सनातन मेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः।

 सनातन मेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः। 

अहोरात्रे प्रजायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः।।

-अथर्व०१०।८।२३ 

शब्दार्थ - (एनं) इस देव को (सनातनं) सनातन, अनादिकालीन (आहुः) कहते हैं, (उत) और तो भी यह (अद्य) आज, प्रतिदिन (पुनः नवः) फिर-फिर नया (स्यात्) होता है। देखो, (अन्यः) एक (अन्यस्य) दूसरे के (रूपयोः) रूपों में, समान रूपों में ही (अहोरात्रे) ये दिन-रात (प्रजायेते) सदा पैदा होते रहते हैं।

विनय - विरले ही मनुष्य होते हैं जिन्हें कि आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म आदि की चर्चा रोज़-रोज़ रुचती है, आनन्ददायी लगती है। हम साधारण लोगों को तो यह चर्चा पुरानी, जीर्ण, घिसी हुई, बासी और नीरस ही लगती है। जब हमें रोज़-रोज़ समाज-मन्दिर की वेदकथा में जाने को, नैत्यिक प्रार्थना में उपस्थित होने को या दैनिक भजन-कीर्तन में सम्मिलित होने को कहा जाता है तो हम प्रायः कहते हैं "हम वहाँ जाकर क्या करेंगे ? वहाँ तो रोज़ वही एकरस मामला चलता है, वहाँ कुछ नई चीज़ तो मिलती नहीं।" वास्तव में यह सच है कि जिसमें कुछ नई चीज़ न मिलती हो, कूछ नवीनता न होती हो, वह वस्तु हमें कभी रसदायी नहीं हो सकती, आनन्ददायी नहीं हो सकती। जिन लोगों को प्रतिदिन ईश्वर-भजन करने में आनन्द आता है उन्हें इसलिए आनन्द आता है क्योंकि सचमुच उन भक्तों के लिए वे प्रभु नित्य नये होते रहते हैं, नित्य नया जीवन देते हुए मिलते हैं। हमें ईश्वर का ध्यान करने में तभी रुचि होती है। जब कि उसका ध्यान हमें नित्य नया आनन्द देता है। सच्चा जप करनेवाला वही है जिसे कि प्रभु का महापुराना नाम लेते हुए और उसे बार-बार लेते हुए भी प्रत्येक बार में प्रभुनाम के उच्चारण से नया-नया उत्साह, नया-नया ज्ञान, नई-नई भक्ति की उमंग और नया-नया प्रेम का रस मिलता है। अरे मेरे भाइयो ! ये दिन-रात कितने पुराने हैं, उन्हें तुम भी अपने जन्मदिन से लेकर आज तक बिलकुल उसी एक रूप में रोज़-रोज़ आते हुए देख रहे हो, फिर भी ये तुम्हें पुराने घिसे हुए नीरस क्यों नहीं लगते ? इसका यह कारण है कि दिन-रातों में तुम जीवन पाते रहे हो, प्रतिदिन विकसित होते गये हो। इसी तरह जब तुम उस परमेश्वर में रहने लगोगे, उसमें प्रतिदिन आध्यात्मिक विकास पाने लगोगे तो तुम भी कह उठोगे-“वह अनादिकालीन पुराना सनातन प्रभु मेरे लिए प्रतिदिन फिर-फिर नया होता है, प्रत्येक आज में, प्रत्येक नये दिन में फिर-फिर नया होता है।

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स्रोत - वैदिक विनय। (कार्तिक १३)

लेखक - आचार्य अभयदेव।

प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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