“देशान्नति के लिए असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन आवश्यक है”

 ओ३म्

“देशान्नति के लिए असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन आवश्यक है”

==========

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में खण्डन-मण्डन की आवश्यकता एवं महत्व पर प्रकाश डाला है। हम यहां उनके विचारों को अपने शब्दों में कुछ अन्तर के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामी जी कहते हैं कि हमारे देश के संन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हम को खण्डन-मण्डन से क्या प्रयोजन? हम तो महात्मा हैं। ऐसी विचारों वाले लोग संसार में भाररूप हैं। जब ऐसे लोग देश में हैं तभी वेदमार्ग-विरोधी वाममार्ग आदि सम्प्रदायी, ईसाई, मुसलमान, जैनी आदि संख्या में बढ़ गये, अब भी बढ़ते जाते हैं और इन (वेदों को मानने वाले आर्य वा हिन्दुओं) का नाश होता जाता है तो भी इन की आंख नहीं खुलती। इनकी आंखे खुले कहां से? कैसे उन के मन में परोपकार बुद्धि और कर्तव्यकर्म करने में उत्साह होवे? यह संन्यासी लोग अपनी प्रतिष्ठा खाने पीने के सामने अन्य देश व समाज हित के कार्यों की अधिक कुछ नही समझते और संसार में बुरी बातों की निन्दा करने में बहुत डरते हैं। (लोकैषणा) लोक में प्रतिष्ठा, (वित्तैषणा) धन बढ़ाने में तत्पर होकर विषयभोग, (पुत्रैषणा) पुत्रवत् शिष्यों पर मोहित होना, इन तीन एषणाओं का त्याग करना संन्यासियों सहित देशवासियों के लिए उचित है। जब इनसे एषणा ही नहीं छूटी, पुनः इनका संन्यास क्योंकर सार्थक हो सकता है? संन्यासियों का मुख्य काम पक्षपातरहित वेदमार्गोपेदेश से जगत् के कल्याण करने में अहर्निश प्रवृत्त रहना है। जब यह अपने-अपने कर्तव्य एवं अधिकार के कर्मों को ही नहीं करते, पुनः इनका अपने आप को संन्यासी कहलवाना व्यर्थ है। जैसे गृहस्थी लोग व्यवहार और स्वार्थ में परिश्रम करते हैं, उनसे अधिक संन्यासी परोपकार करने में परिश्रम करें व इसमें तत्पर रहें तभी संन्यास एवं अन्य सब आश्रम उन्नति पर रहें। 


ऋषि ने कहा है कि देखो! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढ़ते जाते हैं, (ऋषियों की सन्तानें आर्य व हिन्दू) ईसाई व मुसलमान तक बनते व बनाये जाते हैं। तुमसे तनिक भी अपने घर की रक्षा और दूसरों का मिलाना नहीं बनता। बने तो तब जब तुम करना चाहो। जब तक संन्यासी वर्ग वर्तमान और भविष्यत् में उन्नतिशील नहीं होते तब तक आर्यावर्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती है। जब जनवृद्धि के साथ वेदादि सत्यशास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान एवं सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। 


ऋषि ने देशवासी आर्यजनों को सावधान करने हुए कहा है कि बहुत सी पाखण्ड की बातें तुममें सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु पुत्रादि देने की अपनी सिद्धियां बतलाता है तब उस के पास बहुत स्त्रियां जाती हैं और हाथ जोड़कर पुत्र मांगती हैं। और बाबा जी सब को पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उन में से जिस-जिस के पुत्र होता है वह-वह समझती हैं कि बाबा जी के वचन से ऐसा हुआ। जब उन से कोई पूछे कि सूअरी, कुत्ती, गधी और कुक्कुटी आदि के कच्चे बच्चे किस बाबा जी के वचन से होते हैं, तब वह स्त्रियां कुछ भी उत्तर न दे सकेंगी। जो कोई बाबा यह कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूं तो वह बाबा आप ही क्यों मर जाता है? इसका उत्तर वह नहीं दे सकते। 


पाखण्ड और पाखण्डियों से बचने के लिए मनुष्यों को वेदादि विद्या का पढ़ना एवं सत्संग आदि करना होता है जिस से कोई उसे ठगाई में न फंसा सके तथा वह औरों को भी ठगाई से बचा सके। मनुष्य में विद्या का होना उसके नेत्र के समान है। बिना विद्या व शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य और विद्वान होते हैं। जिन को कुसंग है वे दुष्ट पापी महामूर्ख हो कर बड़े दुःख पाते हैं। इसलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है वही वही पाखण्डों से बच सकता है। 


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तस्य निन्दां सततं करोति। 

यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य बिभर्ति गुंजाः।। 


यह किसी कवि का श्लोक है। जो जिसका गुण नहीं जानता वह उस की निन्दा करता है। जैसे जंगली भील गजमुक्ताओं को छोड़ गुंजा का हार पहिन लेता है वैसे ही जो पुरुष होता है वही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आन्नद में रहता है।  


ऋषि दयानन्द ने अपनी इन पंक्तियों में सभी प्रकार के यथा धार्मिक व अन्य ठगों से बचने, अविद्या को छोड़ने और देश की उन्नति में तत्पर होने के साथ वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा की प्रेरणा की है। उनके यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं कि जब तक संन्यासी वर्तमान और भविष्य में देश व धर्म की रक्षा के लिये उन्नतिशील नहीं होते तब तक आर्यावर्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। धर्म और संस्कृति की उन्नति वा वृद्धि का कारण वेदादि सत्यशास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान एवं सत्योपदेश आदि होते हैं। इन्हीं से देशोन्नति होती है। अतः आर्यों व हिन्दुओं को वेदादि शास्त्रों के अध्ययन वा स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य के पालन सहित सत्याचरण व सत्योपदेश आदि में विशेष ध्यान देना चाहिये। आजकल यह सभी बातें हमसे छूटी हुई हैं। इनका पालन करने से देश व समाज सहित वेदरक्ष कार्यों को लाभ होगा। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य   

samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriage 


rajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app     


aryasamaj marriage rules,leagal marriage services in aryasamaj mandir indore ,advantages arranging marriage with aryasamaj procedure ,aryasamaj mandir marriage rituals     

  


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।