“सत्यार्थप्रकाश से वेदों के महत्व तथा मत-मतान्तरों की अविद्या का ज्ञान होता है”

 “सत्यार्थप्रकाश से वेदों के महत्व तथा मत-मतान्तरों की अविद्या का ज्ञान होता है”

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मनुष्य को यह ज्ञान नहीं होता है कि उसके लिये क्या आवश्यक एवं उचित है जिसे करके वह अपने जीवन को सुखी व दुःखों से रहित बना सके। मनुष्य जीवन के सभी पक्षों का ज्ञान हमें केवल वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से ही होता है। वेद विद्या से युक्त तथा अविद्या से सर्वथा मुक्त ग्रन्थ है। ऐसा वेदज्ञान का ईश्वर से प्राप्त होने के कारण से है। मनुष्य अल्पज्ञ होता है अतः उसके सभी कार्यों व कृतियों में अज्ञान, अल्पता व न्यूनता होना सम्भव होता है। पूर्णता केवल ईश्वर के कार्यों व ज्ञान में ही होती है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। इस ईश्वरीय गुण से ईश्वर के सभी कार्यों में श्रेष्ठता, उत्तमता व पूर्णता होती है। ऐसी पूर्णता मनुष्यों के कार्यों में नहीं होती। सृष्टि के आरम्भ में यदि परमात्मा ने मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न दिया होता तो सभी मनुष्य सदा अज्ञानी रहते। मनुष्य अपनी सामथ्र्य से बिना किसी पूर्व भाषा व ज्ञान के नई भाषा व ज्ञान का अन्वेषण कर ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकते न ही सृष्टि के नियमों को जान व समझ सकते हैं।


मनुष्य कोई बुद्धिपूर्वक कार्य कर सके इसके लिये उसके पास ज्ञान व उस ज्ञान की अभिव्यक्ति तथा चिन्तन व विचार करने के लिए भाषा का होना आवश्यक होता है। सृष्टि के आदिकाल में मनुष्य व अन्य सभी प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि हुई थी। यह अमैथुनी सृष्टि परमात्मा ने ही की थी व परमात्मा के द्वारा ही हुई थी। परमात्मा ही इस सृष्टि तथा सभी प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि के कर्ता, रचयिता व जनक हैं। आदि काल में इन प्रथम उत्पन्न स्त्री व पुरुष, ऋषि आदि मनुष्यों को अपने दैनिक व्यवहारों के लिये सोच विचार व ज्ञानपूर्वक अपनी समस्याओं के समाधान के लिये परस्पर संवाद के लिए भाषा की आवश्यकता थी। तब भाषा व ज्ञान प्राप्ति का एक ही आधार सृष्टिकर्ता जो सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी व दयालु है, वही एक ईश्वर सृष्टि में विद्यमान था जो मनुष्य को भाषा व ज्ञान दे सकता है। अतः सृष्टि के आदि काल में भाषा व ज्ञान की आवश्यकता परमात्मा ने ही पूरी की और उसका दिया हुआ वह ज्ञान ही चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। वेद का अर्थ भी ज्ञान ही होता है। वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं, इसके प्रमाण वेदों में ही दिए गये हैं। यजुर्वेद40.8 में कहा गया है कि जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा(सभी जीवात्मायें वा मनुष्यादि प्राणी) के कल्याणर्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। वेदज्ञान मिलने पर मनुष्यों को भाषा व ज्ञान दोनों प्राप्त हो गये थे जिससे उनका सृष्टि के आरम्भ में परस्पर का संवाद व अन्य सभी व्यवहार होते थे और इन्हीं वेदों के आधार पर महाभारत काल तक के 1.96 अरब वर्षों तक संसार की सभी व्यवस्थायें चल रही हैं और आज भी जो कुछ हो रहा है उसमें वेदों के ज्ञान का योगदान है।


पांच हजार पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद विद्वानों के आलस्य प्रमाद व अन्य कारणों से वेदों के सत्यार्थ लुप्त हो गये थे। इस कारण से देश व संसार में अज्ञान व अन्धविश्वास फैले। अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही अविद्या का प्रसार होकर देश देशान्तर में मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं और आज भी वह फल फूल रहे हैं। प्रश्न होता है कि क्या सभी मत-मतान्तर व उनके ग्रन्थ, उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य ज्ञान पर आधारित वा अविद्या से मुक्त है? इस प्रश्न का उत्तर यह मिलता है कि सभी मत-मतान्तर ज्ञान व अज्ञान तथा विद्या व अविद्या से युक्त हैं। मत-मतानतरों में कुछ विद्या और कुछ अविद्या दोनों ही हैं। इस तथ्य पर सबसे पूर्व ऋषि दयानन्द की दृष्टि गई थी। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप व मृत्यु पर विजय आदि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए मथुरा के दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से वेदांगों का अध्ययन कर वेदों के सत्यस्वरूप को जाना व प्राप्त किया था। उन्होंने भारत देश की दुर्दशा के कारणों पर भी विचार किया। उनके समय में देश अंग्रेजों का गुलाम था। इससे पूर्व देश मुसलमानों का गुलाम रह चुका था। पराधीनता के कारणों पर विचार करने पर विदित हुआ था कि वेदों के अप्रचार से अविद्या व अज्ञान सहित अन्धविश्वास, मिथ्या सामाजिक परम्परायें व कुरीतियां उत्पन्न हुई थीं जिससे आर्यों व हिन्दुओं में मतभेद उत्पन्न हुए थे। इससे सामाजिक संरचना में अनेक विकार आये जिस कारण से हम विदेशियों के गुलाम बने थे। इसका सताधान व उपाय देश व देशान्तर से अविद्या को दूर करना ही था। अविद्या को दूर करने का उपाय ईश्वरीय ज्ञान चार वेदों के सत्यस्वरूप व सत्य सिद्धान्तों का प्रचार करना था। ऋषि दयानन्द ने अन्धविश्वासों व सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए अविद्या पर प्रहार करते हुए ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेदों का प्रचार किया था। मौखिक प्रचार सहित उन्होंने वेदज्ञान पर आधारित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। इन ग्रन्थों के अस्तित्व में आने पर वेदों का सत्यस्वरूप देश की जनता के समाने आया था। बहुत से निष्पक्ष लोगों ने ऋषि दयानन्द के विचारों, मान्यताओं तथा सिद्धान्तों को स्वीकार करते हुए उनके सभी ग्रन्थों को स्वीकार किया और उसके अनुसार आचरण व कार्य करने लगे थे।


वेद व वेदों के व्याख्यान ग्रन्थों में सभी मनुष्यों के पांच प्रमुख कर्तव्य बताये गये हैं। महाभारत के बाद इन पांच कर्तव्यों व महायज्ञों का आचरण छूट गया था। ऋषि दयानन्द की प्रेरणा से उनके अनुयायियों ने इन कर्तव्यों का पालन करना पुनः आरम्भ कर दिया। यह पांच कर्तव्य हैं प्रातः व सायं ईश्वर के सत्यस्वरूप का ध्यान, चिन्तन, मनन, स्वाध्याय करना तथा ज्ञान व विवेक के अनुसार अपने आचरण को सुधारना। मनुष्य का दूसरा कर्तव्य वायु एवं जल आदि की शुद्धि के लिये देवयज्ञ अग्निहोत्र करना जिसमें अग्नि में शुद्ध सुगन्धित गोघृत तथा रोग निवारक ओषधियों सहित शक्कर, बल वर्धक सूखे मेवों बादाम, काजू आदि की आहुतियां दी जाती हैं। देवयज्ञ में वेदमंत्रों का पाठ किया जाता है जिससे यज्ञ से होने वाले लाभों का ज्ञान, वेदों के अध्ययन की प्रेरणा होकर उनकी रक्षा होती है। इसी प्रकार पितृयज्ञ में माता-पिता आदि वृद्धों की सेवा सहित अतिथि सत्कार तथा पशु पक्षियों के प्रति सद्भाव रखते हुए उनको भोजन दिया जाता है। वेदों में मनुष्य के सभी कर्तव्यों का वर्णन है तथा मनुष्य जीवन को पतनोन्मुख करने वाली बुराईयों का निषेध भी है। वेदों के ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का अर्थ जानकर मनुष्य ईश्वर की संगति व उपासना से अपने सभी दोषों व अज्ञान को दूर कर सकता है। ऐसा करके ही ज्ञान की वृद्धि, ईश्वर का साक्षात्कार तथा आनन्दमय मोक्ष आदि प्राप्त हुआ करते हैं। वेद एक सम्पूर्ण निर्दोष आदर्श जीवन पद्धति है। यह सभी मनुष्यों के अपनाने योग्य है। इससे उत्तम जीवन पद्धति कहीं देखने को नहीं मिलती है।


ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों को लिखकर मानवजाति पर महान उपकार किया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करने से मनुष्य की सभी भ्रान्तियां व शंकायें दूर हो जाती हैं। अज्ञान दूर होकर ज्ञान का प्रकाश होता है। मनुष्य ईश्वर व आत्मा सहित प्रकृति व जगत् के सत्यस्वरूप से परिचित होता है। मनुष्य को ज्ञान होता है कि मनुष्य जन्म भोग एवं अपवर्ग वा मोक्ष की प्राप्ति के परमात्मा से मिला है। जिस प्रकार माता-पिता अपनी सन्तानों की उन्नति चाहते हैं उसी प्रकार से परमात्मा भी सभी आत्माओं को सभी दुःखों से छुड़ाकर कर उन्हें दुःखों से सर्वथा रहित मोक्ष व मुक्ति को प्राप्त कराते हैं। हमें केवल वेद वर्णित ईश्वर की आज्ञाओं को मानकर ज्ञानप्राप्ति व सद्कर्म ही करने होते हैं। इससे हमें मनुष्य जीवन में सुख मिलता है और मृत्यु के बाद मोक्षानन्द प्राप्त होता है।


मोक्ष प्राप्ति के साधनों व जीवन शैली पर भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से प्रकाश पड़ता है। सत्यार्थप्रकाश न भूतो न भविष्यति रूपी ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ व ज्ञान संसार में दुर्लभ है। सभी वैदिक सत्साहित्य का सार व समन्वय सत्यार्थप्रकाश में देखने को मिलता है। यह एक ऐसा ग्रन्थ है जिसे मनुष्य को जीवन भर प्रतिदिन कुछ समय अवश्य पढ़ना चाहिये। ऐसा करके मनुष्य अविद्या से दूर रहकर जीवन में सुख व आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। यह ऐसा ग्रन्थ है जिसके अध्ययन से आत्म सन्तुष्टि होती है। यह भी कह सकते हैं कि सत्यार्थप्रकाश एक अमोघ ओषधि है जिसके अध्ययन व आचरण से मनुष्य के सभी शारीरिक व मानसिक रोग व शोक दूर हो जाते हैं। जिन मनुष्यों व महापुरुषों ने इस ग्रन्थ को पढ़ा है, उन सभी निष्पक्ष लोगों ने इसकी प्रशंसा की है। सत्यार्थप्रकाश हमें विद्या प्राप्त कराता है और अविद्या से दूर करता है। हम सत्य अर्थों में धार्मिक व महात्मा बनते हैं। हमारे पास जो सत्यार्थप्रकाश है उसमें पूर्वार्ध में 223 पृष्ठ हैं। यदि हम प्रतिदिन एक घंटा वा 10 पृष्ठ इस पुस्तक को पढ़े तो मात्र20 दिनों में इस ग्रन्थ को पढ़ा जा सकता है। इसके बाद मत-मतान्तरों की समीक्षा व परीक्षा वाले उत्तरार्ध भाग को भी पढ़ा जा सकता है। उत्तरार्ध को पढ़ने से हमें विदित होता है कि संसार के सभी मत-मतान्तरों में अविद्या विद्यमान है जो हमें बन्धनों में डालती है, हम जन्म-मरण के चक्र में फंसते हैं और जन्म लेकर सुख व दुःख भोगते हैं। वैदिक धर्म मनुष्य को बन्धनो ंसे छुड़ता है और मत-मतान्तर हमें जन्म व मरण के बन्धनों व दुःख आदि में डालते हैं। अतः सत्यार्थप्रकाश का महत्व निर्विवाद है। सभी को इससे लाभ उठाना चाहिये।


सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास सहित समूचे ग्रन्थ से वेदों के महत्व का प्रकाश हुआ है। वैदिक मान्यताओं के प्रकाश से ही समाज में प्रचलित अविद्यायुक्त अन्धविश्वासों से पूर्ण मान्यताओं के मिथ्यात्व व हानियों का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश के पाठक को होता है। इसके साथ ही सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लासों का अध्ययन कर हम सभी प्रमुख मतों में विद्यमान अविद्या से परिचित होते हैं। इससे भी वेदों का महत्व विदित होता है और मत-मतान्तरों के आचरण से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में होने वाली बाधाओं का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश अमृत के समान एक संजीवनी ओषधि है जिसके सेवन से मनुष्य का जीवन अज्ञान व अन्धविश्वासों से मुक्त होकर सुखी व निश्चन्त होता है और मृत्यु के बाद उसकी उत्तम गति होती है जो अन्यथा नहीं होती। सत्यार्थप्रकाश के प्रभाव से ही हम देश में विगत लगभग डेढ़ शताब्दी से अनेक प्रकार से उन्नति को होता देख रहे हैं। हम सत्यार्थप्रकाश का जितना अध्ययन व उसकी शिक्षाओं का आचरण करेंगे इससे देश व समाज उतना ही अधिक लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य 

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