खुदीराम जी की बलिदान यात्रा
जन्म दिन पर शत शत नमन --
खुदीराम जी की बलिदान यात्रा
रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम पंफलेट वितरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
बहिष्कार आन्दोलन में भाग
पुलिस ने 28 फ़रवरी, सन् 1906 ई. को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बाँटते हुए बोस को दबोच लिया। लेकिन बोस मज़बूत थे। पुलिस की बोस ने पिटाई की और उसके शिकंजे से भागने में सफल रहे। 16 मई, सन् 1906 ई. को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था। 6 दिसम्बर, 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में भी बोस भी शामिल थे। उन्होंने अंग्रेज़ी चीज़ों के बहिष्कार आन्दोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया।
ब्रिटिश राज के विरुद्ध
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में कई क्रांतिकारी ऐसे थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध आवाज़ उठाई। खुदीराम बोस भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास में संभवतया सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, जो भारत मां के सपूत कहे जा सकते हैं। बंगाल के विभाजन के बाद दुखी होकर खुदीराम बोस ने स्वतंत्रता के संघर्ष में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से एक मशाल चलाई। उन्होंने ब्रिटिश राज के बीच डर फैलाने के लिए एक ब्रिटिश अधिकारी के वाहन पर बम डाल दिया।
क्रान्तिकारियों द्वारा असफल प्रयास
कलकत्ता में उन दिनों किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट था। वह बहुत सख़्त और क्रूर अधिकारी था। वह अधिकारी देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था। उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता। क्रान्तिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी। युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र कुमार घोष]ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुज़फ्फरपुर में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रपुल्ल चाकी को चुना गया।
ये दोनों क्रांतिकारी बहुत सूझबूझ वाले थे। इनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। देश भक्तों को तंग करने वालों को मार डालने का काम उन्हें सौंपा गया था। एक दिन वे दोनों मुज़फ्फरपुर पहुँच गए। वहीं एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे। इस दौरान उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या तथा गतिविधियों पर पूरी नज़र रखी। उनके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेज़ी अधिकारी और उनके परिवार अक्सर सायंकाल वहाँ जाते थे।
30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुँचे। रात्रि के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए। उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई। क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है।
खुदीराम बोस की गिरफ़्तारी
खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुँचे। खुदीराम बोस पर पुलिस को इस बम कांड का संदेह हो गया और अंग्रेज़ पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने खुद को गोली मारकर शहादत दे दी पर खुदीराम पकड़े गए। उनके मन में तनिक भी भय की भावना नहीं थी। खुदीराम बोस को जेल में डाल दिया गया और उन पर हत्या का मुक़दमा चला। अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था। लेकिन उसे इस बात पर बहुत अफ़सोस है कि निर्दोष कैनेडी तथा उनकी बेटी ग़लती से मारे गए।
प्राण दण्ड की सज़ा
मुक़दमा केवल पाँच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें प्राण दण्ड की सज़ा सुनाई गई। इतना संगीन मुक़दमा और केवल पाँच दिन में समाप्त। यह बात न्याय के इतिहास में एक मज़ाक बना रहेगा। 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी को फाँसी पर चढा़ दिया गया। उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्यौछावर कर दिया
लोकप्रियता
मुज़फ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फाँसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फाँसी के तख़्ते की ओर बढ़ा था। जब खुदीराम शहीद हुए थे तब उनकी आयु 19 वर्ष थी। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक ख़ास किस्म की धोती बुनने लगे। इनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। इनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे गए और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। इनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं।
क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद
इतिहासकार शिरोल के अनुसार- बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह शहीद और अधिक अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। स्कूल-कॉलेज बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। खुदीराम बोस को भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद माना जाता है। अपनी निर्भीकता और मृत्यु तक को सोत्साह वरण करने के लिए वे घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं।
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