारिकाधीश मन्दिर से जुड़ा है। इतिहास की पुस्तकों में इस घटना का उल्लेख ऋषि दयानन्द के समय तक नहीं हुआ था। अनुमान होता है कि इस घटना से वह किसी प्रकार से जुडे़ हुए हो सकते हैं। यह उनके अनुभवसिद्ध ज्ञान के आधार से जुड़ी हो सकती है। इसका कारण यह है कि वह सन् 1857 में 32 वर्ष के युवा थे और इससे  दस पूर्व वह अपना घर छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े थे। ऋषि दयानन्द की इन पंक्तियों में देश की परतन्त्रता के प्रति उनकी पीड़ा दृष्टिगोचर होती है। देश को आजादी की प्रेरणा करने वाले उनके अनेक वचन उनकी पुस्तक आर्याभिविनय एवं संस्कृत वाक्य प्रबोध सहित वेदभाष्य में भी उपलब्ध होते हैं। 


ऋषि दयानन्द की 30 अक्टूबर 1883 को मृत्यु के बाद उनके कुछ प्रमुख शिष्यों स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, भाई परमानन्द, लाला लाजपतराय, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, श. भगत सिंह जी आदि ने भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में नेतृत्व किया वा सक्रिय भूमिका निभाई। इसी कारण से अंगरेजों ने आर्यसमाज के अनुयायियों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये। अंगरेजी राज्य में आर्यसमाज के अनुयायियों को शक की दृष्टि से देखा जाता था। क्रान्तिकारियों के अग्रणीय नेता पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ऋषि दयानन्द के साक्षात् शिष्य थे जिन्हें संस्कृत अध्यापन एवं धर्म-संस्कृति के प्रचार के लिए ऋषि दयानन्द ने इंग्लैण्ड जाने की प्रेरणा करते हुए सहयोग किया था। वहां पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इण्डिया हाउस संस्था स्थापित की थी जहां अनेक क्रान्तिकारियों युवकों को निवास एवं देश की आजादी के लिए कार्य करने का अवसर मिला। क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण ही उन्हें इंग्लैण्ड छोड़ना पड़ा था। वीर सावरकर जी भी अपने इंग्लैण्ड प्रवास में इण्डिया हाउस में रहे थे। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पटियाला आर्यसमाज की इकाई को राजद्रोही संस्था घोषित कर मुकदमा चलाया गया था। यहां के सभी व अधिकांश लोगों को बन्दी बना लिया गया था। आर्यसमाज के लोगों ने यातनायें सही परन्तु किसी ने भी अत्याचारों के डर कर माफी नहीं मांगी प्रत्युत अन्याय का सामना किया। देश की आजादी में आर्यसमाज के योगदान विषयक साहित्य को पढ़कर इस विषय को विस्तार से जाना जा सकता है।


आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। आज ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के आजादी मे योगदान पर किसी नेता द्वारा कोई उल्लेख नहीं किया गया। आर्यसमाज के अधिकांश लोगों ने अहिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी आन्दोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी जिस कारण आर्यसमाज का स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अग्रणीय योगदान है। कीर्तिशेष प्रसिद्ध पत्रकार पं. क्षितीज वेदालकार जी ने अपने ‘स्वतन्त्रता संग्राम में आर्यसमाज का योगदान’ शीर्षक लेख में लिखा है ‘स्वतन्त्रता-संघर्ष का यह रूप बनते ही समस्त आर्यसमाज व्यष्टि और समष्टि रूप में स्वतन्त्रताई संघर्ष में कूद पड़ा। इसीलिये कांग्रेस के इतिहास में लेखक श्री पट्टाभि सीतारामैया को यह स्वीकार करना पड़ा कि कांग्रेस के स्वतन्त्रता-संघर्ष में 80 प्रतिशत व्यक्ति आर्यसमाजी थे, या आर्यसमाजी विचारधारा से प्रभावित थे।’ हम ऋषि दयानन्द सहित देश की आजादी में भाग लेने वाले सभी देशभक्तों को श्रद्धांजलि देते हैं। ओ३म् शम्।  


-मनमोहन कुमार आर्य

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