वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग इक्यावन में मुनि शतानंद जी भगवान राम को महर्षि विश्वामित्र जी के बारे में बताते हैं

  वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग इक्यावन में मुनि शतानंद जी भगवान राम को महर्षि विश्वामित्र जी के बारे में बताते हैं कि उनके कर्म अचिंत्य हैं । ये तपस्या से ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हुए हैं । इनकी कान्ति असीम है और ये महा तेजस्वी हैं । मैं इनको जानता हूं । ये जगत के परम आश्रय हैं । श्री राम ! इस पृथ्वी पर आपसे बढ़ कर धन्याति धन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है ; क्योंकि कुशिक नन्दन विश्वामित्र आपके रक्षक हैं , जिन्होंने बड़ी भारी तपस्या की है । मैं महात्मा कौशिक के बल और स्वरूप का यथार्थ वर्णन करता हूं । आप ध्यान देकर मुझसे यह सब सुनिए । ये विश्वामित्र पहले एक धर्मात्मा राजा थे । इन्होंने शत्रुओं के दमन पूर्वक दीर्घ काल तक राज्य किया था । ये धर्मज्ञ और विद्वान् होने के साथ ही प्रजा वर्ग के हित साधन में तत्पर रहते थे । प्राचीन काल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गए हैं । वे प्रजापति के पुत्र थे । कुश के बलवान पुत्र का नाम कुशनाभ हुआ । वह बड़ा ही धर्मात्मा था । कुशनाभ के पुत्र गाधि नाम से विख्यात थे । उन्हीं गाधि के महा तेजस्वी पुत्र ये महामुनि विश्वामित्र हैं । महा तेजस्वी राजा विश्वामित्र ने कई हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन तथा राज्य का शासन किया । एक समय की बात है महा तेजस्वी राजा विश्वामित्र सेना एकत्र करके एक अक्षौहिणी सेना के साथ पृथ्वी पर विचरने लगे । वे अनेकानेक नगरों, राष्ट्रों , नदियों बड़े बड़े पर्वतों और आश्रमों में क्रमशः विचरते हुए महर्षि वशिष्ठ के अश्रम पर आपहुंचे , जो नाना प्रकार के फूलों , लताओं और वृक्षों से शोभा पा रहा था । नाना प्रकार के मृग वहां सब ओर फैले हुए थे तथा सिद्ध और चारण उस आश्रम में निवास करते थे । देवता , दानव , गंधर्व और किन्नर उसकी शोभा बढ़ाते थे । शांत मृग वहां भरे रहते थे । बहुत से ब्राह्मणों , ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों के समुदाय उसका सेवन करते थे । तपस्या से सिद्ध हुए अग्नि के समान तेजस्वी महात्मा तथा ब्रह्मा के समान महामहिम महात्मा सदा उस आश्रम में भरे रहते थे । उनमें से कोई जल पीकर रहता था तो कोई हवा पीकर । कितने ही महात्मा फल मूल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहते थे । राग आदि दोषों को जीत कर मन और इन्द्रियों पर काबू रखने वाले बहुत से ऋषि जप होम में लगे रहते थे । वालखिल्य मुनि गण तथा अन्यान्य वै स्वानस महात्मा सब ओर से उस आश्रम की शोभा बढ़ाते थे । इन सब विशेषताओं के कारण महर्षि वशिष्ठ का वह आश्रम दूसरे ब्रह्मलोक के समान जान पड़ता था । विज यि वीरों में श्रेष्ठ महाबली विश्वामित्र ने उसका दर्शन किया । इसी के साथ इक्यवनमा सर्ग समाप्त हुआ । पाठक गण ! मुनि विश्वामित्र जी ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय थे वे राजा थे । महात्मा शतानंद जी भगवान राम को कहते हैं कि वे अपने कठोर तपस्या से ब्रह्मर्षि अर्थात् ब्राह्मण बन गए । क्या सुंदर बातें हैं । कोई भी निम्न वर्ण के व्यक्ति अपने मेहनत परिश्रम से उच्च वर्ण में जा सकता था । महर्षि वेद व्यास जी की मां भी मक्षोदरी थीं वे भी अपने पुरुषार्थ से चारों वेदों के महा विद्वान् ब्राह्मण बन गए । अनेकों इस प्रकार के उदाहरण हैं । परन्तु वर्तमान समय राष्ट्रपति अपने को दलित और प्रधान मंत्री अपने को वैश्य कहते हैं । संसद में बैठने वाला व्यक्ति भी आरक्षण के लोभ में पासवान और मोंची बना हुआ है । सरकार में भले ही कोई क्यों न बैठा हो वोट के लोभ में वह संपूर्ण समाज को अनर्गल जातिवाद के बखेरे में जबरदस्ती बांध कर रखना अपना परम धर्म समझता है । कोई शिक्षक, प्राचार्य और धर्माचार्य के पद पर बैठ कर भी आपनी जाति डोम , चमार , दुसाध , तेली यादव आदि पिछड़ी जाति लिख रहा है तो कोई निरक्षर भट्टाचार्य अपने आप को ब्राह्मण , भूमिहार , कैष्थ आदि अगड़ी जाति वाला बता रहा है । ऐसे सभी लोगों को विश्वामित्र का यह प्रसंग ठीक से समझने की आवश्यकता है । पढ़ाने पढ़ने , उत्तम कर्म यज्ञ करने कराने और दान लेने देने वाले सभी ब्राह्मण हैं और उन्हें अपने आपको ब्राह्मण वर्ण का ही लिखना कहना चाहिए । जो समाज और राष्ट की रक्षा कर रहे हैं वे सभी क्षत्रिय हैं । व्यापार करने वाले सभी वैश्य और किसी भी प्रकार से इन तीनों की सेवा व्यवस्था में लगे हैं वे सभी शूद्र हैं । यह चारों वर्ण ही इस समाज का रीढ़ है । इसमें सबके सब महान हैं और कोई भी इन गुणों को पाकर उस वर्ण वाले बन सकते हैं । ब्राह्मण सेवा करके शूद्र और शूद्र विद्या पढ़ पढ़ा कर ब्राह्मण बन सकता है । शूद्र का अर्थ नीच नहीं होता । किसीने महर्षि दयानन्द सरस्वती जी से पूछा था कि इन चारों में कौन बड़ा ? स्वामी जी ने उत्तर दिया था कि अपने अपने कामों में सब बड़ा । हमारे शरीर में पैर को शूद्र कहा है । यदि पैर को अर्थात् कमर के नीचे के भाग को शरीर से अलग कर दिया जाय तो पेट , हाथ और मुख का क्या महत्व रह जाएगा जिसे क्रमशः वैश्य क्षत्री और ब्राह्मण कहते हैं ? इसी प्रकार यदि पैर में कांटे लग जाय तो मुख ही आंसू भी बहाएगा और रोएगा भी जिसे ब्राह्मण का पद प्राप्त है । हाथ ही कांटा निकालेगा जिसे क्षत्रिय कहा जाता है । पैर हाथ मुख सबको रक्त आदि बनाकर पेट ही पहुंचाएगा जिसे वैश्य कहते हैं । यदि पैर न हो तो इन सब का भार वहन कौन करेगा ? जिस प्रकार इस शरीर में व्यवस्था है उसी प्रकार इस समाज में जिस दिन शूद्र वैश्य और क्षत्रिय के दुःख को देखकर ब्राह्मण रोएगा , ब्राह्मण वैश्य और शूद्रों के दुखों को दूर करने हेतु क्षत्रिय के हाथ बढ़ेंगे , ब्राह्मण क्षत्रिय और शूद्रों के अभाव को दूर करने हेतु जिस दिन वैश्य आगे बढ़ेंगे और तीनों के किसी भी कार्य को जिस दिन शूद्र नहीं बिगड़ने देंगे उसी दिन से यह समाज स्वर्ग बन जाएगा । आज वर्ण को ही जाति कहा जा रहा है जो बिल्कुल गलत है । जाति वह होता है जिसे देखकर ही पहचाना जाता है । जैसे जानवर और जानवर में बैल , घोड़ा , हाथी , चीता आदि । पक्षियों में कौआ , मैना , सुगा आदि । मनुष्य सभी एक जाति के ही हैं जिसे देखकर ही कोई पहचान जाता है कि यह मनुष्य है । इसमें स्त्री और पुरुष दो जाति हैं इसे भी देखकर ही पहचाना जाता है । वातावरण के कारण भी किसी का स्वरूप अलग अलग होता है परन्तु लंबे समय तक अन्य वातावरण में रहने से उसके रूप रंग बदल जाते हैं । जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त न बदले वह जाति है । बालक वृद्ध जवान भी इस कोटि में आते हैं । बालक को कोई वृद्ध और वृद्ध को कोई बालक या जवान नहीं कहता । इसी कारण यह भी एक प्रकार का जाति ही है । परन्तु कोई व्यक्ति जूता बनाने व बेचने हल चलाने का काम करता हो तो उसे ब्राह्मण , पण्डित जी , व शिक्षक नहीं कह सकते । इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति कहीं पढ़ाता - पढ़ता है तो उसे भी मोची , हालावाहा , व्यापारी आदि कहना अनुचित है । सरकार में बैठे और राजनीति करने वाले सभी लोगों को इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । तुच्छ स्वार्थ के लिए लोगों को जातिवाद रूपी जहर को जबरदस्ती पिलाया जा रहा है । जिस दिन से सरकार कर्म के आधार पर लोगों का वर्ण तथाकथित जाति के स्थान पर लिख ने हेतु लोगों को मजबूत कर देगा उसी दिन से समाज पुनः श्रेष्ठ बनने लगेगा । नाम के आगे कुछ लिखने से कोई अगड़ी जाति और कोई पिछड़ी जाति का हो जाता है यह भी समाज का बहुत बड़ा दोष है । प्राचीन जमाने में सृष्टि के आदि से महाभारत पर्यन्त और उसके बाद तक भी यह परिपाटी नहीं थी । वेद भाष्य करने वाले सायन , महिधर और उब्बट के नाम के आगे भी कोई टाईटिल नहीं है । राम , भरत , दसरथ , अज ब्रह्मा , विष्णु , महेश , कृष्ण, युधिष्ठिर एवं राजा विक्रमादित्य आदि सभी के नाम बिना किसी जाति सूचक शब्दों के ही हैं । आखिर हम सब को क्या हो गया है जो हमें पूर्व के कुछ भी अच्छाई और सच्चाई नहीं सूझ रहा जबकि गलत पाखंडों को हम सर आंखें चढ़ाए हुए हैं ? आशा है आप सभी इस विषय पर गंभीर चिंतन करेंगे और जातिवाद के जहर से समाज को बाहर निकालने का पूरा प्रयत्न करेंगे । एक स्व रचित कविता है - जो जातिवाद मिटाए ,और पाखण्ड दूर भगाए,ब्रह्म ज्ञान का भेद बताए वही अमर कहलाए ।। जो ---- विश्व गुरु कहलाता था , अब पाठ पढ़ाती है दुनियां। नाम जाति कुछ याद रहा ना, करते नाच नचनियां ।किसी समय में जो दुनियां को , वेद मंत्र सिखलाए ।वही आज अपने भाई को , घर से दूर भगाए ।। जो ---- जन्म प्रधान बना मानव अब , कर्म प्रधान कभी था । झा , ठाकुर , यादव ना कोई , अर्जुन कृष्ण सभी था ।चार वर्ण गुण कर्म से पाए , गीत सभी के गाए । ब्राह्मण, शूद्र , वैश्य, क्षत्रिय ,गुण जो पाए कहलाए ।। जो---- सुनो सुनो ऐ भारतवासी , मानव बन दिखलाओ । पासवान , साहू , मण्डल , विद्वान् को यह बतलाओ ।पढ़ लिखकर क्यों नीच कहा ए , श्रेष्ठ नाम अपनाएं ।कर्म करे जो वर्ण बताए , गीत सुशील सुनाए ।। जो जातिवाद मिटाए parichay samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriagerajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777aryasamaj marriage rules,leagal marriage services in aryasamaj mandir indore ,advantages arranging marriage with aryasamaj procedure ,aryasamaj mandir marriage rituals

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