सुनिए वैदिक विद्वान स्वामी शांतानंद सरश्वती'' दर्शनाचार्य ''का वैदिक लेख'' माण्डूक्योपनिषद् का अतिसूक्ष्म परिचय ''

 सुनिए वैदिक विद्वान स्वामी शांतानंद सरश्वती'' दर्शनाचार्य ''का वैदिक लेख'' माण्डूक्योपनिषद् का अतिसूक्ष्म परिचय ''

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                                                        माण्डूक्य उपनिषद् परिचय- 

जिसकी वेद आदि शास्त्रों से  विभूषित वाणी  हो वह मण्डूक

और मण्डूक की जो कृति है  उसे माण्डूक्य उपनिषद् कह सकते हैं।सभी उपनिषदों में यह सबसे लघु उपनिषद् है और अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस उपनिषद् में कोई खण्ड या अध्याय नहीं हैं एक ही भाग में यह पूर्ण हो गया है। इसमें कुल 12श्लोक और 19पेज हैं ।

   इसमें अकार उकार मकार सहित ओंकार की विस्तृत व्याख्या है ।  इसमें बताया गया है कि ओम् एक छोटा सा अक्षर है परन्तु सम्पूर्ण संसार इसी एक अक्षर की व्याख्या है । भूत भविष्यत् और वर्तमान सब ओंकार का ही विस्तार है ।यहां  पिंड एवं ब्रह्माण्ड की समानता दिखलाते हुए  ब्रह्मांड में ब्रह्म के भी  चार पाद एवं पिंड में जीवात्मा के भी चार पाद हैं अर्थात् इन दोनों की अनुभूति के चार स्थान या जगह  बतलाए गए हैं जहां इन्हें पाया जा सकता है । 

    जीवात्मा तथा ब्रह्म का प्रथम पाद , प्रथम स्थान वह है जिसे हम शरीर की जागृतावस्था कहते हैं । वास्तव में शरीर जागृत अवस्था में तभी तो आता है जब जीवात्मा जाग्रत - स्थान में आ बैठता है।  जैसे शरीर में सिर आंख कान वाणी फेफड़े हृदय तथा पांव ये सात अंग हैं वैसे ब्रह्म के भी सात अंग हैं जैसे अग्नि सिर है ,सूर्य चंद्र आंखें हैं , दिशाएं कान हैं , वेद वाणी है , वायु फेफड़े हैं ,विश्व हृदय है तथा पृथ्वी पांव है ऐसा आलंकारिक वर्णन यहां किया गया है ।

  जीवात्मा तथा ब्रह्म का द्वितीय पाद , द्वितीय स्थान वह है जिसे हम शरीर की स्वप्नावस्था कहते हैं । शरीर की स्वप्नावस्था तभी होती है जब जीवात्मा जाग्रत स्थान से हटकर वहां क्रिया न करके स्वप्न स्थान में क्रियाशील हो जाता है अर्थात् जब शरीर की स्वप्नावस्था होती है तब जीवात्मा का स्वप्न स्थान होता है उस समय जीवात्मा बहिः प्रज्ञ से हटकर अन्तः प्रज्ञ हो जाता है । जागृत अवस्था और स्वप्न अवस्था में इतना अन्तर है कि जागृतावस्था में जीवात्मा जाग्रत स्थान में आकर स्थूल शरीर और स्थूल इन्द्रियों से भोग करता है तथा स्वप्नावस्था में जीवात्मा स्वप्न स्थान में आकर सूक्ष्म शरीर से और सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों से भोग करता है । इसी प्रकार जब ब्रह्म स्वप्न स्थान में होता है तब सम्पूर्ण स्थूल सृष्टि सूक्ष्म रूप में होकर उसके विचार में होती है ।

 जीवात्मा तथा ब्रह्म का तृतीय पाद तृतीय स्थान है जिसे हम शरीर की सुषुप्तावस्था कहते हैं । शरीर की सुषुप्तावस्था तभी होती है जब जीवात्मा जाग्रत स्थान से हटकर वहां क्रिया न कर


के सुषुप्त स्थान में क्रियाशील हो जाता है । अर्थात् जब शरीर कीसुषुप्तावस्था होती है तब जीवात्मा सुषुप्त स्थान में रहता है । इस अवस्था में  न कोई स्वप्न होता है न कोई कामना होती है यह अत्यन्त अज्ञान की अवस्था होती है ।  इसी प्रकार ब्रह्म का सुषुप्त स्थान प्रलय अवस्था है जब प्रकृति सुषुप्त अवस्था में चली जाती है ।

      उक्त तीनों स्थानों में निवास करने वाले जिस ब्रह्म का इस उपनिषद् में वर्णन किया गया है वह सर्वेश्वर है , सर्वज्ञ है , सर्वान्तर्यामी है , सबका कारण है ,भूतों की उत्पत्ति तथा प्रलय उसी से होती है अकार उकार व मकार से युक्त ओंकार से इसी ब्रह्म की उपासना की जाती है ।

 जीवात्मा तथा ब्रह्म की  चतुर्थ अवस्था  तुरीय  अवस्था का वर्णन भी  यहां अंत में  संक्षिप्त रूप से किया गया है।  जैसे शरीर की जागृतावस्था स्वप्न अवस्था व सुषुप्ति अवस्था से निकल कर जीवात्मा चतुर्थ अवस्था तुरीयावस्था में आ जाता है वैसे प्रकृति की जाग्रत स्वप्न व सुषुप्ति इन अवस्थाओं से निकल कर ब्रह्म भी अपने तुरीयावस्था में आ जाता है जो कि अकार उकार व मकार की मात्राओं से पृथक ओंकार का अमात्र रूप है ।

                                      स्वामी शान्तानन्द सरस्वती

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