ऋषि और आचार्य के लक्षण◼️

 ऋषि और आचार्य के लक्षण◼️


✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’


      हर किसी को महापुरुष, आचार्य वा ऋषि नहीं कहा जा सकता, वा माना जा सकता है। अज्ञ जनता में इन शब्दों का दुरुपयोग वा मिथ्या प्रयोग होते प्रायः देखा जाता है। शास्त्र तो ‘साक्षात्कृतधर्मा’ जिसे धर्म का साक्षात्कार हो, उसे ही 'ऋषि' कहता है। जिसको जिस विषय का साक्षात् ज्ञान है, वह उस विषय का ऋषि कहाता है। वैदिक साहित्य में तो 🔥’ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्श' (निरुक्त २।११) मन्त्रार्थद्रष्टा को ऋषि है। संसार को मार्ग दर्शानेवाले को ऋषि कहते हैं। महामुनि पतञ्जलि महाभाष्य में 🔥'ऋषिर्वेदे पठति शृणोत ग्रावाणः' में 'ऋषिर्वेदः' वेद को ही ऋषि बतलाते हैं। 


      आचार्य' शब्द यद्यपि ऋग्वेद, यजुः, साम तीनों में नहीं पाया। वेद ११।५ ब्रह्मचर्यसूक्त में 🔥'आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त' (अथर्व० ११।५।३) 'आचार्य' का जो निरूपण किया गया है, उसके आधार पर ही सभी धर्मशास्त्रों ने आचार्य का लक्षण प्रायः समान ही किया है -


      🔥उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः। 

      सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते॥ 

      (मानवधर्मशास्त्र २।१४०) 


      इसका यही अभिप्राय है कि जो ८ वर्ष से लेकर कम से कम २५ वर्ष की आयु तक बालक के आचार-व्यवहार तथा उसके समस्त ज्ञान-विज्ञान का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले, सङ्कल्प और सरहस्य वेद का अध्ययन करावे, वही 'आचार्य' कहाता है। 


      निरुक्तकार यास्कमुनि ने भी 'आचार्य' का लक्षण निम्न प्रकार किया है - 


      🔥"आचार्यः कस्मात्? आचारं ग्राहयति, आचिनोत्यर्थान्। आचिनोति बुद्धिमिति वा॥" (निरुक्त अ० १।४) 


      जिसका भाव भी यही है, जो ऊपर कहा गया है। नवीन युग वा नव भारत के निर्माता ऋषि दयानन्द 'आचार्य' का लक्षण करते हैं -


      "आचार्य उसको कहते हैं, जो साङ्गोपाङ्ग वेदों के शब्द, अर्थ, संबंध और क्रिया का जाननेहारा, छल-कपट रहित, अतिप्रेम से सबको विद्या का दाता, परोपकारी, तन-मन और धन से सबको सुख बढ़ाने में जो तत्पर, महाशय, पक्षपात किसी का न करे और सत्योपदेष्टा, सबका हितैषी, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय हो" (संस्कारविधि, उपनयन संस्कार)। 


      'आचार्य' पदवी कितनी पवित्र, उच्च, उत्तरदायित्वपूर्ण है, यह पाठक स्वयं विचार सकते हैं। सुगन्ध वह है, जिसे नासिका इन्द्रिय कहे, न कि वह जो उसका बेचनेवाला कहे। इसी प्रकार 'आचार्य' की सुगन्ध उसके अपने जीवन से ही मिलती है, न कि स्वयं कहने से या कहलाने से। 


      उपयुक्त लक्षणों से युक्त आचार्य और ऋषि ही मानव-जाति को ऊंचा उठा सकते हैं। ऐसे महापुरुषों के विना मानवीय जीवनरूपी नौका निर्दिष्ट वा अभीष्ट स्थान पर पहुंचेगी, इसमें सन्देह ही बना रहेगा। अतएव मानवीय जीवन की सफलता वा लक्ष्यपूत्ति का एकमात्र साधन ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट (आर्ष) मार्ग वा प्रणाली का अवलम्बन है। मानव-समाज सदा ही दुःख-अशान्ति-परस्पर विरोध-विद्वेष-स्वार्थपरता परहितहानि और विक्षुब्धता की भावनाओं से निरन्तर ओत-प्रोत रहेगा, जब तक ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट आर्ष मार्ग वा प्रणाली का आश्रयण नहीं करेगा, क्योंकि 🔥'सत्यं वै देवाः, अनुतं मनुष्याः' (शतपथ) देव, ऋषि लोग ही पूर्णज्ञानी, निरपेक्षसत्यनिष्ठ, निरीह, सर्वकाल परहित में रत होते हैं, मनुष्य में तो कुछ न कुछ न्यूनता बनी ही रहेगी। ये सब भाव 'ऋषि' और 'आचार्य' शब्दों में अन्तनिहित हैं, यही हमको कहना है।

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