"हे इन्द्र ! अब हमें तुम्हीं अपना वह संयम प्रदान करो, अ

 "हे इन्द्र ! अब हमें तुम्हीं अपना वह संयम प्रदान करो, अपनी वह महत्ता प्रदान करो, अपनी वह अहिंसा-शक्ति प्रदान करो और उस स्वस्ति व निर्विकारता को प्रदान करो जिसके साधन से मनुष्य किसी की भी हिंसा न करता हुआ सबकी उन्नति ही साधता है और इस प्रकार इस संसार में पूरी तरह शत्रुरहित हो जाता है।"

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आ संयतमिन्द्र णः स्वस्ति शत्रुतूर्याय बृहतीममृधाम्। 

यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि॥

-ऋक्०६।२२।१०, यजुः० ३३/१६ 

ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। 

देवता - इन्द्रः। 

छन्द: - त्रिष्टुप्। 

विनय - हे इन्द्र ! तुम्हीं पूरी तरह शत्रु का विनाश करनेवाले हो। तुम शत्रु का इतनी अच्छी तरह विनाश करते हो कि उसका सब शत्रुत्व, सब बराई विनष्ट हो जाती है; किन्तु उस मनुष्य की अच्छाई ज़रा भी नष्ट नहीं होने पाती, बल्कि वह मनुष्य अधिक श्रेष्ठ बन जाता है। तुम दास-शत्रुओं को आर्य बनाकर उनका शत्रुपना नष्ट कर देते हो और मानुष-शत्रुओं को उत्तम आचरणवाले मनुष्य बनाकर उनका शत्रुत्व नष्ट कर देते हो। तुम अपनी जिस स्वस्ति से, जिस स्वस्थता से, जिस निर्विकारता से, जिस कल्याणमय अवस्था से ऐसा करते हो वह हमें भी प्रदान करो। हम अपने शत्रुओं का सच्चे अर्थों में विनाश कर सकें, इसके लिए वह अपनी स्वस्ति, वह अपनी निर्विकारता हमें भी प्राप्त कराओ। यह ठीक है कि हममें वह संयम, वह महत्ता, वह अहिंसा नहीं है जिसके बिना तुम्हारी यह स्वस्ति की शक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। परन्तु ये गुण हमें अन्य कौन प्रदान करेगा ? हे इन्द्र ! तुम्हीं वह महान् अहिंसारूपिणी संयमवाली स्वस्ति-शक्ति हममें भर दो जिसके प्रयोग से मनुष्यत्व से गिरे हुए, उपक्षय करनेवाले, दास भी आर्य-मनुष्य बन जाते हैं और मनुष्य-'वृत्र' भी उत्तम गमन व आचरणवाले, सुन्दर वृद्धि करनेवाले या तेरे सुपुत्र बन जाते हैं; शत्रु नहीं रहते। हम भी, हे वज्रवाले ! हे पाप का वर्जन करानेवाले! हम ऐसे ही ठीक प्रकार से शत्रु का विनाश कर सकनेवाले होना चाहते हैं। उलटे तरीके से, असंयम और हिंसा के तरीके से शत्रुओं का विनाश करने का यत्न करते-करते हम तंग आ गये हैं। इसलिए हे इन्द्र ! अब हमें तुम्हीं अपना वह संयम प्रदान करो, अपनी वह महत्ता प्रदान करो, अपनी वह अहिंसा-शक्ति प्रदान करो और उस स्वस्ति व निर्विकारता को प्रदान करो जिसके साधन से मनुष्य किसी की भी हिंसा न करता हुआ सबकी उन्नति ही साधता है और इस प्रकार इस संसार में पूरी तरह शत्रुरहित हो जाता है।

शब्दार्थ - (हे इन्द्र) हे इन्द्र ! (शत्रुतूर्याय) शत्रुओं के विनाश के लिए (नः) हमें वह (वृहतीं) महान् (अमृध्रां) हिंसारहित, अहिंसिका (संयतं) संयमवाली (स्वस्ति) स्वस्थता, निर्विकारता की अवस्था, कल्याणमयता को (आ) [भर] सब ओर से प्राप्त कराओ, (यया) जिस स्वस्ति द्वारा तुम (दासानि वृत्रा) दास-शत्रुओं को (आर्याणि) आर्य (करः) कर देते हो, बना देते हो और (वज्रिन्) हे वज्र वाले ! (नाहुषाणि) [वृत्ता] मनुष्य-शत्रुओं को (सुतुका) उत्तम गमन व वृद्धिवाले या सुपुत्र बना देते हो।

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स्रोत - वैदिक विनय। (मार्गशीर्ष १५)

लेखक - आचार्य अभयदेव।

प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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