“मनुष्य निर्माण में माता, पिता तथा आचार्यों की महत्वपूर्ण भूमिका”

 ओ३म्

“मनुष्य निर्माण में माता, पिता तथा आचार्यों की महत्वपूर्ण भूमिका”

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परमात्मा की व्यवस्था से संसार में मनुष्य का जन्म माता व पिता के द्वारा होता है। माता के विचारों व स्वभाव का सन्तान के निर्माण व जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि माता अशिक्षित व धर्म विषयक ज्ञान से हीन है, तो वह अपनी सन्तानों को सत्य धर्म वेद एवं वैदिक परम्पराओं की शिक्षा नहीं दे सकती। कम आयु की सन्तानें माता के सम्पर्क में अधिक रहती हैं। माता उन्हें जो शिक्षा देती व सिखाती है वही बच्चे सीखते हैं। उनकी भाषा वही होती है जो माता की होती है। यदि माता ज्ञानी हो तो वह अपने बच्चों को अपने ज्ञान को अपनी सन्तान की आयु व सामथ्र्य के अनुसार अवश्य देने का प्रयत्न करती हैं जिससे सन्तान के भावी जीवन में उन गुणों का विकास होकर सन्तान उन विचारों व शिक्षाओं के अनुरूप बनते हैं। इस कारण से संसार में स्त्री शिक्षा का अत्यन्त महत्व है। आजकल हमें स्कूलों में जो शिक्षा दी जाती है वह संस्कारों से रहित होती है। इस शिक्षा में माता, पिता व आचार्यों का आदर करना शायद ही कहीं सिखाया जाता हो। उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति की प्रमुख बातों व शिक्षाओं का ज्ञान भी नहीं कराया जाता। यहां तक की मनुष्य को उच्चतम शिक्षा प्राप्त हो जाने पर भी यह नहीं पता चलता की वस्तुतः वह कौन हैं, वह कहां से इस मनुष्य शरीर में आ गया है तथा उसकी मृत्यु अवश्य होगी और वह इस शरीर से निकल जायेगा। निकलने के बाद वह कहां जायेगा, इसकी चर्चा भी पूरी शिक्षा में कहीं नहीं मिलती। यह सृष्टि कब, किससे, कैसे, किस प्रयोजन के लिये, किसके उपभोग के लिये किसने बनाई है, इसका ज्ञान भी अधिकांश बड़े बड़े शिक्षा शास्त्रियों में भी देखने को नहीं मिलता। इसी कारण से स्कूली शिक्षा से मनुष्य प्रायः नास्तिक बनते हैं। माता-पिता को भी इन सब प्रश्नों का ज्ञान नहीं होता। वह भी पूर्ण नास्तिक न सही अपितु अर्ध नास्तिक तो होते ही हैं। शायद ही कोई माता-पिता अपनी सन्तानों को अपने साथ बैठा कर उन्हें ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप यथा दोनों चेतन, अनादि, नित्य, व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक संबंध वाले हैं, आदि विषयों का ज्ञान कराते हों।


 ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, जीवों का प्रेरक, जीवों के कर्मों का साक्षी तथा अशुभ करने पर दण्ड प्रदाता होता है। ईश्वर सभी जीवों को शुभ कर्म करने पर सुख व ज्ञान भी प्रदान करता है। यह ज्ञान माता व पिता और न ही आचार्य बच्चों को कराते हैं। इसी प्रकार उन्हें यह भी नहीं बताया जाता कि वह अनादि, नित्य, अजर, अमर, चेतन, एकदेशी, ससीम हैं और जन्म व मरण को प्राप्त होने वाले, कर्म के बन्धनों में बंधे हुए, पूर्व जन्म के किये हुए कर्मों का फल प्राप्त करने के लिये उनका जन्म होता है व हुआ। शुभ कर्मों से ही मनुष्य आदि प्राणियों को सुख मिलता तथा अशुभ व पाप कर्मों का फल ईश्वर जीवों को दुःख के रूप में देता है। ईश्वर सभी जीवों, महात्मा व महापुरुषों, आचार्यों व धर्माचार्यों को भी उनके शुभ व अशुभ कर्मों का यथोचित सुख व दुःख रूपी फल देता है। सृष्टि में किसी भी जीव वा मनुष्य के पाप क्षमा नहीं होते। सभी को अपने अपने कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से जन्म-जन्मान्तर लेकर भोगना ही पड़ता है। यदि इस प्रकार की वेद व वैदिक साहित्य की सत्य व यथार्थ शिक्षायें का ज्ञान सभी माता, पिता तथा आचार्य अपने बालकों को उचित आयु में करा दें तो सदाचारी व कर्तव्यपालक बच्चों का वर्तमान की तुलना में कहीं अधिक उचित निर्माण हो सकता है जिससे वह शुभ कर्मों के कर्ता तथा अशुभ कर्मों का त्याग करने वाले बनकर अपने परिवार सहित समाज व देश की उन्नति में सहायक हो सकते हैं। इस कारण स्कूली शिक्षा में भी ईश्वर, जीवात्मा विषयक यथार्थ व सत्य ज्ञान दिये जाने के साथ वेद, उपनिषद तथा दर्शनों की जीवन उपयोगी शिक्षाओं का दिया जाना आवश्यक एवं अनिवार्य प्रतीत होता है। यह शिक्षा क्यों नहीं दी जाती यह समझ से बाहर है। जिन लोगों ने इन विषयों को बच्चों की शिक्षा से दूर किया है उनके चिन्तन व विचारों वा धारण पर आश्चर्य होता है।


 सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय करते हुए इसके दूसरे समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी के सन्तानों की शिक्षा विषयक विचारों पर दृष्टि डालने से वह सत्य व यथार्थ प्रतीत होते हैं। यहां एक बार उन पर दृष्टि डाल लेते हैं। वह लिखते हैं कि वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है। वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् होता है जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है उतना किसी से नहीं पहुंचता। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम, उन का हित करना चाहती है उतना अन्य कोई नहीं करता। इसीलिए मातृमान् अर्थात् ‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान्’ वचनों के अनुसार वह माता धन्य है जो गर्भाधान से लेकर जब तक सन्तान की विद्या पूरी न हो तब तक सुशीलता (ईश्वरोपासना, सदाचरण, सच्चरित्रता आदि) का उपदेश करे।


 ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़ के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करायें वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करें कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुणयुक्त हों। आजकल माता-पिता इन बातों की जीवन व व्यवहार में उपेक्षा करते हैं जिससे इसका प्रभाव बच्चों के शरीर व जीवन पर पड़ता है। आवश्यकता है कि माता-पिता को सत्य शास्त्रों व ग्रन्थों की सत्य शिक्षाओं का पूरा पूरा ज्ञान होना चाहिये और उन्हें इन शिक्षाओं का पालन भी करना चाहिये जिससे माता-पिता तथा सन्तानों का जीवन व स्वास्थ्य सुरक्षित रहें और वह उत्तम गुणों, बल, बुद्धि व ज्ञान आदि से युक्त बने।


 इतिहास में हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर श्री कृष्ण जी का जीवन चरित्र पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि इनका निर्माण धार्मिक व आदर्श माता, पिता तथा आचार्यों के द्वारा हुआ था। इनको स्वस्थ व सुदृण शरीर प्राप्त थे। इनको किसी प्रकार का कोई व्यसन नहीं था। यह शुद्ध शाकाहारी तथा देशभक्त थे। इनकी ईश्वर व वेदभक्ति भी अद्वितीय एवं अनुकरणीय थी। ज्ञान व विज्ञान की दृष्टि से भी यह पूर्ण थे। इनके सभी निर्णय सज्जनों सहित समाज व देश के दूरगामी हित में हुआ करते थे। इन्होंने कभी कोई पापाचरण नहीं किया। जो कुछ भी किया वह धर्म व सज्जन पुरुषों की रक्षा तथा देश व समाज की उन्नति के लिये किया था। इनके जीवन में किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं थी। ऐसा ही जीवन हम सब मनुष्यों का होना चाहिये। इनके बाद इतिहास में हमें ऋषि दयानन्द का भी जीवन पढ़ने व सुनने को मिलता है। इनका कार्य भी अत्यन्त श्रेष्ठ व सत्य धर्म व देश व समाज की उन्नति के लिये था। इनके समय में लोग ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप को भूल चुके थे। देश देशान्तर में अविद्या छायी हुई थी। इन्होंने सत्य विद्या को प्राप्त होकर देश देशान्तर में छायी हुई अविद्या को दूर किया था। उनकी कृपा से आज पूरा विश्व ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, सृष्टि, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि से पूर्णतया परिचित है। इस पर भी आश्चर्य है कि आज का कोई भी समाज वेदों में विद्यमान मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक इन ज्ञान से युक्त बातों तथा जीवन के आवश्यक कर्तव्यों का पालन न तो करते ही हैं न इन्हें जानने के ही इच्छुक हैं। मनुष्यों के अपने अपने समुदायों के आचार्यगण भी वेद की महत्वपूर्ण एवं सर्वोपयोगी बातों से दूर हैं। इससे समाज में एकरसता व समरसता का अभाव विद्यमान है। ऐसी स्थिति में समाज में स्वस्थ, सत्य ज्ञानी व सत्याभिमानी मनुष्यों का निर्माण नहीं हो पा रहे हैं।


 वर्तमान समय में मनुष्यों का कोई भी व्यवहार ऐसा नहीं मिलता जहां कार्य करने वाले सभी लोग शत प्रतिशत सत्यनिष्ठ व ईमानदार हों। अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार एवं रिश्वत का खेल खेला जाता है। वर्तमान सरकार चाहकर भी देश से भ्रष्टाचार, असत्य आचारण, स्वार्थ व प्रमाद आदि की प्रवृत्तियों को दूर नहीं कर पा रही है। इसके मूल कारण में माता, पिता व आचार्यों के जीवन व शिक्षाओं में आदर्श शिक्षा का अभाव तथा उनके जीवन व व्यवहार हैं। अतः इस पर सर्व समाज के नेताओं को ध्यान देना चाहिये। उन्हें पता होना चाहिये कि जैसा उनका आचरण होगा उसी के अनुसार उन्हें जन्म-जन्मान्तर व लोक-परलेाक में सुख व दुःखों की प्राप्ति होगी। मनुष्य का अगला पुनर्जन्म भी उसे उसके इस जन्म के कर्मों के आधार पर मिलेगा। इस जन्म में यदि अच्छे कर्म नहीं किये तो भावी जीवन मनुष्य का नही मिलेगा। सुख भी नहीं मिलेंगे अथवा कम मिलेंगे। मृत्यु के आने पर आत्मा का नाश व अभाव तो होगा नहीं, इसका तो पुनर्जन्म अवश्य ही होना है। अतः इन बातों को विचार कर समाज में बच्चों को संस्कारों से युक्त वेद आदि की शिक्षा देनी चाहिये जिससे वह चरित्रवान एवं सत्य कर्मों के धारक एवं वाहक बनें। ऐसा करके ही भविष्य में हमें योग्य माता, पिता व आचार्य मिलेंगे जिनके बहुतायत से होने पर हमें संस्कारित युवापीढ़ी प्राप्त होगी जो असत्य का त्याग व सत्य का ग्रहण कर देश व समाज की उन्नति में सहायक होगी। ऐसा करना हमारे धर्माचार्यों व समाज शास्त्रियों का उद्देश्य होना चाहिये। हम सत्यार्थप्रकाश लिखने के लिये ऋषि दयानन्द का और इसका व्यापक प्रचार करने के लिये आर्यसमाज संगठन का धन्यवाद करते हैं। यदि ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश न लिखते तो हम वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि महान ग्रन्थों के ज्ञान से वंचित रहते। हमारे धर्म एवं संस्कृति की रक्षा न हो पाती। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य

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