वेदों में वर्णित पुरुष सूक्त पर भ्रान्ति निवारण

 वेदों में वर्णित पुरुष सूक्त पर भ्रान्ति निवारण


डॉ विवेक आर्य 


दलित समाज को भड़काकर अपनी राजनीति करने वाले पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता उदित राज ने फिर से ट्विटर पर पुरुष सूक्त के विषय में भ्रामक जानकारी देते हुए लिखा कि 


'ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में लिखा है कि सूद्र यदि वेद-पुराण पड़ता है तो आंख फोड़ दो, सुनता है तो कान में पिघला शीशा डाल दो & उच्चारण करता है तो जीभ काट दो।'


अपने आपको सुपठित कहने वाले इन राजनेताओं ने समाज को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं। अपने अध् कचरे ज्ञान से यह केवल अशिक्षित और अनपढ़ ही नहीं अपितु पढ़े लिखे वरह को भी भ्रमित करने में सफल हो जाते हैं। कारण सही जानकारी का पूर्ण अभाव होना है। पुरुष सूक्त में कहीं भी शूद्र के कान में पिघला शीशा डालने या उच्चारण करने पर जीभ काटने का कोई उल्लेख नहीं हैं। 


  वेदों में पुरुष सूक्त में पुरुष नामक ईश्वर से समग्र सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। वही मनुष्य समाज की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए उसे चार विभागों में बाँटा गए है। ये विभाग हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।   ऋग्वेद 10/90/12, यजुर्वेद 31/11 (ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥) एवं अथर्ववेद 19/6/6 (ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्योऽभवत्। मध्यं तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥) को वर्ण व्यवस्था के आधारभूत वेद मन्त्र  माना जाता हैं। इन वेद मन्त्रों का अर्थ है कि ब्राह्मण इस मनुष्य समाज का मुख है, क्षत्रिय भुजायें, वैश्य जंघाएँ है और पैरों के लिए शूद्र बना है। इस वेद मन्त्र का निष्कर्ष है-


-इस मन्त्र में मनुष्य समाज की मनुष्य शरीर से उपमा दी गई है। जैसे मनुष्य शरीर में मुख, हाथ, पेट और पैर होते हैं, वैसे ही मनुष्य समाज में भी होते हैं। जैसे मनुष्य शरीर का सभी अंग मिलकर उसकी रचना करते हैं, वैसे ही मनुष्य समाज का भी सभी अंग मिलकर समाज शरीर का निर्माण करते हैं।


- ब्राह्मण को समाज का मुख कहा गया है। मुख में आँख, कान, नाक, रसना और त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एकत्र हैं।  शेष शरीर में केवल त्वचा ही एक ज्ञानेन्द्रिय है। इस प्रकार मुख में शरीर के अन्य अंगों की अपेक्षा पाँच गुणा अर्थात बहुत अधिक ज्ञान रहना चाहिए। ब्राह्मण समाज का मुख है, जो अपने ज्ञान उपदेश द्वारा समाज का कल्याण करता है। जैसे शीत में मुख नग्न रहता हुआ मनुष्य की रक्षा करता है। वैसे ही ब्राह्मण अनेक द्वन्दों को सहते हुए स्वार्थ रहित और परोपकारी  रहकर  अपने ज्ञान द्वारा समाज का उपकार करता है। समाज के जो लोग मुख की भांति ज्ञानवान, ज्ञान का उपदेष्टा, तपस्वी, सहनशील, स्वार्थहीन और परोपकारी है। वे ब्राह्मण है। 


-क्षत्रिय समाज की भुजाएँ है। जैसे कोई शरीर पर प्रहार करता है तो भुजाएँ उस प्रहार को रोकती है। अपनी शक्ति से शरीर के अन्य अंगों की रक्षा करती हैं। इसी प्रकार से जो अपने भीतर बल की वृद्धि करते हैं और उस बल से समाज की रक्षा करते हैं। वे क्षत्रिय हैं। जो स्वयं कष्ट सहकर, शरीर के किसी भी अंग पर प्रहार, अन्याय और अत्याचार को रोकता है। समाज के जो लोग मृत्यु को आलिंगन करके शत्रुओं के विनाश के लिए सदा उद्यत रहते है। वे क्षत्रिय है। 


-वैश्य समाज का मध्य भाग है। जैसे खाये हुए अन्न को ग्रहण का पेट उसका रस बनाकर सम्पूर्ण शरीर को समृद्ध करता है। शरीर को पुष्ट और बल देता है। उसी प्रकार से समाज शरीर के सभी अंगों का भरण-पोषण का भार अपने ऊपर लेने वाला वैश्य कहलाता है। समाज के जो लोग देश-विदेश में जाकर व्यापार कर राष्ट्र को समृद्ध करते है। वे वैश्य है। 


-शूद्र समाज रूपी शरीर के पैर है। पैर सारे शरीर को अपने ऊपर उठाये रहते है। पैर शरीर को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाते हैं। जो लोग ज्ञान आदि विशेष गुण, बल अथवा नेतृत्व आदि गुण, व्यापार आदि गुण अपने अन्दर नहीं रखते और इसलिए वे समाज के अन्य अंगों को उनके कार्य में सहयोग करते हैं, उन्हें शूद्र कहते हैं। इस प्रकार से शूद्र राष्ट्र और समाज के उत्थान के लिए अपना सहयोग करते हैं। समाज के जो लोग ज्ञान आदि विशेष गुणोंके न होने के कारण समाज  की सेवा का कार्य करते है। वे शूद्र है। 


- वर्ण विभाजन का आधार ऊंच-नीच का भेद नहीं है। शरीर के अंग एक दूसरे से घृणा नहीं करते। चाहे चोट शरीर के मुख को लगे अथवा पैरों को।  पीड़ा सम्पूर्ण शरीर को समान ही होती है। वर्ण विभाजन का आधार जन्मना नहीं अपितु गुण, कर्म और स्वाभाव के आधार पर है। साधारण शब्दों में जो लोग राष्ट के अज्ञान से पैदा होने वाले कष्टों को दूर करने का व्रत लेंगे वे ब्राह्मण कहलायेंगे। जो लोग अन्याय से होने वाले राष्ट्र के कष्टों को दूर करेंगे वे क्षत्रिय कहलायेंगे, जो लोग संपत्ति के अभाव से होने वाले राष्ट्र के कष्ट को दूर करेंगे वे वैश्य कहलायेंगे। जो लोग इन तीनों कामों में से कोई भी न कर सकेंगे , वे इन तीनों वर्णों को सेवा रूप में सहयोग कर सकेंगे। उन्हें शूद्र कहा जायेगा। इस प्रकार से पुरुष सूक्त मनुष्यों की योग्यता के आधार पर विभाजन करता है। न कि जन्म के आधार पर।


वेदों में शूद्रों के लिए अत्यंत प्रशंसाजनक वचन है-


वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है। कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का कोई उल्लेख नहीं है।


यजुर्वेद 26/2 (यथेमां वाचं कल्याणीम् आवदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्याꣳ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।) का स्वामी दयानन्द भाष्य करते है कि हे मनुष्यो! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देनेवाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। 


अथर्ववेद 19/62/1 (प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु। प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ॥) में प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्रिय बना दे। इस मंत्र का भावार्थ ये है कि हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें।

यजुर्वेद 18/46 (यास् ते ऽ अग्ने सूर्ये रुचो दिवम् आतन्वन्ति रश्मिभिः । ताभिर् नो ऽ अद्य सर्वाभी रुचे जनाय नस् कृधि॥) का अर्थ है कि हे परमात्मा आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। मन्त्र का भाव यह है कि हे परमात्मा! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।

अथर्ववेद 19/32/8 (प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च। यस्मै च कामयामहे सर्वस्मै च विपश्यते ॥) का अर्थ है कि हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे।

इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी है। 

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