“ईश्वर के उपकारों को जानकर उसकी उपासना करना मुख्य कर्तव्य है”

 ओ३म्

“ईश्वर के उपकारों को जानकर उसकी उपासना करना मुख्य कर्तव्य है”

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सभी मनुष्य सुख प्राप्ति की कामना करते हैं। इसके साथ ही जीवन में कभी दुःख प्राप्त न हों, इसके लिए भी सभी पुरुषार्थ कर धनसंचय आदि करते हैं। धनसंचय करने से मनुष्य सुखों के भौतिक साधनों को प्राप्त हो सकता है  परन्तु अनेक ऐसे दुःख होते हैं जिनका निवारण धन से भी नहीं होता। दुःखों का निवारण का वैदिक साधन अज्ञान की निवृत्ति तथा ज्ञान व विद्या की प्राप्ति करना होता है। विद्या के अन्तर्गत सभी प्रकार का सत्य ज्ञान आता है। इसमें मुख्य रूप से ईश्वर के सत्यस्वरुप व उसके गुण, कर्म व स्वभावों के ज्ञान सहित आत्मा का यथार्थस्वरूप जानना भी होता है। ईश्वर और आत्मा के यथार्थस्वरूप को जानकर मनुष्य को ईश्वर के सृष्टि निर्माण तथा इसके पालन का ज्ञान होता है। सभी वनस्पति एवं प्राणी जगत का कर्ता भी ईश्वर ही है। ईश्वर ने यह सृष्टि जीवात्माओं के सुख व कल्याण के लिए बनाई है। यदि वह सृष्टि को न बनाता तो जीवों को प्राप्त होने वाले सुख व मोक्ष आदि पदार्थों वा ऐश्वर्य की प्राप्ति न होती। ईश्वर यह सभी कार्य अपनी सनातन प्रजा जीवों के सुखों के लिए ही करता है। प्रलय अवस्था में सभी अनादि व नित्य जीवों का अस्तित्व बना रहता है परन्तु उन्हें सुख व दुःख की अनुभति जैसी जन्म व मृत्यु के बीच जीवित अवस्था में होती है, नहीं होती। यदि ईश्वर सृष्टि न बनाता तो सभी जीव सुखों से वंचित रहते और मोक्ष प्राप्ति कर ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द प्राप्त करने से भी वंचित रहते। ईश्वर ने अपनी अहैतुकी कृपा से जीवों पर उपकार करने के लिए ही इस विशाल ब्रह्माण्ड को बनाया है। वह सृष्टिकाल की अवधि 4.32 अरब वर्षों तक इस सृष्टि को धारण करते हुए सृष्टि का संचालन व जीवों के शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार उन्हें उन्नति व दण्ड अर्थात् सुख व दुःख की प्राप्ति करते हैं और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार नाना योनियों में जन्म देते व शरीरों का परिवर्तन करते हैं। वेदों का अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। ईश्वर को जान लेने पर हम अपनी आत्मा को भी जानने में समर्थ होते हैं। यह भी कह सकते हैं कि अपनी आत्मा को यथार्थरूप में जान लेने पर हम ईश्वर को जानने में भी समर्थ होते हैं। 


ईश्वर को जान लेने पर हमें ईश्वर के जीवों पर उपकारों का ज्ञान भी होता है। ईश्वर हमारे ऊपर यह उपकार अनादि काल से करता आ रहा है। अपने उपकारों के लिए वह हमसे कुछ लेता नहीं व हमसे किसी प्रकार की अपेक्षा भी नहीं करता है। हमें केवल मनुष्य योनि में जन्म होने पर उसको जानने का अवसर मिलता है और उसके उपकारों को जानकर हम उसके प्रति कृतज्ञता का अनुभव करते हैं। इस कृतज्ञता के फलस्वरूप हमारा मन व आत्मा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना में प्रवृत्त होता है। वेदाध्ययन करते हुए हमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। वेदाध्ययन करने से ही मनुष्य एक सच्चा आस्तिक एवं ईश्वर का उपासक बन जाता है। मनुष्य को यह ज्ञान होता है कि ईश्वर सब जीवों वा मनुष्यों का उपास्य है और सब जीव उसके उपासक हैं। उपासना करने से मनुष्य कृतघ्नता के दोष से मुक्त होता है। उपासना में आत्मा का परमात्मा से मेल होने से आत्मा के सभी दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःख दूर होते हैं और आत्मा का कल्याण होकर उसे सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है। आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता है। उसकी अविद्या व मिथ्या ज्ञान दूर होता है। वह असत्य को छोड़ता तथा सत्य का ग्रहण करता है। ईश्वर के ज्ञान व उपासना से रहित जीवन पशु के समान होता है। उसे सत्य व असत्य का बोध नहीं होता जिसके कारण उसकी आत्मा की उन्नति न होने से जन्म जन्मान्तरों में दुःखों की प्राप्ति होती है। इसी कारण से हमारे पूर्वज सृष्टि के आदि काल से वेदाध्ययन कर ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान को प्राप्त होकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते आये हैं और इसी से उनका सर्वविध कल्याण व सुखों की प्राप्ति हुआ करती थी। महाभारत के समय तक संसार में ज्ञान व विद्या का प्रसार था जिससे लोग वेद विहित धर्म में प्रवृत्त होकर सुख व आत्मिक उन्नति का लाभ प्राप्त करते थे और अपने भविष्य व परजन्म को भी सुखद व कल्याणप्रद बनाते थे। 


ईश्वर की स्तुति सगुण व निर्गुण स्तुति के भेद से दो प्रकार की होती है। इसका प्रकाश करते हुए ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में कहते हैं कि वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनािद प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह समुण स्तुति अर्थात् जिस-जिस गुण से सहित परमेश्वर की स्तुति करना वह समुण, (ईश्वर अकाय है) अर्थात् वह ईश्वर कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिस में क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिस-जिस राग, द्वेषादि गुणों से पृथक् मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है, वह निर्गुण स्तुति है। इस से फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो आप (मनुष्य वा उपासक) भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वपर के गुण-कीर्तन करता जाता और अपने चरित्र को नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है। इस प्रकार ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति सभी उपासकों को प्रतिदिन प्रातः व सायं करनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य वा जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव कुछ कुछ परमात्मा के जैसे होने आरम्भ हो जाते हैं और इसमें निरन्तर वृद्धि होती है। 


मनुष्य को ईश्वर से प्रार्थना भी नित्य प्रति करनी चाहिये। हमारी प्रार्थना इस प्रकार से होनी चाहिये। हे अग्ने प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं, उसी बुद्धि से युक्त आप हम को इसी वर्तमान समय में बुद्धिमान कीजिये। हे ईश्वर आप प्रकाशस्वरूप हैं। कृपा कर मुझ में भी प्रकाश स्थापन कीजिये। ईश्वर अनन्त पराक्रम से युक्त हैं, इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। ईश्वर आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं मुझ को भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और स्वअपराधियों का सहन करने वाले हैं, कृपा कर के मुझ को भी वैसा ही कीजिये। हे दयानिधे परमेश्वर! आप की कृपा से जो मेरा मन जागते में दूर-दूर जाता, दिव्यगुणयुक्त रहता है, और वही सोते हुए मेरा मन सुषुप्ति को प्राप्त होता वा स्वप्न में दूर-दूर जाने के समान व्यवहार करता है। सब प्रकाशकों का प्रकाशक, एक वह मेरा मन शिव-संकल्प अर्थात् अपने और दूसरे प्राणियों के अर्थ कल्याण का संकल्प करनेहारा होवे। किसी की हानि करने की इ्रच्छायुक्त कभी न होवे। प्रार्थना विषयक सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत यह प्रार्थना प्रकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका सभी पाठकों को अध्ययन व पाठ करना चाहिये। इससे मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करना जान सकेंगे। समस्त वेदों व वेदभाष्यों का अध्ययन कर भी हम इसी प्रकार की उत्तमोत्तम प्रार्थनाओं को करके ईश्वर से अपने लिये उपासना विषयक ऐश्वर्यों को प्राप्त कर सकते हैं। 


ऋषि दयानन्द जी के अनुसार मनुष्यों को ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उस को स्वीकार करता है कि जैसे हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जायें इत्यादि, क्योंकि जब दोनों शत्रु एक दूसरे के नाश के लिए प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों का नाश कर दे? जो कोई कहे कि जिस का प्रेम अधिक हो उस की प्रार्थना सफल हो जावे। तब हम कह सकते हैं कि जिस का प्रेम न्यून हो उसके शत्रु का भी न्यून नाश होना चाहिये। ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा, हे परमेश्वर! आप हम को रोटी बना कर खिलाइये, मकान में झाड़ू लगाइये, वस्त्र धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कीजिये। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते हैं वे महामूर्ख हैं क्योंकि जो परमेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है उस को जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा।  


ईश्वर की उपासना पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द जी ने कहा है कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, आत्मस्थ होकर परमात्मा में अपने चित्त को जिस ने लगाया है उस को जो परमात्मा के योग का सुख होता है वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण व अनुभव करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। ऋषि पतंजलि के अष्टांग योग विधि से परमात्मा के समीपस्थ होने और उस ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिए जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहिए। जब मनुष्य उपासना व योग के साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी योग विधि से ईश्वर का ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। ईश्वर के सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहलाती है। 


उपासना का क्या फल होता है यह भी ऋषि के शब्दों में लिख कर लेख को विराम देते हैं। ऋषि कहते हैं कि जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से उपासक व आत्मा के सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस से उपासना का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी उपासक व उसका आत्मा न घबरायेगा और सब दुःखों को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिए दे रक्खे हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है। हम समझते हैं कि हमने इस लेख में ऋषि दयानन्द जी के वैदिक विचारों के अनुरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। इससे पाठक कुछ लाभान्वित होंगे। उपासना वह पदार्थ है कि जिसको प्राप्त होकर मनुष्य अमृत सुख, आनन्द व मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को उपासना का नित्य प्रति अवश्यमेव सेवन करना चाहिये। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य 

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