“हमें दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ कर अपने घर की वायु को सुगन्धित करना चाहिये”

 “हमें दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ कर अपने घर की वायु को सुगन्धित करना चाहिये”

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वैदिक धर्म एवं संस्कृति में यज्ञ का प्रमुख स्थान है। यज्ञ किसी भी पवित्र व श्रेष्ठ कार्य करने को कहा जाता है। मनुष्य जो शुभ कर्म करता है वह सब भी यज्ञीय कार्य होते हैं। माता पिता व आचार्यों सहित अपने परिवार की सेवा व पालन पोषण करना मनुष्य का कर्तव्य होता है। यह कार्य भी पितृयज्ञ के अन्तर्गत समाहित होते हैं और इस कर्तव्य का पालन भी यज्ञ ही माना जाता है। सन्ध्या, पितृ, अतिथि व बलिवैश्वदेव यज्ञ भी मनुष्य के पांच प्रमुख कर्तव्यों के अन्तर्गत आते हैं और इन सबको भी यज्ञ कह कर सम्बोधित किया जाता है। इन पांच यज्ञों में एक महत्वपूर्ण यज्ञ देवयज्ञ अग्निहोत्र होता है। देव दिव्य गुणों से युक्त चेतन मनुष्य आदि प्राणियों, विद्वानों, आचार्यों व जड़ पदार्थों को कहते हैं। इन सभी देवों के प्रति अपने कर्तव्यों को जानना व उनको पूरा करना देवयज्ञ कहलाता है। जड़ देवों में पृथिवी तथा वायु का महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य श्वास लेता व छोड़ता है। श्वास में वह शुद्ध वायु का ग्रहण तथा दूषित वायु का त्याग करता है। यदि मनुष्य को वायु न मिले तो उसका कुछ मिनट भी जीवित रहना सम्भव नहीं होता। इस दृष्टि से मनुष्य के जीवन में वायु का महत्व सर्वाधिक होता है। वायु जितना शुद्ध व पवित्र होता है उतना ही मनुष्य का जीवन स्वस्थ रहता तथा वह सुखों की अनुभूति करता है।


हमारा यह प्राण वायु अनेक कारणों से निरन्तर दूषित होता रहता है। हम जो श्वास छोड़ते हैं उसमें हम नासिका से कार्बन डाइआक्साइड छोड़ते जबकि हमें श्वास के लिए आक्सीजन वायु की आवश्यकता होती है। शुद्ध आक्सीजन से हमें लाभ होता है। अतः हमें वायु में आक्सीजन की मात्रा बढ़ाने व वायु से दुर्गन्ध दूर करने के उपाय करने चाहिये। ऐसा करने से हम स्वस्थ व निरोग रह सकते हैं और अपने अन्य सभी कर्तव्यों का पालन भली प्रकार से कर सकते हैं। हमारा प्राण वायु हमारे श्वास छोड़ने सहित अनेक अन्य कारणों से भी दूषित होता है। घर में अग्नि जलाकर भोजन पकाया जाता है। इस अग्नि के सम्पर्क में आकर भी वायु का आक्सीजन कार्बन डाइ-आक्साईड में बदल जाता है। वस्त्र धोने, मल मूत्र के त्याग व इसके सम्पर्क में आने से भी वायु प्रदूषित व विकृत होता है। उद्योगों एवं वाहनों से भी वायु प्रदुषण बड़ी मात्रा में होता है। इन सब प्रकार से जो वायु प्रदूषित होता है उसको शुद्ध, पवित्र व सुगन्धित करने का वैदिक साधन देवयज्ञ अग्निहोत्र करना होता है जिसमें हम सुगन्धित गोघृत, ओषधियों तथा गुणकारी वनस्पतियों सहित मिष्ट व पुष्टिकारक पदार्थों की आहुतियां देते हैं। अग्नि में डाली गई हमारी आहुतियां सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश मैं फैल जाती है। अग्निहोत्र यज्ञ की सुगन्धित वायु के सम्पर्क में जो वायु आती है उसकी दुर्गन्ध तथा अपवित्रता का नाश यज्ञ की वायु करती है। घरों में यज्ञ करने से गृहस्थ वा घर का वायु अग्नि के सम्पर्क से हल्का होकर बाहर निकल जाता है और बाहर का शुद्ध वायु घर में प्रविष्ट होता है। इससे हमारी श्वास प्रक्रिया भलीप्रकार चलती है और हम अनेक विकारों व रोगों से बच जाते हैं। बाहर का वायु भी यज्ञ से शुद्ध होती है जिससे उस वायु में श्वास आदि लेने वाले अनेक प्राणी लाभान्वित होते हैं और इस शुभ कर्म का फल परमात्मा यज्ञकर्ता को जन्म व जन्मान्तर में सुख व जीवन की उन्नति के रूप में देते हैं। अतः यज्ञ का करना प्रत्येक मनुष्य का प्रमुख एवं दैनिक कर्तव्य सिद्ध होता है। इसी कारण से वेदों में भी नित्य प्रति यज्ञ करने की आज्ञा है और प्राचीन काल से हमारे ऋषियों ने वेदाज्ञा को शिरोधार्य कर देवयज्ञ प्रतिदिन प्रातः व सायं करने का विधान किया था जिससे सभी लोग प्रदुषण मुक्त वातावरण मे जीवन व्यक्ति करते हुए सुखों का अनुभव करते थे, स्वस्थ रहते थे एवं दीघार्यु हुआ करते थे। 


हम जो दैनिक यज्ञ करते हैं वह विधि विधानपूर्वक होता है। यज्ञ में आचमन, इन्द्रिय स्पर्श, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा यज्ञों में नाना प्रकार की आहुतियों का विनियोग व प्रावधान होता है। इन सब क्रियाओं के भी अपने अपने लाभ होते हैं। आचमन करते हुए हम मन्त्र का उच्चारण कर कहते हैं कि परमात्मा जगत का आधार है। वह जगत का पालक तथा धारण करने वाला है। वह परमात्मा जल के आचमन से हमारा कल्याण करें अर्थात् जल के सेवन से हम स्वस्थ एवं सुखी रहें। आचमन के मन्त्र में यह भी प्रार्थना की जाती है कि जगदीश्वर हमें सत्यनिष्ठा, सुयश, श्री, धनसम्पत्ति एवं ऐश्वर्य आदि प्रदान करे। जल से इन्द्रिय स्पर्श करते हुए हम परमात्मा से इन्द्रियों के सदुपयोग की प्रार्थना करने के साथ उनके सुदृण, बलवान एवं उनमें विकृतियां न आने की प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का भाव होता है कि ईश्वर की कृपा से हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ, सबल एवं संयमी हों और सम्पूर्ण शरीर का भरपूर विकास व उन्नति हो। इसके बाद स्तुति प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों से ईश्वर की उपासना की जाती है। इन मन्त्रों में जो स्तुति व प्रार्थनायें हम करते हैं उसका प्रभाव हमारी आत्मा व मन पर पड़ता है। उसके अनुरूप ही हमारा जीवन निर्माण होता है। इसी प्रकार से यज्ञ में जो भी क्रियायें व आहुतियां दी जाती हैं उन सबका प्रभाव व लाभ हमारे जीवन पर होता है। यज्ञ से वायु की शुद्धि, रोग निविृत्ति, स्वास्थ्य लाभ सहित स्तुति व प्रार्थना से होने वाले लाभ यज्ञ करने वाले मनुष्य को प्राप्त होते हैं। उपासना से ईश्वर से मेल व मित्रता सहित आत्मबल व दुःख सहन करने की शक्ति का विकास होता है। अतः यज्ञ करना मनुष्य जीवन में लाभकारी होता है। इससे मनुष्य दुःखों व विघ्नों से दूर होकर सुख व शान्ति का लाभ करते हैं। 


मनुष्य जीवन में दुःख व सुख प्रायः आते व जाते रहते हैं। हम दुःखों से बचना तथा सुखों में वृद्धि करना चाहते हैं। ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना के मन्त्र ‘विश्वानि देव’ में भी हम दुरितों को दूर करने तथा भद्र की प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। सन्ध्या व यज्ञ करने से हमारे दुःखों की निवृत्ति होकर सुख व कल्याण प्राप्ति का लाभ होता है। यज्ञ करने से मनुष्य को निजी लाभों सहित समाज के अन्य सभी मनुष्यों व प्राणियों को भी वायु से दुर्गन्ध व विकारों की निवृत्ति का लाभ होकर सुख प्राप्त होता है। इससे परमात्मा की ओर से यज्ञकर्ता को ईश्वर को कर्म फल विधान के अनुसार विशेष सुख प्राप्त होता है। इसी कारण से हमारे ऋषियों ने कहा है कि ‘स्वर्गकामो यजेत’ अर्थात् सुख की इच्छा रखने वाले सभी मनुष्यों को यज्ञ करना चाहिये। हम जीवन को जितना अधिक यज्ञीय बनायेंगे उतना ही हमें सुख लाभ होगा। अतः हमें स्वयं यज्ञ करना चाहिये और दूसरों को भी यज्ञ से होने वाले सभी लाभों के विषय में बताना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने महती कृपा कर हमें वैदिक धर्म एवं संस्कृति के यथार्थ, सत्य व वास्तविक स्वरूप से परिचय कराया। आज उन्हीं की प्रेरणा एवं प्रचार के कारण से हम वैदिक धर्म को अपनाने व उसका पालन करने में समर्थ हुए हैं। वैदिक सन्ध्या-यज्ञ व देवयज्ञ अग्निहोत्र वैदिक धर्म के ही अंगभूत कार्य हैं। हमें भी अपने ऋषियों व विद्वानों के समान वैदिक धर्म की श्रेष्ठता व महानता का प्रचार करते हुए अपने जीवन को धन्य करना चाहिये। हम यज्ञ करें, स्वस्थ व निरोग रहें, बल व ज्ञान से सम्पन्न हों, अन्धविश्वास व पाखण्डों से बचें, समाज व देश का कल्याण करें, विश्व में सुख व शान्ति के विस्तार में एक इकाई बनें, इसी भावना के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य 

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