आर्य समाज के बलिदान

 आर्य समाज के बलिदान  

हुतात्मा सुमेर सिंह आर्य            (नया बांस रोहतक)

हिंदी रक्षा आंदोलन 1957


               देश को स्वतंत्रता दिलाने में असंख्य देशभक्तों का अटूट संघर्ष, त्याग और बलिदान शामिल है। इनमें हरियाणा प्रदेश की पावन मिट्टी में जन्में अनेक वीर स्वतंत्रता सेनानी और बलिदानी भी शामिल थे। राष्ट्र की स्वतंत्रता, अखण्डता और अस्मिता से जुड़े हर मुद्दे पर हरियाणा के वीर सपूतों ने अपना योगदान बढ़चढक़र दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रभाषा हिन्दी मान-सम्मान का विषय आया तो हरियाणा के महापुरूषों ने ‘हिन्दी आन्दोलन’ छेड़ दिया। उस समय हरियाणा प्रदेश संयुक्त पंजाब का हिस्सा था। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों की संयुक्त पंजाब सरकार ने हिन्दी की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी और पंजाबी को प्राथमिकता देने और भाषायी आधार पर हरियाणा के लोगों से भेदभाव एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार करने की कोशिश की तो हरियाणा के वीर हिन्दी प्रेमियों ने सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दिया।  हिन्दी के अस्तित्व व अस्मिता के लिए चले इस आन्दोलन को ‘हिन्दी रक्षा आन्दोलन’ के नाम से भी जाना जाता है।


🏵हिन्दी आन्दोलन🏵


            हिन्दी के मान-सम्मान के लिए हरियाणा प्रदेश के हजारों सत्याग्रहियों ने अटूट संघर्ष किया। उनका असीम त्याग और बलिदान भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ही स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हुआ। हिन्दी रक्षा आन्दोलन मुख्य रूप से आर्यसमाजियों द्वारा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली और आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के संयुक्त नेतृत्व में चलाया गया। हिन्दी के मान-सम्मान के लिए हजारों सत्याग्रहियों को जेलों में भयंकर यातनाएं सहनी पड़ीं और हरियाणा के रोहतक जिले के नयाबास गाँव में जन्में वीर सूरमा सुमेर सिंह (टांक-रोहिल्ला राजपूत) सहित 18 वीर सत्याग्रहियों को अपने जीवन का बलिदान भी करना पड़ा। हिन्दी सत्याग्रहियों के बुलन्द हौंसलों को तोडऩे और उन्हें कुचलने के लिए तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार ने ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया। 50,000 से अधिक हिन्दी सत्याग्रहियों को जेल में डालकर अनेक भयंकर यातनाएं दी गईं, लाखों रूपयों का जुर्माना जबरदस्ती वसूला गया। केवल इतना ही नहीं, सत्याग्रहियों के घर, खेत, पशु तक कुर्क लिए गए। लेकिन, सत्याग्रहियों पर सरकार की दमनकारी नीतियों का तनिक भी असर नहीं हुआ। संयुक्त पंजाब सरकार ने सत्याग्रहियों पर जितने अधिक जुल्म ढ़ाए, सत्याग्रहियों ने उतने ही मुखर होकर अपने साहस और संकल्प का परिचय दिया। हिन्दी सत्याग्रहियों का यह प्रेरणादायी और ऐतिहासिक आन्दोलन 27 दिसम्बर, 1957 तक चला। यह हिन्दी आन्दोलन ही आगे चलकर हरियाणा प्रदेश के निर्माण की नींव बना और 1 नवम्बर, 1966 को भाषायी आधार पर हरियाणा प्रदेश का देश के 17वें राज्य के रूप में उदय हुआ।


हिन्दी आन्दोलन और 24 अगस्त, 1957 का काला दिन

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त लंबे समय तक चले हिन्दी रक्षा आन्दोलन में अनेक उतार-चढ़ाए आए। लेकिन, इस दौरान 24 अगस्त, 1957 का वो दिन भी आया, जो भारतीय इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज हुआ। तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार द्वारा हिन्दी सत्याग्रहियों पर असहनीय अत्याचार और अमानुषिक यातनाओं का दौर चरम पर था। हजारों सत्याग्रही देश-प्रदेश की कई जेलों में अनेक असहनीय जुल्म सह रहे थे। इन्हीं में से एक फिरोजपुर जेल थी, जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दी सत्याग्रही कैद करके रखे गए थे। 24 अगस्त, 1957 की शाम सवा चार बजे एकाएक हिन्दी सत्याग्रहियों पर सुनियोजित रूप से लाठीचार्ज करवा दिया गया। जेल में बन्द खुंखार कैदियों को उकसाकर ताबड़तोड़ जानलेवा हमले करवाए गए। जघन्य अपराधियों ने लाठी, डण्डों, लोहे के सरियों और खाटों की मोटी बाहियों से हिन्दी सत्याग्रहियों पर भयंकर धावा बोल दिया। हिन्दी सत्याग्रहियों के हाथ, पैर, सिर और कमर को तोडक़र रख दिया गया। देखते ही देखते चारों तरफ खून से लथपथ, भयंकर दर्दभरी चिख-चिल्लाहट और मरणासन्न अवस्था में पहुंचते सत्याग्रहियों का नारकीय मंजर दिखाई देने लगा। बुखार से तड़पते सत्याग्रही फूल सिंह को भी टाट पर लेटे-लेटे इतनी बुरी तरह से पीटा कि उनकीं तीन पसलियां चकनाचूर हो गईं। एक सत्याग्रही सत्यपाल के गुप्तांगों को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। सच्चिदानंद शास्त्री की कमर की हड्डी तोड़ दी गई। अनेक सत्याग्रहियों के सिर फोड़ दिए गए। आर्य समाज के प्रणेता महर्षि दयानंद की अमर रचना सत्यार्थ-प्रकाश टाट पर बैठककर तल्लीनता के साथ पढ़ रहे रोहतक जिले के नया बांस गाँव के युवा वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह को तो इतनी बुरी तरह से मारा-पीटा गया कि उनकीं मृत्यु हो गई।


🏵वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह की शहादत🏵


             वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह की फिरोजपुर जेल में दी गई शहादत ने तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार की जड़ों को हिलाकर रख दिया। 25 अगस्त, 1957 को पंजाब की फिरोजपूर जेल में हिन्दी सत्याग्रहियों पर हुए जानलेवा हमलों का समाचार समाचार-पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। प्रताप समाचार पत्र में मोटे अक्षरों में लिखा था कि फिरोजपुर जेल में हिन्दी सत्याग्रहियों पर जबरदस्त लाठीचार्ज हुआ, जिसमें गाँव नया बांस के सुमेर सिंह की मौके पर ही मृत्यु हो गई और बहुत लोगों को गम्भीर चोंटें आई हैं। इस समाचार से आम जनता का भी खून खौल उठा। हर कोई शहीद सुमेर सिंह जिन्दाबाद और शहीद सुमेर सिंह अमर रहे आदि नारों के साथ जेली, गंडासे आदि लेकर सडक़ों पर उतर आया। पुलिस प्रशासन को कानून व्यवस्था बनाए रखना असंभव नजर आने लगा। शहीद सुमेर सिंह का शव नया बांस गाँव में पहुंचने से पहले ही पुलिस ने कड़ी नाकेबन्दी कर दी। जब आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वामी अभेदानन्द जी महाराज गाँव पहुंचे तो उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया। दूसरे गाँव के लोगों को नया बांस गाँव में पहुंचने ही नहीं दिया गया। शहीद सुमेर सिंह के भाई मेहर सिंह को भी गाँव के बाहर नाके पर ही रोक लिया गया। लेकिन, जब उन्होंने अपना परिचय दिया तो उन्हें पुलिस अपनी निगरानी में उनके घर तक लेकर गई। इससे ग्रामीणों का आक्रोश चरम पर पहुंच गया। शहीद सुमेर सिंह के परिजनों ने समझदारी दिखाते हुए ग्रामीणों को शांत किया और कोई अन्य अनहोनी घटना न घट जाए, इसके लिए सावधान रहने का आग्रह किया।


🏵पंचतत्व में विलीन🏵


           25 अगस्त, 1957 का दिन भी शहीद सुमेर सिंह आर्य के परिजनों के लिए भयंकर पीड़ादायक रहा। देर रात हो चुकी थी। पुलिस सरकार के इशारों पर परिजनों पर रात को ही शहीद सुमेर सिंह के दाहसंस्कार के लिए भारी दबाव बनाए हुए थी और परिजनों को बेहद शर्मनाक धमकियां दे रही थी कि अगर उन्होंने रात को ही दाहसंस्कार नहीं किया तो वे मिट्टी का तेल डालकर शव को जला देंगे। इससे परिजनों और ग्रामीणों का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। इन अति संवेदनशील क्षणों में शहीद के परिजनों ने पुलिस से आग्रह किया कि उन्हें आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वामी अभेदानन्द जी महाराज से मिलवाया जाए, ताकि किसी निर्णय पर पहुंचा जा सके। नाजुक हालत देखते हुए पुलिस ने शहीद के परिजनों को स्वामी अभेदानन्द जी महाराज से मिलवाया। स्वामी जी ने दो टूक कह दिया कि शहीद का अंतिम संस्कार रात्रि में कदापि नहीं होगा, चाहे कुछ भी हो जाए। स्वामी के इस निर्णय को पत्थर की लकीर मानकर शहीद के परिजनों ने भी पुलिस को दो टूक कह दिया कि जैसा स्वामी जी ने कहा है, वैसा ही होगा। पुलिस का भयंकर दबाव परिजनों पर चलता रहा, लेकिन उनके संकल्प के आगे पुलिस को अंतत: झुकना ही पड़ा। अगले दिन, 26 अगस्त, 1957 की सुबह हिन्दी आन्दोलन के अजर-अमर शहीद सुमेर सिंह आर्य का परिजनों ने दाहसंस्कार किया। शहीद सुमेर सिंह आर्य जिन्दाबाद और शहीद सुमेर सिंह आर्य अमर रहे के नारों से आसमान गूंज उठा। शहीद सुमेर सिंह की कुर्बानी रंग लाई और चार महीने बाद ही 27 दिसम्बर, 1957 को हिन्दी रक्षा आन्दोलन कामयाबी का परचम लहराते हुए पूर्ण हो गया। हिन्दी को पूर्ण मान-सम्मान मिला और आगे चलकर संयुक्त पंजाब का बंटवारा हो गया और 1 नवम्बर, 1966 को हरियाणा प्रदेश हिन्दी की गौरवमयी गरिमा के साथ देश के सत्रहवें राज्य के रूप में अस्तित्व में आ गया।


🏵अजर-अमर शहीद सुमेर सिंह आर्य🏵


हिन्दी आन्दोलन को कामयाब बनाने के लिए अपने जीवन की कुर्बानी देने वाले क्रांतिवीर सुमेर सिंह आर्य श्रेष्ठ ब्रह्मचारी थे। उनका जन्म हरियाणा में रोहतक जिले के सांपला ब्लॉक में नया बांस गाँव के श्री प्रभु दयाल आर्य जी के घर आदर्श गृहिणी श्रीमती ज्वाला देवी जी की कोख से 10 अगस्त, 1929 को हुआ था। वे पाँच भाई थे और उनकीं दो बहनें थीं। सुमेर सिंह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने सांपला के विद्यालय से मिडिल तक उर्दू में शिक्षा ग्रहण की। बालक सुमेर आचार्य श्री भगवान देवी जी (स्वामी ओमानन्द जी) और पंडित बस्ती राम जी के आर्य के प्रचार-प्रसार से प्रभावित होकर देशभक्ति के कार्यों में गहरी रूचि लेने लगा। धीरे-धीरे सुमेर सिंह आर्य समाज की विचारधारा से रंग गए। इस बीच उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी में आगे की पढ़ाई करने का संकल्प लिया और राष्ट्रभाषा रत्न एवं प्रभाकर तक की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद पूर्ण रूप से आर्य साहित्य का स्वाध्याय करने लगे।


🏵श्रेष्ठ ब्रह्चर्य का पालन🏵


        युवा सुमेर सिंह श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। संध्या हवन (यज्ञ) भी मौखिक रूप से करवाने लगे। प्रात: चार बजे उठना, व्यायाम-प्राणायाम करना, संध्या करना, सत्यार्थ-प्रकाश, मनुस्मृति, संस्कार विधि, वेद-उपनिषदों आदि का नियमित स्वाध्याय करना उनकीं दिनचर्या थी। आजीविका के रूप में उन्होंने सिलाई (टेलरिंग) की कला में निपुणता हासिल की। इस बीच आर्य समाज की गतिविधियों में बराबर भागीदारी करने के चलते उन्हें आचार्य भगवान देव के आशीर्वाद से आर्य समाज नया बांस शाखा में मंत्री चुन लिया गया। कुछ समय पश्चात सुमेर सिंह आर्य ने खतौली, जिला मुजफ्रनगर में अपने भाई के साथ मिलकर टेललिंग की दुकान खोली। उनके दूसरे भाई ओम प्रकाश आर्य और लक्ष्मण सिंह आर्य भी वहीं काम करते थे। सुमेर सिंह ने खतौली कस्बे के बोंदू सिंह वाल्मिकी अखाड़े में अपने भाई के साथ लाठी, गदका और नंगी तलवार चलाने का प्रशिक्षण लिया। आर्य समाज की गतिविधियों में उनकीं रूचि को देखते हुए उन्हें आर्यवीर दल खतौली शाखा का संचालक नियुक्त कर दिया गया। लेकिन, आर्य समाज की गतिविधियों में गहराई तक रम चुके सुमेर सिंह ने सभी घरेलू कार्य छोड़ दिए और स्वयं को राष्ट्रोत्थान में समर्पित कर दिया। वे बलवान, बुद्धिमान, आत्मविश्वासी और प्रखर वक्ता थे। उन्होंने पूर्ण रूप से और नि:स्वार्थ भावना से आर्य समाज के साथ जोड़ लिया। उन्होंने अपने परिजनों से विवाह बन्धन में बंधने से भी मना कर दिया और आजीवन ब्रह्चर्य का जीवन जीने और समाज व राष्ट्र के उत्थान में अटूट सेवा करने का संकल्प ले लिया।


🏵हिन्दी आन्दोलन को समर्पित🏵


           स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत तत्काली संयुक्त पंजाब सरकार द्वारा हिन्दी भाषा के साथ किए जाने वाले सौतेले व्यवहार से हिन्दी आन्दोलन का जन्म हुआ। आर्य समाज ने हिन्दी के मान-सम्मान के लिए सरकार के विरूद्ध खुला ऐलान कर दिया। स्वामी आत्मानंद जी महाराज, यमुनानकर के आह्वान पर हिन्दी सत्याग्रह  (हिन्दी रक्षा आन्दोलन) का बिगुल फूंक दिया गया। युवा सुमेर सिंह आर्य का भी इस आन्दोलन में कूदना तय ही था। सभी गाँवों से हिन्दी सत्याग्रह से जत्थे निकलने शुरू हुए। सुमेर सिंह आर्य ने अपने नया बांस गाँव के जत्थे का नेतृत्व किया और गुरूकुल झज्जर से ब्रहमचारी बलदेव के जत्थे के साथ मिलकर आचार्य श्री भगवान देव के नेतृत्व में चण्डीगढ़ में डटकर सत्याग्रह किया। पुलिस ने उन्हें अन्य हिन्दी सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार करके फिरोजपुर जेल में डाल दिया। उन्होंने तीन महीने तक जेल में रहते हुए अनेक यातनाएं सहीं। लेकिन, 24 अगस्त, 1957 को जेल में हुए लाठीचार्ज में वे बुरी तरह से घायल हो गए और अंतत: हिन्दी रक्षा आन्दोलन के शहीदों में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया।

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