शंका- पश्चिमी लेखों का मानना है कि चार वेदों में कोई क्रम नहीं हैं? चार वेदों विभिन्न विभिन्न काल में प्रकाशित हुए।

 शंका- पश्चिमी लेखों का मानना है कि चार वेदों में कोई क्रम नहीं हैं? चार वेदों विभिन्न विभिन्न काल में प्रकाशित हुए।


समाधान- यह वेदों पर आक्षेप करने वाले की बुद्धिहीनता और स्वाध्याय की कमी को दर्शाता हैं। वेद चार हैं। उनके प्रधान विषय और सन्देश को समझने से सरलता से यह समझा जा सकता है कि चरों वेद क्रम के अनुसार हैं।


ऋग्वेद में विज्ञान की प्रधानता है। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त पदार्थों का उसमें निरूपण है। ऋग्वेद अग्नि से आरम्भ होकर नाना विज्ञानों का बोध कराते हुए संज्ञानसूक्त पर समाप्त होता है। अर्थात यथार्थ ज्ञान का फल मनुष्यों के विचार, उच्चार तथा व्यवहार की एकता होनी चाहिए। सभी की एक मति एक उक्ति एवं एक गति होनी चाहिए।


यजुर्वेद कर्मवेद है। ज्ञान के पश्चात कर्म मनुष्य का प्रयोजन है। यजुर्वेद के पहले मंत्र में देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे अर्थात ऐसा यत्न करो जिस से भगवान् तुम मनुष्यों को श्रेष्ठतम कर्म में प्रवृत रखे की प्रेरणा है। अंत के अध्याय में कुर्वन्नेवेह कर्माणि मंत्र में सन्देश दिया गया है कि मनुष्य इस संसार में समस्त आयु कर्म करता हुआ ही जीने की आशा करे। इसी अध्याय के 15वे मंत्र में पुन: कहा कि कृतं स्मर। किल्बे स्मर अर्थात हे मनुष्य अपने किये कर्मों को स्मरण कर। इस प्रकार से यजुर्वेद कर्म प्रधान वेद हैं।


सामवेद में साम का अर्थ है सांत्वना। कर्म से श्रान्त उद्भ्रांत मनुष्य को शांति चाहिए। उसके लिए सामवेद है। सामवेद के प्रथम मंत्र में भगवान् काआह्वान है। उपासना की विभीन भूमिकाओं का वर्णन करते हुए अंत में सामवेद युद्धसक्त पर समाप्त होता है। अंत में युद्धसक्त एक विशेष सन्देश दे रहा है। योगी लोग योग की चरम सीमा तक पहुंचने के लिए संसार में प्रसृत सभी आंतरिक एवं बाहर के पापों से युद्ध करता हैं। धर्म पथ के पथिक को अधर्म से युद्ध करना अनिवार्य है। यही युद्ध सूक्त का सन्देश हैं।


अथर्ववेद में शांति प्राप्त करने के पश्चात सूक्षम विषयों की ओर प्रवृति होती है। ताकि मनुष्य के संशयों का निवारण हो जाये। अथर्ववेद के प्रथम वर्ग में भगवान् से प्रार्थना है कि हमारा श्रुत हमारे पास बना रहे- मय्येवास्तु मयि श्रुतं। विस्मरण, अपस्मरण के कारण वह नष्ट न होने पावे। अथर्ववेद का अंतिम मंत्र पनाय्यं तदश्विना कृतं वां वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः का सन्देश है कि हे अश्विनों! तुम्हारी यह रचना प्रशंसनीय है किन्तु द्यौ, अंतरिक्ष , पृथ्वी पर सब प्रकार की सुख वृष्टि करने वाला परमेश्वर भी प्रशंसनीय है। असंख्य प्रशंसाए हैं और जो वाग्यज्ञ, ज्ञानयज्ञ में जो ज्ञान है, उन सब का पान करने के लिए तुम सब उन्हें प्राप्त करो। इस प्रकार से संक्षेप में अथर्ववेद का पहला मन्त्र ज्ञान के बने रहने का सन्देश देता है ताकि उसके अनुसार व्यवहार मनुष्य करें। अंतिम मंत्र यह कह रहा है कि यह सृष्टि अश्विनों अर्थात जड़ चेतन की क्रिया हैं। जिसका करता सबका सुखविधाता है। ज्ञान की जिसकी चर्चाएं हैं। उनका पान करो अर्थात अपने जीवन का अंग बनाओ। यही ज्ञान का पान है।


इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि चारों वेदों में वैज्ञानिक रूप से क्रम सम्बन्ध हैं।


-डॉ विवेक आर्य 

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