सुनिए स्वामी शांतानंद सरश्वती ''दर्शनाचार्य ''के लेख कठोपनिषद का अतिसूक्ष्म परिचय को वैदिक राष्ट्र पर ,, इस तरह के वैदिकलेखों प्रेरणादायककहानियां महापुरुषों के #जीवनपरिचय #नीतिगतज्ञान के लिए पंचतंत्र #चाणक्यनीति #विदुरनीति #शुक्रनीति के वचनों के साथ वैदिक भजनों के लिए भी #वैदिकराष्ट्र को लाइक करें #वैदिकराष्ट्र को शेयर करें #वैदिकराष्ट्र को सब्सक्राइब करें
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धन्यवाद
उपनिषदों की संख्या 11 होती हे
जिनके नाम इस प्रकार हे
(१) ईशावास्योपनिषद्,
(२) केनोपनिषद्
(३) कठोपनिषद्
(४) प्रश्नोपनिषद्
(५) मुण्डकोपनिषद्
(६) माण्डूक्योपनिषद्
(७) तैत्तरीयोपनिषद्
(८) ऐतरेयोपनिषद्
(९) छान्दोग्योपनिषद्
(१०) बृहदारण्यकोपनिषद्
(११) श्वेताश्वतरोपनिषद्
कठोपनिषद् परिचय
जो उपनिषद् कठोर तप त्यागमय जीवन वाले कठिन आध्यात्मिक दिनचर्या करने वाले ऋषि के द्वारा लिखा गया है वह कठोपनिषद् है । यह उपनिषद् यमाचार्य और नचिकेता के आख्यान के कारण आध्यात्मिक जगत में अत्यन्त प्रसिद्ध है । इस उपनिषद् में भोग के स्थान पर योग की प्रधानता बतलायी गई है साथ ही त्याग - तप , आत्मा - परमात्मा , इन्द्रिय नियंत्रण आदि विषयों का गम्भीर चित्रण किया गया है ।
यह उपनिषद् ६ वल्ली में विभाजित है । इसमें 55पृष्ठ हैं ।
प्रथमा वल्ली में वाजश्रवस ऋषि को मुक्ति की कामना होने पर सब कुछ दान करने व अपने सुपुत्र नचिकेता को मृत्यु के प्रतीक यमाचार्य को दान करने का उल्लेख मिलता है। जब नचिकेता यमाचार्य के यहां जाता है तो यमाचार्य घर में नहीं मिलते हैं अतः तीन दिन बिना खाए पिये नचिकेता यमाचार्य की प्रतीक्षा करता है । यमाचार्य के लौटने पर जब नचिकेता का वृतान्त उन्हें ज्ञात होता है तो तीन वर मांगने कहते हैं ।
प्रथम वर के रूप में नचिकेता यह मांगता है कि यहां से घर लौटने पर उसके पिता जी उससे प्रसन्नता पूर्वक मिलें ।
दूसरे वर के रूप में स्वर्ग साधक अग्नि का ज्ञान मांगता है तब यमाचार्य ने नचिकेता को स्वर्ग लोक की साधक आदि अग्नि का उपदेश देते हुए बतलाया कि ब्रह्मचार्य - गृहस्थ , गृहस्थ - वानप्रस्थ , वानप्रस्थ - संन्यास इन तीन सन्धियों से अर्थात् इनके अनुभव से तीन स्वर्ग साधक अग्नियां उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार यमाचार्य जी के सम्पूर्ण उपदेश को नचिकेता ने मनोयोग पूर्वक सुना और यमाचार्य को ठीक ठीक वैसे ही सुना भी दिया ।नचिकेता के कुशाग्र बुद्धि को देखकर यमाचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस अग्नि का नाम नाचिकेत अग्नि रख दिया । जो इस नाचिकेत अग्नि की ब्रह्मचर्य , गृहस्थ तथा वानप्रस्थ इन तीनों आश्रमों में उपासना करेगा अर्थात् ब्रह्म यज्ञ , देवयज्ञ तथा वेद दर्शन उपनिषद् आदि वैदिक शास्त्रों के अध्ययन से ब्रह्म ज्ञान को उत्पन्न करेगा वह वह परम ब्रह्म को जानकर जन्म मरण के चक्र से छूट कर परम शांति को प्राप्त करेगा ।
तीसरे वर के रूप में मृत्यु के अनन्तर क्या होता है अर्थात् मृत्यु के बाद जीवात्मा की क्या गति स्थिति होती है इसका ज्ञान मांगता है । तब यमाचार्य जी इस वर को छोड़ कर अन्य कोई वर मांगने के लिए कहते हैं परन्तु नचिकेता यही वर पर अडिग रहता है फिर यमाचार्य उसे धन धान्य ,हाथी घोड़े , पुत्र पौत्र , सौ वर्ष की आयु आदि अनेक भौतिक ऐश्वर्यों को मांगने कहते हैं परन्तु नचिकेता इनकी क्षणभंगुरता को बतलाकर अपने ही वर पर दृढ़ रहता है । तब द्वितीया वल्ली में यमाचार्य जी नचिकेता की इच्छा पूर्ण करते हैं ।
द्वितीया वल्ली के आरम्भ में यमाचार्य के द्वारा नचिकेता को श्रेय मार्ग व प्रेय मार्ग में भिन्नता को बतलाते हुए श्रेय मार्ग की श्रेष्ठता सिद्ध कराते हैं
और उसे परम गहन विवेक वैराग्यमय आध्यात्मिक उपदेश प्रदान करते हुए सब वेद का सार ओ३म् पद को बतलाते हैं जिसकी कामना ब्रह्मचारी संन्यासी तपस्वी महात्मा सभी करते हैं ।इस प्रकार ब्रह्म ज्ञान से ओतप्रोत सुन्दर कथानक का वर्णन इस वल्ली में मिलता है ।
तृतीया वल्ली में कर्मकाण्ड और ज्ञान काण्ड में भेद बतलाया गया है तथा आत्मा को रथी , शरीर को रथ , बुद्धि को सारथी एवं मन को लगाम के रूप में सुन्दर चित्रण किया गया है । साथ ही ब्रह्म को समस्त जड़ चेतन पदार्थों में व्यापक बतलाते हुए उसे रूप रस गंध स्पर्श आदि से रहित बतलाकर के ब्रह्म के वैदिक स्वरूप का वर्णन किया गया है ।
चतुर्थी वल्ली में अन्तर्मुखी बनकर आत्मा के अन्दर ही रहने वाला अंगुष्ठ मात्र परमात्मा के दर्शन करने का उपदेश दिया गया है जो परमात्मा भूत भविष्य और वर्तमानतीनों कालों का स्वामी है । इस वल्ली में अंतर्मुखी होकर मन इन्द्रियों को वश में करने के लिए प्राणायाम को महत्त्वपूर्ण साधन बतलाया गया है ।
पंचमी वल्ली में जीव के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करते हुए उसे हंस वसु अतिथि आदि अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है तथा मृत्यु के बाद जीवात्मा की क्या गति होती है इस महान रहस्य को यहां यमाचार्य के द्वारा बताया गया है ।
षष्ठी वल्ली में मनुष्य के शरीर को अश्वत्थ कहा है अर्थात् कल रहेगा या नहीं जिसका कोई भरोसा नहीं है । साथ ही इस शरीर को उल्टा टंगा हुआ वृक्ष बतलाया गया है । आगे परम ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से योगमय विधि विधान का उल्लेख किया गया है।
स्वामी शान्तानन्द सरस्वती ''दर्शनाचार्य ''
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