संसार को ईश्वर की सत्ता का परिचय सर्वप्रथम वेदों से मिला है”

 ओ३म्

“संसार को ईश्वर की सत्ता का परिचय सर्वप्रथम वेदों से मिला है”

=========

हमारा यह संसार1.96 अरब वर्षों से अधिक समय पूर्व बना था। तब से यह जीवों के आवागमन व ग्रहों व उपग्रहों के नियमपूर्वक गतिमान होने से चल रहा है। सृष्टि में प्रथम मनुष्य वा स्त्री पुरुष अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए थे। सभी मनुष्यों सहित आंखों से दृश्य व अदृश्य भौतिक सृष्टि, प्राणी जगत व वनस्पति जगत आदि एक सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य तथा सर्वज्ञ सत्ता से ही बना व संचालित है। परमात्मा न होता तो यह संसार कौन बनाता? अर्थात् तब यह संसार बन नहीं सकता था। प्रकृति व जीवों की सत्ता न होती तो भी यह संसार अस्तित्व में नहीं आ सकता था। तब परमात्मा किस पदार्थ से किसके लिये यह संसार बनाता? तब संसार की न तो आवश्यकता होती और न प्रकृति व जीवों के होने से इस सृष्टि की उत्पत्ति का होना सम्भव एवं आवश्यक था। परमात्मा ने प्रकृति नामी उपादान कारण से जीवों को सुख व कल्याण प्रदान करने के लिये ही अपनी असीम सामथ्र्य से इस संसार की रचना की है और वही इसका पालन कर रहा है व आगे भी करेगा। हमें इस सत्य रहस्य पर विश्वास करना चाहिये। यह ज्ञान हमें ईश्वरीय ज्ञान वेद और ऋषि परम्परा व उनके ग्रन्थों से ही प्राप्त हुआ है। ऋषि दयानन्द जी का ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ भी हमें इस सृष्टि के अनेक रहस्यों से परिचित कराता है। सृष्टि की उत्पत्ति का विचार करने तथा वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर से सृष्टि की आदि व आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके हृदय में स्थित परमात्मा ने अन्तर्यामी स्वरूप से प्रदान किये थे। ऐसा होना असम्भव नहीं है। ईश्वर वर्तमान में भी जीवों को सत्कर्म करने की प्रेरणा और दुष्ट कर्मों का त्याग करने की आत्मा में प्रेरणा करता है। इसी कारण से परोपकार व पुण्य कार्यों को करने में उत्साह व प्रसन्नता तथा चोरी, जारी, हत्या आदि कार्य करने में आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। यह परमात्मा की ओर से ही होता व किया जाता है। वेदों के अध्ययन और ऋषि परम्परा से प्राप्त ज्ञान से विदित होता है कि सृष्टि के आरम्भ में आदि व प्रथम सृष्टि के ऋषियों व मनुष्यों को परमात्मा से वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह ज्ञान पूर्ण ज्ञान है। सभी विषयों का बीज रूप में ज्ञान वेदों में विद्यमान है। मनुष्य वेदों का अध्ययन कर सभी विषयों में अपना ज्ञान बढ़ा सकता है। ऐसा ही हुआ भी है। आज संसार में जो ज्ञान विज्ञान उपलब्ध है वह प्रथम वेदों के द्वारा उत्पन्न होकर समय समय पर सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों ने उसे अपने चिन्तन, मनन व ध्यान, प्रयोगों व विचार गोष्ठी आदि क्रियाओं को करके बढ़ाया है।


मनुष्यों को ईश्वर का परिचय सर्वप्रथम किसने कराया? इसका एक ही उत्तर है कि परमात्मा का परिचय स्वयं परमात्मा ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का ज्ञान देकर कराया था। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव विस्तार व प्रायः पूर्णता से प्राप्त होते हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों में अपनी बुद्धि से बिना परमात्मा की सहायता से भाषा व ज्ञान को उत्पन्न व ईश्वरेतर किसी सत्ता से प्राप्त करने की क्षमता व सामर्थ्य नहीं होती। परमात्मा ज्ञानवान सत्ता है। वह सर्वज्ञ एवं अपने असीम ज्ञान से इस सृष्टि की रचना करने वाले हैं। सर्वशक्तिमान होने से उनके लिए मनुष्यों को अमैथुनी सृष्टि तथा प्रसव व्यवस्था से उत्पन्न करना तथा ज्ञान व कर्म की क्षमता से युक्त अल्पज्ञ चेतन जीवात्मा में ज्ञान देना असम्भव नहीं है। परमात्मा अपने सभी कार्य सहज भाव से जैसे हम श्वास प्रश्वास लेते व छोड़ते तथा आंखे खोलते व बन्द करते हैं, करता है। परमात्मा ने ईश्वर विषयक जो ज्ञान दिया है वह चारों वेदों से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। ईश्वर का वेदों में जो सत्यस्वरूप वर्णन व गुण, कर्म व स्वभाव ज्ञात होते हैं उनके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र है। वही सृष्टिकर्ता है। सृष्टिकर्ता होने व अपने परोपकार के गुणों व स्वभाव के कारण वह सब जीवों का उपासनीय है। ईश्वर ही मनुष्यादि जीवों के सभी कर्मों का द्रष्टा, साक्षी व फल प्रदाता है। हमारे ज्ञान व कर्मों के आधार पर ही हमें परमात्मा से जन्म मिलता है। हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर व उसके अनुसार आचरण व ईश्वर प्राप्ति की साधना कर ईश्वर को प्राप्त होकर उत्तम परम गति आनन्द से युक्त मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। यह शिक्षा भी हमें मोक्ष व वेदों के ज्ञानी ऋषियों के ग्रन्थों से प्राप्त होती है। मोक्ष प्राप्त होने पर जीवात्मा को आवागमन वा जन्म व मरण से अवकाश मिल जाता है। वह31 नील 10 खरब तथा40 अरब वर्षों तक बिना जन्म व मरण लिये मुक्तावस्था में ईश्वर के सान्निध्य में रहकर उसके आनन्दस्वरूप का भोग करते हुए पूर्ण प्रसन्न तथा आनन्दित रहते हैं। यह स्थिति ही सब जीवों को प्राप्त करनी योग्य है। अतीत में अधिकांश ऋषियों सहित ऋषि दयानन्द ने इस स्थिति को प्राप्त किया है, यह बात अनुमान से जानी जाती है। अतः सभी मनुष्यों को वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्ज्ञान, सत्कर्मों, उपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, परोपकार व दान आदि कर्मों को प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बनना चाहिये।


संसार के अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व को तो मानते हैं परन्तु सभी को ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ठीक ठीक यथार्थ ज्ञान नहीं है। इसका कारण उन लोगों व उनके मतों के आचार्यों की वेदों सहित ऋषियों के उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों से दूरी है। यह सभी मत विगत500 से2500 वर्षों के मध्य अस्तित्व में आये हैं। इस काल में अविद्या अपनी चरम सीमा पर थी। इसी कारण से विगत दो तीन हजार वर्ष पुराने ज्ञान व ग्रन्थों में ईश्वर व सत्य विद्याओं का सत्य व यथार्थस्वरूप विदित नहीं होता। वेद संसार में सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इस मान्यता व विचार को पश्चिमी विद्वान भी स्वीकार करते हैं। प्रो. मैक्समूलर ने भी ऋग्वेद को संसार की सबसे पुरानी पुस्तक स्वीकार किया है। इस आधार वेद ही संसार के आदि ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। वेदों की अनेक विशेषतायें हैं। इसमें ज्ञान तो उत्तम कोटि का है ही, इसका भाषा भी संसार की भाषाओं में सर्वोत्तम है। वेदों की भाषा मनुष्यकृत न होकर ईश्वरकृत भाषा है इसीलिए यह सर्वोत्तम है। वैदिक भाषा संस्कृत का व्याकरण एवं शब्द कोष आदि यथा अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त, निघण्टु आदि भी विश्व में अन्य भाषाओं के व्याकरणों से उत्तम व श्रेष्ठ हैं। देवनागरी लिपि ही वेदों के लिपि है। इस लिपि में संसार की सभी ध्वनियों को पूर्ण स्पष्टता व निर्दोष रूप में अभिव्यक्त करने की क्षमता है। अन्य भाषाओं में यह क्षमता नहीं है। संस्कृत में ईश्वर व अग्नि आदि के लिये एक सौ से अधिक पर्यायवाची शब्द हैं। अन्य संज्ञाओं के लिए भी संस्कृत भाषा में अनेकानेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। यह विशेषता अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में नहीं है। इस कारण वेद सर्वप्राचीन होने सहित ज्ञान व भाषा की दृष्टि से भी सर्वोत्तम हैं। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों वा ऋषियों को अन्तर्यामी सर्वज्ञ व सर्वव्यापक परमात्मा से वेदज्ञान प्राप्त हुआ था। अतः इसका उत्कृष्ट व सर्वोत्तम होना सत्य व सिद्ध है। यह सर्वथा सत्य एवं यथार्थ तथ्य है कि सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को ईश्वर के अस्तित्व, उसके सत्य स्वरूप तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद से प्राप्त हुआ था। संसार के लोगों को इस तथ्य को जानना चाहिये और वेदों का अध्ययन कर इसमें निहित ज्ञान से लाभ उठाते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होना चाहिये। ऐसा करना ही उनके हित व स्वार्थ की दृष्टि से भी उचित है। यदि कोई मनुष्य वेदों से ईश्वर का सत्यस्वरूप जानना चाहे और वह वेदादि शास्त्रों का अध्ययन न कर सके तो वह ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के आठ मन्त्रों का उनके अर्थ सहित पाठ कर लें तो भी वह 5 मिनट में ईश्वर के यथार्थस्वरूप से परिचित हो सकता है। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य

samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriage


rajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app  

Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

वर-वधू को आशीर्वाद (गीत)