तोड़ो नहीं जोड़ो

 तोड़ो नहीं जोड़ो


#डॉविवेकआर्य 


राजस्थान के जालोर से खबर आ रही है कि एक दलित लड़के ने अपने स्कूल में पानी की मटकी को छू दिया। इससे गुस्सा होकर स्कूल के एक सवर्ण अध्यापक ने उसे इतना मारा कि उसकी अस्पताल में मौत हो गई। यह खबर सरासर जूठ निकली। इस खबर की सच्चाई यह है कि स्कूल में पानी पीने की एक टंकी है, जिससे सभी पानी बिना किसी भेदभाव के पीते  है। कोई मटका ही नहीं है। अध्यापक ने दो बच्चे लड़ रहे थे।  उन्हें दंड रूप में दोनों को  थप्पड़ लगा दिया। दिवंगत लड़के के मर्म स्थान पर चोट लग गई जिससे उसकी बाद में मृत्यु हो गई। जातिवादी राजनीति करने वाले नेताओं ने इसे सवर्ण-बनाम दलित का मामला बना दिया।

 

आज समाज को ऐसे तोड़ने वाले लोगों की नहीं बल्कि जोड़ने वालों की आवश्यकता है। वैदिक व्याख्या के अनुसार सभी मनुष्य एक ही जाति के है क्योंकि उनकी शारीरिक बनावट एक समान है। सभी के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्ण भिन्न भिन्न है। रूढ़िवादी सोच ने वर्णों को विकृत कर जाति रूप में परिवर्तित कर दिया। इसी ने जातिवाद को जन्म दिया। आज प्रचलित जातिवाद के अनुसार अपने जाति में जन्म लेकर अपनी ही जाति के हित की बात करने वाले तो अनेक आपको मिल जायेंगे। परन्तु सवर्ण समझे जाने वाले समाज में पैदा होकर अछूतों के उद्धार करने वाले आपको विरले ही मिलेंगे। आधुनिक भारत में ऐसे महापुरुष का नाम स्वामी दयानन्द है जिन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए समाज में जनजागरण का अभियान चलाया। उन्होंने प्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर ही जातिवाद को बहिष्कृत किया और वेदों की सत्य व्याख्या कर समाज को प्रकाशित किया। 

                                                                                                                                                                                                         

उनके जीवन में से अनेक प्रसंग ऐसे मिलते हैं जिनसे जातिवाद को जड़ से मिटाने की प्रेरणा मिलती हैं।  महर्षि दयानंद के जीवन से कुछ प्रेरणादायक संस्मरण 


1.अछूतों से स्वामी जी का स्नेह


सफरमैना की पल्टन का एक मजहबी सिख जो श्वेत वस्त्र पहने हुए था तथा सभा में बहुत सावधानी से बैठा हुआ स्वामी जी की प्रत्येक बात को दत्तचित्त होकर सुन रहा था कि अकस्मात् उसी समय छावनी का पोस्टमैन मुनीर खां स्वामी जी की डाक लेकर आया। वह पोस्टमैन उस मजहबी सिख को देखकर शोर मचाने लगा। यहां तक कि वह उसे मारने पर उतारू हो गया तथा चिल्लाकर कहा-रे मनहूस नापाक (गन्दे अशुभ) तू ऐसे महान् पुरुष तथा युग प्रसिद्ध व्यक्तितत्व की सेवा में इतनी अशिष्टता से आकर बैठ गया है। तूने अपनी जाति की उन्हें जानकारी नहीं दी। उस समय पता करने पर ज्ञात हुआ कि वह मजहबी सिख था। वह बहुत लज्जित होकर पृथक् जा बैठा। मुनीरखां ने प्रयास किया कि उसे निकाल दिया जाए। तब स्वामीजी ने अत्यन्त कोमलता व सौम्यता से कहा निःसन्देह उसके यहां बैठकर उपदेश सुनने में कोई हानि नहीं और उस पर कोई आपत्ति नहीं करनी चाहिए। तिरस्कृत किये गये उस व्यक्ति ने नयनों में अश्रु भरकर तथा हाथ जोड़कर कहा कि मैंने किसी को कुछ हानि नहीं पहुंचाई। सबसे पीछे जूतियों के स्थान पर पृथक बैठा हूं। स्वामीजी ने डाकिए को कहा कि इतना कठोर व्यवहार तुम्हारे लिए अनुचित है और समझाया कि परमेश्वर की सृष्टि में सब मनुष्य समान है। उस अछूत  को कहा तुम नित्यप्रति आकर यहां उपदेश सुनो। तुमको यहां कोई घृणा की दृष्टि से नहीं देखता। मुसलमानों के निकट भले ही तुम कैसे हो। स्वामीजी के ऐसा कहने से वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और फिर प्रतिदिन व्याख्यान सुनने आता रहा।’


2. रोटी नाई की नहीं गेहूं की है। 


 स्वामी जी अनूपशहर में उपदेश दे रहे थे। इतने में उमेदा नाई भोजन का थाल लाया। स्वामी जी ने प्रेमपूर्वक सभा में ही भोजन करने लगे। सभा में कुछ ब्राह्मण बैठे थे। उन्होंने शोर मचा दिया कि-‘‘यह क्या? नाई भ्रष्ट है। उसके यहां का भोजन संन्यासी को नहीं करना चाहिए।” स्वामी हंसे और कहा, ‘‘रोटी तो गेहूं की है। नाई का तो केवल प्रेम-भाव है। शुद्ध पवित्र भोजन चाहे कोई लाए, खा लेना चाहिये।”


3. जातिवाद से सामाजिक एकता भंग हुई। 


 बम्बई में स्वामी जी के डेरे पर एक बंगाली आया। बातचीत करते-करते उसने पानी मांगा। बंगाली की दाढ़ी लम्बी थी। भक्तों ने समझा, कोई मुसलमान है। उन्होंने उसे गिलास देने की जगह पत्तों के दोनों में पानी दिया। स्वामी जी भड़क उठे और भक्तों को डांटकर कहा, ‘‘कोई किसी जाति का हो, उसका यह अनादर क्यों करो कि गिलास तक न दो ? यही तो कारण है कि इस जाति ने अपने में से लाखों-करोड़ों भाई-बहन निकाल तो दिए हैं, परन्तु अपने में मिलाया एक मनुष्य भी नहीं।” 


4. वर्ण का चयन जन्म से नहीं कर्म से है।  


भक्त-आपको जन्म से नीच कहते हैं। स्वामीजी-मैं भी तो यही कहता हूं कि जन्म से सब नीच हैं। जिसने पढ़ा-पढ़ाया वह ब्राह्मण हो गया, जो धर्म के लिए लड़ा वह क्षत्रिय हुआ, और जिसने व्यापार या खेतों का काम किया वह वैश्य हुआ, नहीं तो शूद्र है। मैंने ब्राह्मण के यहां जन्म लिया था। ब्राह्मण के बेटे को जन्म से नीच माना तो मेरे ही सिद्धान्त पर आए। मुझे ये सारी बातें सुनकर प्रसन्नता हो रही है। इस प्रकार के दुर्वचनों के भी स्वामीजी अच्छे अर्थ लेते रहे और क्रोध में न आए।


स्वामी जी की उदार-वादी सोच का अनुसरण आर्यों ने भी यथार्थ रूप में जमीनी रूप में सुधार कार्य के रूप में आरम्भ कर किया। कुछ उदाहरण देखिये-


5. लाला सोमनाथ जी की माता जी का अमर बलिदान   


लाला सोमनाथ जी रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यों तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। उन्हें जनेऊ पहनाकर सम्मानित स्थान देने के कारण रोपड़ के पौराणिक समाज ने आर्यसमाजियों का बहिष्कार कर दिया एवं सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। नहर का गंदा पानी पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माताजी भी थीं। उन्हें टाइफाइड हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझौता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी ने आपको समझाया कि एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित है फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा, इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई है। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे। माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई, तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों-दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ  ऐसा भड़काया कि आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ से जालंधर ले जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ, जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा 'हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेडख़ानी के आगाज के लिए धन्यवाद अदा करते हैं कि उन्होंने हमें विधिवत् अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य है। 3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी का फैसला भी आ गया। सीताराम को अदालत में माफीनामा पेश करना पड़ा। आर्यों का त्याग अनुपम था। 


6.  कुआँ नापाक हो गया। 


एक अन्य प्रेरणादायक घटना नारायण स्वामी जी के वृन्दावन गुरुकुल प्रवास से सम्बंधित है। गुरुकुल की भूमि में गुरुकुल के स्वत्व में एक कुआँ था। उस काल में ऐसी प्रथा थी कि कुओं से मुसलमान भिश्ती तो पानी भर सकते थे मगर चर्मकारों को पानी भरने की मनाही थी। मुसलमान भिश्ती चाहते तो पानी चर्मकारों को दे सकते थे। कुल मिलाकर चर्मकारों को पानी मुसलमान भिश्तियों की कृपा से मिलता था। जब नारायण स्वामी जी ने यह अत्याचार देखा तो उन्होंने चर्मकारों को स्वयं पानी भरने के लिए प्रेरित किया। चर्मकारों ने स्वयं से पानी भरना आरम्भ किया तो कोलाहल मच गया।

 मुसलमान आकर स्वामी जी से बोले कि कुआँ नापाक हो गया है क्योंकि जिस प्रकार बहुत से हिन्दू हम को कुएँ से पानी नहीं भरने देते उसी प्रकार हम भी इन अछूतों को कुएँ पर चढ़ने नहीं देंगे। स्वामी जी ने शांति से उत्तर दिया 'कुआँ हमारा है। हम किसी से घृणा नहीं करते। हमारे लिए तुम सब एक हो। हम किसी मुसलमान को अपने कुएँ से नहीं रोकते। तुम हमारे सभी कुओं से पानी भर सकते हो। जैसे हम तुमसे घृणा नहीं करते। हम चाहते हैं कि तुम भी चर्मकारों से घृणा न करो। इस प्रकार एक अमानवीय प्रथा का अंत हो गया।


7. मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नहीं


 अपनी खेती की देखभाल करके घर लौट रहे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को रास्ते में सहसा किसी के चिल्लाने की ध्वनि सुनाई दी। शीघ्र जाकर देखा कि एक स्त्री को साँप ने काट लिया है। त्वरित् बुद्धि आचार्य को लगा कि यहाँ ऐसा कोई साधन नही है जिससे सर्प-विष को फैलने से रोका जाये। उन्होंने फौरन यज्ञोपवीत (जनेऊ) तोड़कर सर्प-दंश के ऊपरी हिस्से में मजबूती से बांध दिया। फिर सर्प-दंश को चाकू से चीरकर विषाक्त रक्त को बलात् बाहर निकाल दिया। उस स्त्री की प्राण-रक्षा हो गयी।

 इस बीच गाँव के बहुत से लोग इक_े हो गये। वह स्त्री अछूत थी। गाँव के पण्डितों ने नाराजगी प्रकट करते हुए कहा 'जनेऊ जैसी पवित्र वस्तु का इस्तेमाल इस औरत के लिये करके आपने धर्म की लुटिया डुबो दी। हाय! गजब कर दिया।Ó विवेकी आचार्य ने कहा 'अब तक नहीं मालूम तो अब से जान लीजिये, मनुष्य और मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। मैंने अपनी ओर से सबसे बड़े धर्म का पालन किया है।


8.  रिश्तों से बड़ा दलितोद्धार


 प्रोफेसर शेर सिंह पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार के पिता अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध जमींदार थे। दलितों से छुआछूत का भेदभाव मिटाने के लिए उन्होंने अपने खेतों में बने कुएँ दलितों के लिए पानी भरने हेतु स्वीकृत कर दिए। प्रोफेसर शेर सिंह उस समय विद्यालय में पढ़ते थे। उस काल की प्रथा के अनुसार उनका विवाह निश्चित हो चुका था। जब कन्या पक्ष ने शेर सिंह जी के पिता के निर्णय को सुना तो उन्होंने सन्देश भेजा कि या तो दलितों के लिए कुएँ से पानी भरने पर पाबन्दी लगा दें अन्यथा इस रिश्ते को समाप्त समझें। शेर सिंह जी के पिता ने रिश्तों को सामाजिक एकता के सामने तुच्छ समझा और रिश्ता तोडना स्वीकार किया, पर दलितों के साथ न्याय किया।  जब आर्यसमाज के मूर्धन्य नेता और विद्वान् पंडित बुद्धदेव जी वेदालंकार को यह जानकारी मिली तो वे शेर सिंह जी के पिता से मिलने गए एवं उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी निगाह में एक आर्य कन्या है जिनसे शेर सिंह जी का विवाह होगा। कालांतर में उन्होंने अपनी कन्या का विवाह जाति-बंधन तोड़कर शेर सिंह जी के साथ किया।


इस प्रकार के अनेक प्रसंग महाशय रामचन्द्र जी जम्मू, वीर मेघराज जी, लाला लाजपतराय, लाला गंगाराम जी स्यालकोट, पंडित देवप्रकाश जी मध्य प्रदेश, मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी बरोड़ा, वीर सावरकर जी रत्नागिरी, स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, पंडित रामचन्द्र देहलवी जी दिल्ली आदि के जीवन में मिलते हैं जिनके प्रचार प्रसार से जातिवाद उन्मूलन की प्रेरणा मिलती हैं। 


वर्तमान राजनीति का सबसे वीभत्स चेहरा यही है कि राजनेता अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए समाज को तोड़ने की बात करते है। कोई भी जोड़ने की बात नहीं करता। जातिगत समूह और उनकी पंचायतें भी जातिगत नेताओं की चाटुकार बनकर उनकी कठपुतली बनी हुई है। सोशल मीडिया में वर्ग विशेष तो सारा दिन जहर की खेती बोने का कार्य कर रहा है। आये जातिवादी सोच को नकार एक एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण स्वामी दयानन्द के आदर्शों पर चलते हुए करे। इसी में सभी का हित है।

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