‘ईश्वर, वेद और ऋषि दयानन्द के सच्चे अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द’

 ओ३म्

‘ईश्वर, वेद और ऋषि दयानन्द के सच्चे अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द’

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आर्यसमाज के इतिहास में ऋषि दयानन्द के बाद स्वामी श्रद्धानन्द जी का प्रमुख स्थान है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने बरेली में ऋषि दयानन्द जी के दर्शन किये थे और और उनके उद्देश्यों व कार्यों को यथार्थ रूप में जाना व समझा था। उन्होंने मन वचन व कर्म से उनके कार्यों को पूरा करने के लिये यथासम्भव कार्य किया। उनके जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें उनका एक महत्तम कार्य प्राचीन वैदिक शिक्षा पद्धति की देन गुरुकुल पद्धति को पुनर्जीवित करना था। इसके लिए उन्होंने हरिद्वार के कांगड़ी ग्राम में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। यह कार्य कितना कठिन व जटिल था, इसका अनुमान भी हम नहीं लगा सकते। प्रथम कार्य तो गुरुकुल के लिये वृहद भूभाग की व्यवस्था सहित वहां भवनों के निर्माण के लिये धन संग्रह करना था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इस कार्य को जिस उत्साह, श्रद्धा तथा त्यांगपूर्वक किया वह प्रशंसनीय एवं प्रेरणादायक है। इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण मिलना कठिन है। गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार की स्थापना सन् 1902 में की गई। बहुत तीव्रता से गुरुकुल ने प्रगति की और यह देश का शिक्षा का एक आदर्श राष्ट्रीय संस्थान बना। इसकी कीर्ति व यश का अनुमान हम इसी बात से लगा सकते हैं कि इसकी सुगन्ध को इग्लैण्ड में बैठे लोगों ने भी अनुभव किया था और वहां ब्रिटिश राजनेता जेम्स रैमसे मैकडोनाल्ड(1866-1937) के नेतृत्व में कुछ प्रतिनिधि गुरुकुल कांगड़ी को देखने हरिद्वार पधारे थे। श्री रैमसे मैकडोनाल्ड बाद में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बने थे। अपनी गुरुकुल की यात्रा में उन्होंने लिखा था कि यदि किसी को जीवित ईसामसीह के दर्शन करने हों तो उसे स्वामी श्रद्धानन्द जी के दर्शन करने चाहिये। न केवल रैमसे मैकडोनाल्ड अपितु उन दिनों के वायसराय चेल्म्सफोर्ड भी गुरुकुल कांगड़ी में आये थे। उन्होंने गुरुकुल को देखा था और जाते हुए गुरुकुल को सरकारी आर्थिक सहायता का प्रस्ताव भी किया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अनेक कारणों से वायसराय जी की ओर से गुरुकुल को प्रस्तावित आर्थिक सहायता को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था। इस घटना से यह अनुमान लगता है कि उन दिनों के हमारे पूर्वज तप, त्याग, पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे और सुविधाभोगी नहीं थे अन्यथा आज हम इस प्रकार के प्रस्ताव को ठुकराने की कल्पना भी नहीं कर सकते। देश की स्वतन्त्रता के बाद के गुरुकुल के अधिकारियों ने सरकार से गुरुकुल कांगड़ी को मान्यता एवं आर्थिक सहायता प्राप्त कराई। आज का गुरुकुल स्वामी श्रद्धानन्द और आचार्य रामदेव के स्वप्नों का गुरुकुल नहीं है। गुरुकुल का उद्देश्य वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति की रक्षा करने के साथ वेद का देश-देशान्तर में प्रचार करना है। आज यह उद्देश्य किस सीमा तक पूरा हो रहा है, सभी आर्यजन इससे भली भांति परिचित हैं। अतीत में गुरुकुल ने हमें अनेक वैदिक विद्वान, वेद भाष्यकार, पत्रकार, शिक्षा शास्त्री, देशभक्त, स्वतन्त्रता सेनानी, समाज सुधारक, शिक्षक, राजनेता, व्यवसायी आदि दिये हैं। देश की स्वतन्त्रता के बाद हम प्रायः सभी क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों का ह्रास देखते हैं। यही स्थिति आर्यसमाज और स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रिय गुरुकुल की भी हुई है। आज स्थिति यह है कि आर्यसमाज व देश में स्वामी श्रद्धानन्द जी के समान योग्य, त्यागी, तपस्वी व समर्पित विद्वान व नेता नहीं है जिसके लिये ईश्वर, वेद और आर्यसमाज से बढ़कर कुछ न हो तथा वह वेद और ऋषि दयानन्द के उद्देश्यानुसार‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’ के उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्वात्मा उच्च योग्यता को धारण किये होकर संघर्षरत हो।


स्वामी श्रद्धानन्द जी ने वेद और आर्यसमाज की आध्यात्मिक एवं समाज सुधार की विचारधारा का सर्वाधिक प्रचार किया। वह आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रधान भी रहे। यह सभा आर्यसमाज की सबसे अधिक प्रभावशाली एवं गतिशील संस्था थी। आपने समाज सुधार के सभी कार्यों को पूरी लगन एवं संगठित रूप से किया। अपने जीवन काल में अनेक गुरुकुलों को स्थापित किया। ब्रह्मचारियों को वेदाध्ययन एवं वेदप्रचार की प्रेरणा की। आपका अपना जीवन भी वेद प्रचार का जीवन्त उदाहरण था जिससे लोग प्रेरणा लेते थे। आप समाज में दलित समस्या से पूर्णतः परिचित थे। जन्मना-जातिवाद की बीमारी के दुष्प्रभावों से भी आप परिचित थे। आपने जन्मना जातिवाद, भेदभाव व छुआछूत के उन्मूलन के लिये भी कार्य किया। डा0 अम्बेडकर भी स्वामी जी के जाति सुधार एवं दलितोद्धार के कार्यों के प्रशंसक थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा। आपने ‘‘सद्धर्म प्रचारक” नामक उर्दू पत्र का प्रकाशन किया था। बाद में राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिन्दी की महत्ता से परिचित होने पर आपने घाटा उठाकर भी इसे हिन्दी में प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया था। एक प्रकार से स्वामी श्रद्धानन्द जी ने पंजाब के उर्दू भाषी हिन्दुओं को देश की एकता का आधार हिन्दी भाषा पढ़ाई थी। आपका प्रेस लाखों रुपये मूल्य का था जिसे आपने आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को दान कर दिया था। आप देश के प्रेरणादायक सर्वस्व दानी धर्मप्रचारक व सामाजिक नेता थे।


स्वामी श्रद्धानन्द जी जिन दिनों जालंधर में वकालत करते थे, उन दिनों आपकी वकालत खूब चलती थी। आर्यसमाज से प्रेम व धर्म प्रचार के कार्यों की आवश्यकता का विचार कर आपने अपनी वकालत की कमाई पर लात मारकर वेद प्रचार के कार्य को अपनाया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने जिस त्याग भावना का परिचय दिया, ऐसे लोग कम ही हुए हैं। आपकी जालन्धर में एक बड़ी कोठी थी। इस पर आपके बच्चों का उत्तराधिकार था। आपके दो पुत्र हरिश व इन्द्र तथा तीन पुत्रियां थी। इस सम्पत्ति के मोह पर भी आपने विजय पाई थी और अपने पुत्रों को सहमत कर अपनी जालन्धर की इस कोठी को भी गुरुकुल कांगड़ी को दान देकर‘सर्वमेघ यज्ञ’ किया था। ऐसे महान चरित्र के धनी पूर्वजों के होते हुए हम आर्यसमाज में जब पदों के लिये लोगों को गुटबाजी व अधर्माचरण करते हुए देखते हैं तो हमें दुःख होता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इन कार्यो को करते हुए ‘‘शुद्धि” का कार्य भी किया। शुद्धि का अर्थ है कि अपने जो धर्म-बन्धु भय, प्रलोभन, छल व अज्ञान से विधर्मियों द्वारा बलात् विधर्मी बना लिये गये होते हैं, उन्हें वैदिक धर्म की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता समझाकर पुनः अपने पूर्वजों के धर्म में प्रविष्ट कराना। यह कार्य विधर्मियों के अतीत के अनैतिक कार्यों का निवारण होता है। ऋषि दयानन्द ने वेद की ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ आदेश के अनुसार इसकी प्रेरणा की थी। यदि शुद्धि का कार्य न किया जाये तो हमारे विभिन्न मतों के बन्धु सत्य मत व सद्धर्म से परिचित न होने के कारण अभ्युदय एवं निःश्रेयस को प्राप्त करने सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष एवं अपनी कामनाओं को सिद्ध नहीं कर सकते। आर्यसमाज ही विश्व का ऐसा एकमात्र संगठन है जो विश्व को सच्चे ईश्वर व आत्मा का स्वरूप बताने के साथ ईश्वर की सच्ची उपासना करना सिखाता है जिससे मनुष्य ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार कर अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ईश्वर, वेद और ऋषि की भावनाओं को समझकर इनका प्रचार किया था और इसमें अपूर्व सफलता प्राप्त की थी। यदि यह कार्य स्वामी श्रद्धानन्द की भावनाओं के अनुरूप जारी रखा जाता तो शायद पाकिस्तान का निर्माण न होता और हमारा भारत खण्डित न होकर अखण्ड भारत बना रहता।


स्वामी श्रद्धानन्द जी का देश की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भी सराहनीय योगदान है। गांधी जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे। शायद यह कथन मात्र रहा हो। बाद में स्वामी श्रद्धानन्द जी को देश व समाज के व्यापक हित में कांग्रेस से त्याग पत्र देना पड़ा था। जिन दिनों अंग्रेजों द्वारा रालेट एक्ट को लागू किया जा रहा था, देश भर में उसका विरोध हो रहा था। उन दिनों दिल्ली में रालेट एक्ट के विरोध में आन्दोलन का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द जी के मजबूत हाथों में था। रालेट एक्ट के विरोध में दिल्ली मे एक दिन पूर्ण हड़ताल की गई। सारा बाजार व व्यवसायिक प्रतिष्ठान बन्द थे। दिल्ली में एक विशाल जलूस निकाला गया था जिसका नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द जी ने किया। यह जलूस चांदनी चैक में लालकिले की ओर बढ़ रहा था। तभी अंग्रेजों के गुरखा सैनिक सामने आये और स्वामी श्रद्धानन्द जी को आगे बढ़ने से रोक दिया। स्वामी श्रद्धानन्द जी भीड़ चीर कर सैनिको के सामने आये तो सैनिकों ने अपनी बन्दूकों की सगीने स्वामी श्रद्धानन्द जी छाती पर तान दी। निर्भीक स्वामी जी ने अपनी छाती खोली और दहाड़ लगा कर उन सैनिको को कहा था ‘‘हिम्मत है तो मेरी छाती पर गोली चलाओ।” तभी वहां एक अंग्रेज अधिकारी घोड़े पर आ पहुंचा। उसने सैनिको को बन्दूकें नीचे कर लेने को कहा। इससे एक बहुत बड़ी दुर्घटना होते होते टल गई।


इस घटना ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को दिल्ली का बेताज बादशाह बना दिया था। उनके इस शौर्य और देश पर बलिदान होने की साहसिक भावना से प्रभावित होकर जामा मस्जिद के इमाम ने उन्हें मुस्लिम धार्मिक लोगों को सम्बोधित करने के लिये आमंत्रित किया था। स्वामीजी जामा मस्जिद पहुंचे थे और उसके मिम्बर से उन्होंने वेदमन्त्र‘ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभुविथ। अघा ते सुम्नीमहे।।’ का पाठ करते हुए मुस्लिम बन्धुओं को सम्बोधित किया था। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि हम शब्द में‘ह’ और‘म’ दो अक्षर हैं। ह का अर्थ हिन्दू और म का अर्थ मुसलमान है। सभी ने उनकी इस ऊहापूर्ण बात को पसन्द किया था। स्वामी जी पहले व अन्तिम गैर मुस्लिम व्यक्ति थे जिन्हें जामा मस्जिद के मिम्बर से मुसलमानों को धार्मिक उपदेश देने का अवसर मिला। स्वामी जी ने देश की स्वतन्त्रता के लिये अनेक प्रकार से योगदान किया। स्वामी श्रद्धानन्द जी सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली के प्रधान भी रहे। उन्हीं के कार्यकाल में सन् 1925 में मथुरा में ऋषि दयानन्द के जन्म की शताब्दी मनाई गई थी। इस कार्यक्रम में लाखों लोग आये थे। व्यवस्था की दृष्टि से यह आयोजन अति सफल रहा था। इस अवसर पर प्रमुख आर्य प्रकाशक श्री गोविन्दराम जी ने सत्यार्थप्रकाश का एक सस्ता संस्करण प्रकाशित किया था। यह जन्म-शताब्दी समारोह महात्मा नारायण स्वामी जी के नेतृत्व में आयोजित किया गया था। इसके बाद शायद ऐसा कार्यक्रम आर्यसमाज के इतिहास में नहीं हुआ। आज आर्यसमाज में स्वामी श्रद्धानन्द और महात्मा नारायण स्वामी जैसा कोई नेता नहीं है। आर्यों में वह भावनायें भी नहीं हैं जो उन दिनों के आर्यों में देखने को मिलती थी।


दिनांक 23 दिसम्बर, 1926 को रूग्ण अवस्था में एक मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद ने स्वामी जी के दिल्ली स्थिति निवास पर पहुंच कर धोखे से उन्हें कई गोलियां मारकर शहीद कर दिया। मनुष्य मर सकता है परन्तु सत्य नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी आज भी हमारे दिल में जीवित हैं। आर्यसमाज को स्वामी श्रद्धानन्द जी का अनुकरण करना चाहिये। स्वामी जी को हमारा नमन हैं। हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य

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