परमहंस श्री पंडित लेखराम जी •
परमहंस श्री पंडित लेखराम जी •
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- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
संन्यास आश्रम में प्रवेश करते समय मनुष्य को निम्नलिखित घोषणाएँ करनी पड़ती हैं -
पुत्रैषणा मया परित्यक्ता,
वित्तैषणा मया परित्यक्ता,
लोकैषणा मया परित्यक्ता।
लेखराम का इकलौता पुत्र चारपाई पर पड़ा है, पास में खड़ा डाक्टर कह रहा है, इसके बचने की कोई आशा नहीं है, चारपाई के दूसरी ओर लेखराम हाथ में एक पत्र लिये खड़ा है, जिसमें लिखा है कि अमुक गाँव में रहने वाले हजारों हिन्दू मुसलमान बनने जा रहे हैं। लेखराम डाक्टर की बात अनसुनी करके उक्त गाँव की ओर जाने के लिए स्टेशन की ओर चल देते हैं। माता के टोकने पर कहते हैं, एक लड़के को बचाने के लिए हजारों हिन्दुओं को मुसलमान कैसे बनने दूँ ? पुत्रैषणा के परित्याग का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
लेखराम के पास एक व्यक्ति कुछ सहायता की याचना करने पहुंचता है। लेखराम के पास उसे देने के लिए कुछ नहीं है। पास में खड़ी धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को पति के पास से याचक को खाली हाथ लौटाना सहन नहीं होता है। वह भीतर कोठरी में जाती है और कुछ पैसे लाकर याचक की हथेली पर रख देती है। याचक के चले जाने पर लेखराम पत्नी से पूछता है, तुम्हारे पास यह पैसे कहाँ से आये? उत्तर में पत्नी कहती है, घर खर्च चलाने के लिए प्रतिमास जो रुपये आप मुझे देते हैं, उन्हीं में से थोड़े-थोड़े बचाकर यह पैसे रखे थे।
लेखराम सभा प्रधान लाला मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द) को लिख भेजते हैं कि - मेरे वेतन में से पाँच रुपये मासिक बच जाते हैं इसलिए आप मेरे वेतन में पाँच रुपये कम कर दें। क्या इससे बढ़कर वित्तैषणा का परित्याग हो सकता है?
खण्डन का खाण्डा लिये हुए घूमने वाले लेखराम को चारों ओर से शत्रुओं ने घेर रखा है, रात-दिन धमकियाँ मिलती रहती हैं। ऐसा व्यक्ति संसार में यश पाने की
आशा कैसे कर सकता था?
गृहस्थी में रहते हुए इस प्रकार का जीवन बिताने वाला लेखराम परमहंस के पद का अधिकारी नहीं होगा तो और कौन होगा?
लेखराम आरज पथिक प्रतिवादी निर्द्वन्द।
जगिहै तुम्हरे रुधिर ते वैदिक धर्म अमन्द॥
[स्रोत : "दयानंद संदेश" मासिक का पंडित लेखराम जन्मशताब्दी विशेषांक, जुलाई 1997, पृ. 29, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]