“वेद एवं वैदिक धर्म हमें क्यों प्रिय हैं?”

 ओ३म्

“वेद एवं वैदिक धर्म हमें क्यों प्रिय हैं?”

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मनुष्य को जिन मनुष्यों, पदार्थों व वस्तुओं से लाभ होता है वह उसको प्रिय होती हैं? मनुष्य भौतिक वस्तुओं में नाना प्रकार के भोजनों, अपने घर, सुविधा की वस्तुओं सहित अपने परिवार जनों को प्रेम किया करते हैं व वह उन्हें प्रिय होते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक व उचित ही है। इनके अतिरिक्त ऐसी और क्या वस्तुयें हैं जो इनसे भी अधिक किसी को प्रिय हो सकती है? हमें विचार करने पर वह वस्तु ‘सत्य धर्म’ व उसकी मान्यतायें व सिद्धान्त लगते हैं। जिस पुस्तक में मनुष्य जीवन के लिए सभी आवश्यक मान्यताओं का सत्य व हितकारी वर्णन हों और जिनसे हमारा निश्चय ही कल्याण होता है वह भी हमें प्रिय व प्रियतम ही होगी। हम जानते हैं कि हमारे शरीर की शुद्धि जल, मन की शुद्धि सत्य, आत्मा की शुद्धि विद्या व तप से तथा हमारी बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। अतः बुद्धि की शुद्धि से सब शुद्धियों की प्राप्ति सरल व सम्भव होती है। अतः मनुष्य को अपनी बुद्धि को शुद्ध करना अत्यन्त आवश्यक होता है। बुद्धि क्योंकि ज्ञान से शुद्ध होती है इसलिये हमें सत्य उपदेशक तथा एक ऐसा ग्रन्थ जिसमें पूर्ण सत्य व सभी आवश्यक बातों व सिद्धान्तों का सरलता से वर्णन हो, प्राप्त व उपलब्ध करना आवश्यक होता है। इस आवश्यकता की पूर्ति संसार में उपलब्ध मनुष्य रचित ग्रन्थों से उस मात्रा में नहीं होती जितनी कि ईश्वर प्रदत्त ज्ञान ‘‘चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद” से होती है।


चार वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में चार ऋषि कोटि की दिव्य आत्माओं वाले पुरुषों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। यह चार ऋषि ही संसार के सब मनुष्यों के आदि पुरुष थे। यही सब मतों व सम्प्रदायों के आदि पूर्वज भी सिद्ध होते हैं। इन चार ऋषियों ने ब्रह्माजी व अन्य मनुष्यों को वेद पढ़ाकर उनका देश देशान्तर में प्रचार किया व कराया था। आज भी वेद प्रचार व अध्ययन व अध्यापन की परम्परा अपने शुद्ध रूप में उपलब्ध होती है। इसका अधिकांश श्रेय ऋषि दयानन्द सरस्वती जी के प्रयत्नों को है जो उन्होंने लुप्त हुए वेदज्ञान को अपूर्व पुरुषार्थ से प्राप्त कर सन् 1863 व उसके बाद उनका प्रचार कर वेद प्रचार परम्परा पुनः प्रवृत्त की थी। उनकी कृपा व पुरुषार्थ से आज हमें चारों वेद मूल व शुद्ध रूप में तथा अपने यथार्थ व शुद्ध वेदार्थ सहित सुलभ हैं। ऋषि दयानन्द की अपने समय में घोषणा थी कि वेद ईश्वर से उत्पन्न सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं तथा वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों व आर्य श्रेणी के श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म है। ऋषि दयानन्द जी ने ही वेदों के प्रचार के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद भाष्य आंशिक तथा यजुर्वेद भाष्य सम्पूर्ण सहित हमें आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि अनेकानेक ग्रन्थ प्रदान किये हैं। ऋषि दयानन्द के अनुगामी आर्य विद्वानों ने वेदानुकूल वेदों के व्याख्यानरूप 11 उपनिषद्, 6 दर्शनों सहित इतर वैदिक सहित्य के हिन्दी में अनुवाद व टीकायें भी प्रस्तुत की हैं जिनका अध्ययन कर मनुष्य वेदों को यथार्थस्वरूप में जानकर उनकी शिक्षाओं व सिद्धान्तों से लाभान्वित होते हैं।


वेदों में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति का यथार्थ ज्ञान है। वेदों में ईश्वर व जीवात्मा का जैसा सत्य व यथार्थ ज्ञान उपलब्ध होता है वैसा किसी मत-मतान्तर के ग्रन्थ से उपलब्ध नहीं होता। मत-मतान्तरों की यह स्थिति वेदों से दूरी व अज्ञानता के कारण है। मध्यकाल में जब मत-मतान्तरों का प्रचलन हुआ, उन दिनों भारत तथा इतर देशों में वेद व वेदार्थ सुलभ नहीं थे। अज्ञान सर्वत्र प्रसारित था। इस कारण से मत-मतान्तरों में अविद्या व इससे युक्त मान्यताओं का समावेश मिलता है जिसे ऋषि दयानन्द ने विष से युक्त अन्न व भोजन के समान बताया है। वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप मिलता है वह संक्षेप में ऋषि दयानन्द के शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना (ध्यान, वेदों का स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, गुण कीर्तन आदि द्वारा) करनी योग्य है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर के 100 से अधिक गुण, कर्म, स्वभाव व सम्बन्ध वाचक नामों का उल्लेख किया है। उनके वेदभाष्य व आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों में भी ईश्वर के गुणों से सम्बन्धित अनेकानेक नामों का वर्णन हुआ है। ऐसा वर्णन विश्व साहित्य में कहीं नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द ने जो लिखा है वह सब सत्य एवं प्रामाणित है। ईश्वर ही संसार में सब मनुष्यों के लिए यथार्थस्वरूप में जानने व प्राप्त करने योग्य है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना तथा वेदों के स्वाध्याय आदि के द्वारा ही वह जाना व प्राप्त किया जाता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि, आत्मबल की प्राप्ति, आत्मा व शरीर की उन्नति, सामाजिक उन्नति, ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति सहित उसका साक्षात्कार, परजन्म में मनुष्य योनि व उत्तम परिवेश में जन्म, मोक्ष व आनन्द की प्राप्ति सहित आवागमन के दुःख से मुक्ति मिलती है। यह लाभ वेदों के अध्ययन सहित वेद की शिक्षा के अनुसार आचरण करने से प्राप्त होते हैं। इतर पद्धतियों से यह लाभ वस्तुतः प्राप्त नहीं होते। अतः वेद एवं वैदिक धर्म हमें इन सब आवश्यक बातों का ज्ञान कराने व इनको प्राप्त करने की प्रेरणा करने से हमें सबसे अधिक प्रिय हैं।


वेदाध्ययन से हमें अपनी आत्मा का भी यथार्थ बोध होता है। हमारी आत्मा भी अनादि, नित्य, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा व अन्त-नाश-अभाव रहित है। आत्मा का क्रमशः जन्म, मरण व पुनर्जन्म होता रहता है। यह जन्म व पुनर्जन्म हमारे मनुष्य जन्म के कर्मों के अनुसार होता है। मनुष्य योनि कर्म भोगने व ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने की दृष्टि से उभय योनि है। अन्य योनियां केवल कर्म फल का भोग करने वाली योनियां हैं। हमारी आत्मा वा जीव सत्य अर्थात् सत्तावान पदार्थ है। जीवात्मा चेतन पदार्थ है। आत्मा एकदेशी, ससीम, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने व पुजर्नन्म में मनुष्यादि जन्म प्राप्त करने में परतन्त्र है। सभी मनुष्य योनि में उत्तम परिवेश में जहां सुख अधिक हो और दुःख न हों या अत्यन्त अल्प हों, वहां जन्म लेना चाहते हैं परन्तु ऐसा होना हमारे कर्मों पर निर्भर करता है। श्रेष्ठ कर्मों से श्रेष्ठ योनि व परिवेश में जन्म प्राप्त होता है अन्यथा हमें मनुष्येतर भोग योनियों में भी जन्म लेना पड़ता है। ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव-यज्ञ सहित परोपकार तथा दान आदि के कार्यों से मनुष्य की आत्मा श्रेष्ठ कर्मों से युक्त होकर उच्च गति व मोक्षगामी बनती है। यह सत्य ज्ञान भी हमें वेद व वैदिक धर्म से प्राप्त होने के कारण वेद और वैदिक धर्म हमें संसार की अन्य वस्तुओं में सबसे प्रिय हैं।


वेद पुनर्जन्म को मानते हैं जो कि तर्क एवं युक्ति सिद्ध सिद्धान्त है। वेद गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था के पोषक है। जन्मना जातिवाद का पोषण वेदों से नहीं होता। यह कृत्रिम व हानिकारक व्यवस्था है। इससे मनुष्यों के साथ न्याय नहीं अपितु पक्षपात होता है जिससे यह त्याज्य है। वेद, वैदिक धर्म और आर्यसमाज इस जन्मना जाति व्यवस्था के पोषक नहीं है। वैदिक धर्म में मनुष्य के सोलह संस्कार होते हैं। अन्य मत-मतान्तरों में इसके अनुरूप सभी संस्कार नहीं होते। वैदिक धर्म में किसी भी पशु व पक्षी आदि के मांस खाने का सर्वथा निषेध है। हम व हमारे सभी परिवार जन इस सिद्धान्त का मन, वचन व कर्म से पालन करते हैं। वेद गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार युवावस्था में विवाह का विधान करते हैं तथा गृहस्थ जीवन में गृहस्थ के नियमों का पालन करते हुए जीवनयापन का सन्देश देते हैं। वैदिक धर्म में सबको वेदोपदेश ग्रहण करने, वदेाध्ययन करने, दूसरों को कराने सहित सबको मिलकर शुद्धता के नियमों का पालन करते हुए एक साथ बैठ कर भोजन करने का विधान है। इसी विधान के अनुसार ऋषि दयानन्द ने एक नाई, जो जन्म की जाति से दलित था, उसके द्वारा दी गई सूखी रोटी खाकर सन्देश दिया था कि मनुष्य को शुद्धता का ध्यान रखकर व पवित्र कमाई से प्राप्त भोजन का सेवन करना चाहिये व अपने सब भाई व बहिनों के हाथ का भोजन करना चाहिये। आज के समय में यह सफल हुआ दीखता है। ऐसे अनेकानेक कारणों से हमें ईश्वरीय ज्ञान वेद, वैदिकधर्म तथा वैदिक धर्म के प्रचारक आर्यसमाज विशेष रूप से प्रिय हैं। हमें गर्व है कि हम ईश्वर के सत्यस्वरूप में विश्वास रखने वाले वैदिक धर्म के अनुयायी हैं। हम पूरे विश्व को अपना परिवार मानते हैं और सबके कल्याण की भावना रखते हैं। सभी जीव जो मनुष्य सहित पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि नाना सहस्रों योनियों में विद्यमान है वह सब परमात्मा की सन्तानें होने से हमारे बन्धु व भ्रातृ तुल्य हैं। इन कारणों से हमें वैदिक धर्म सबसे अधिक प्रिय है और हम चाहते हैं कि संसार के सभी लोग वैदिक धर्म को अपनायें एवं विश्व में सुख व शान्ति की वृद्धि करें। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य

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