मनुष्य को अपने सभी शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है”

 “मनुष्य को अपने सभी शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है”

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हमारा मनुष्य जन्म हमें क्यों मिला है? इसका उत्तर है कि हमने पूर्वजन्म में जो कर्म किये थे, उन कर्मों में जिन कर्मों का भोग हम मृत्यु के आ जाने के कारण नहीं कर सके थे, उन कर्मों का फल भोगने के लिये हमारा यह जन्म, जिसे पूर्वजन्म का पुनर्जन्म भी कहते हैं, होता है। यह सिद्धान्त तर्क, युक्ति एवं शास्त्रों के प्रमाणों से सत्य सिद्ध होता है। योगदर्शन में ऋषि पतंजलि जी ने कहा है कि हमारे प्रारब्ध के कर्मों के अनुसार ही हमारे इस जन्म के जाति, आयु और भोग निर्धारित होते हैं। जाति का अर्थ मनुष्य, पशु, पक्षी व नाना प्रकार के कीट व पतंग आदि जातियों से है। मनुष्य जाति पूरी की पूरी एक ही जाति है। इस मनुष्य जाति में स्त्री व पुरुष नाम के दो प्राणी होते हैं। दोनों की ही जाति मनुष्य होती है तथा लिंग भेद से एक स्त्री व दूसरा पुरुष कहलाता है। समाज में जो जन्मना जातियां प्रचलित हैं वह मध्यकाल में मनुष्यों द्वारा अज्ञानता से प्रचलित हुई जातियां हैं। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के अनुसार मनुष्य अपने अपने गुण, कर्म व स्वभाव के भेद से चार वर्ण वाले होते हैं जिनके भेद हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र।


ब्राह्मण व क्षत्रिय आदि जातियां नहीं हैं अपितु यह वर्ण हैं जिसका निर्धारण आदि व वैदिक युग में गुण, कर्म व स्वभाव से हुआ करता था। यह वर्ण गुरुकुल के आचार्य राज्यव्यवस्था से निर्धारित किया करते थे। सभी वर्णों के कर्म भी अलग अलग होते हैं। इनको सभी लोगों द्वारा किया जाता था। आजकल सभी मनुष्य अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त कर कोई भी कर्म करने व न करने में स्वतंत्र हैं। अतः आजकल वर्ण व्यवस्था समाप्त प्रायः हो चुकी है। जातियां तो पृथक पृथक नहीं होती हैं, मनुष्य जाति अपने आप में एक ही जाति है क्योंकि इसमें सभी मनुष्यों का उत्पत्ति का तरीका तथा उनकी आकृतियां व कर्मों में समानता पायी जाती है। अतः मनुष्यों में जो जन्मना जातियां प्रचलित हैं वह वेद व शास्त्रों की भावना व उपदेशों के विरुद्ध व अप्रासंगिक हैं। आजकल समाज में अन्तर्जातीय विवाह हो रहे हैं। इससे भी जाति का निरर्थक होना विदित होता है। मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव, अनेक प्रकार की सुन्दर व असुन्दर आकृतियां, स्वास्थ्य व बल आदि का ही महत्व होता है। अतः मनुष्य को वेदों की शिक्षाओं को जानना व पालन करना चाहिये। इसी से मनुष्य समाज उन्नत होता है तथा इसी से सुख व शान्ति का विस्तार होता है। ऐसा ही सृष्टि के आदि काल से महाभारत युद्ध के समय तक देश में होता रहा है। रामायण एवं महाभारत नाम के इतिहास ग्रन्थों में अनेक मनुष्यों व सामाजिक पुरुषों का वर्णन आता है परन्तु कहीं किसी के साथ कोई जाति सूचक शब्द प्रयुक्त नहीं होता। हम सब उन्हीं के वंशज और वह सब हमारे पूर्वज थे। जब पूर्वजों के नाम बिना जाति नाम वाले होते थे तो हमें भी अपने नाम के साथ किसी भी प्रकार का उपनाम जाति के नाम पर प्रयोग नहीं करना चाहिये। हमें सार्थक नाम रखने चाहियें और जीवन में ज्ञान, कर्म, बल व स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रकृष्ट मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये।


योगदर्शन ने पूर्वजन्म में किये कर्मों पर आधारित प्रारब्ध के आधार पर हमें इस जन्म में जाति मिलने की जो बाद कही है, वह मनुष्य, पशु आदि व इतर प्राणियों के भेद से कही गई है। हमारी इस जन्म में आयु का आधार मुख्यतः हमारा प्रारब्ध ही होता है। हमें अपने मनुष्य जन्म में कर्म करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। इसका भी हमारी आयु पर प्रभाव पढ़ता है। श्रेष्ठ व उत्तम कर्मों से आयु को स्थिर व बढ़ाया जा सकता है और निन्दित व अशुभ कर्मों से आयु कम भी होती है। ऐसा नहीं है कि हम कुछ भी कैसा भी करें, कुछ भी अच्छा व बुरा खायें, रहन सहन में भी स्वेच्छाचारिता करें, तो इसका प्रभाव हमारी आयु पर नहीं होगा। हमारे सभी कर्मों का किसी न किसी रूप में हमारी आयु पर प्रभाव पड़ता है। अतः हमारा कर्तव्य होता है कि हम प्रारब्ध के आधार पर परमात्मा से मिली आयु को इस जन्म में अपने सद्कर्मों से स्थिरता प्रदान करें, उसका रक्षण करें व उसकी संवृद्धि करें। हमारा आयु का मुख्य कारण हमारे पूर्वजन्म के कर्म अर्थात् प्रारब्ध ही हुआ करता है जिसके आधार पर परमात्मा हमारी आयु का निर्धारण करते हैं। हमारे जन्म का तीसरा आधार हमारे पूर्वजन्म के कर्म व प्रारब्ध के आधार पर भोगों का प्राप्त होना होता है। भोग हमें प्राप्त होने वाले सुख व दुःख को कहा जाता है। हमें जो सुख व दुःख प्राप्त होते हैं वह प्रायः हमारे प्रारब्ध के कर्मों के आधार पर होते हैं। इसके साथ हमें अपने इस जन्म के क्रियमाण कर्मों का सुख व दुःख भी मिला करता है। सुख दुःख के अन्य कारण आधिदैविक, आधिभोतिक तथा अध्यात्मिक भी होते हैं। हमारा यह लिखने का आशय यही है कि हमारे जीवन में कर्म का महत्व है और इसी आधार पर हमें जन्म मिलने सहित सुख व दुःखों की प्राप्ति होती है। अतः हमें कर्म विज्ञान को जानने का प्रयत्न करना चाहिये जिसके लिये हमें वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित विशुद्ध मनुस्मृति तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करना चाहिये। ऐसा करके हम अपने जीवन में दुःखों को कम तथा सुखों को बढ़ा सकते हैं।


हमारे जीवन में वेदादि शास्त्रों तथा उनकी सत्यमान्यताओं का मुख्य स्थान होता है। शास्त्रीय वचन है‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। इसका अर्थ है कि मनुष्य को अपने किए शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है। अतः मनुष्य को शुभ व अशुभ कर्मों का भेद ज्ञात होना चाहिये। शुभ कर्मों में ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, सद्व्यवहार, सदाचारण, परोपकार व सुपात्रों को दान आदि का देना आदि कर्म आते हैं। इनके विपरीत जो कर्म होते हैं वह अशुभ व पाप कर्म कहलाते हैं। उनका परिणाम दुःख होता है। शुभ कर्मों को न करने से भी दुःख मिलता है। हम मनुष्य जीवन में इस पृथिवी, जगत व अन्यान्य प्राणियों से अनेक लाभ प्राप्त करते हैं। हमारा भी कर्तव्य होता है कि हम भी उन सबके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए उन सबको कुछ न कुछ देने का प्रयत्न करें। ऐसा करने से ही हम अन्यों के उपकारों व ऋणों से मुक्त होते हैं। जो व्यक्ति दूसरों का जितना उपकार करता है उसको ईश्वर की व्यवस्था से उतना ही अधिक सुख प्राप्त होता है। अतः हमें ज्ञान प्राप्ति सहित ईश्वर के उपकारों को जानकर भी उसके प्रति कृतज्ञ होकर उसकी उपासना व भक्ति करनी चाहिये। इन कार्यों सहित हमें देश व समाज हित एवं सभी मनुष्यों व प्राणियों के हित व सुख की कामना भी करनी चाहिये। ऐसा करके ही हम स्वयं सुखी होकर उन्नति को प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा जीवन ही वस्तुतः प्रशंसनीय जीवन होता है।


कर्म का फल सभी को भोगना पड़ता है। इसके क्षमा होने का विधान सत्शास्त्रों में नहीं है। राम, कृष्ण व दयानन्द जैसे महापुरुष व महात्मा भी अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के फल भोगने से बचे नहीं थे। रामचन्द्र जी के जीवन में आता है कि जब सीता माता का रावण ने हरण कर लिया तो वह इससे अत्यन्त व्यथित हुए। इस अवस्था में वह लक्ष्मरण जी को एक स्थान पर कहते हैं कि मैंने पूर्वजन्म में अवश्य ही कुछ अशुभ कर्म किये थे जिसके कारण मुझे पिता से वनवास मिला और यहां भी मेरी पत्नी का अपहरण हो गया। इस घटना को प्रायः सभी स्वीकार करते हैं। इससे अनुमान होता है कि कर्म की गति को समझना कठिन है। बहुत से महापुरुष यह भी कहते हैं कि जीवन में यदि कभी छोटा या बड़ा दुःख आये जिसका प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कारण समझ में न आये तो यह समझ लेना चाहिये कि यह किसी पूर्वजन्म के कर्मों का या किन्हीं विस्मृत कर्मों का फल हो सकता है जो परमात्मा की व्यवस्था से हमें मिल रहा है। योगेश्वर श्री कृष्ण तथा ऋषि दयानन्द के संघर्षपूर्ण जीवन को देखकर भी लगता है कि इनका जीवन भी अत्यन्त संघर्षाें व दुःखों की छाया से युक्त था। इसके लिए इनका पूर्वजन्म व उसमें किये कर्मों को ही स्वीकार करना होगा।


हमने आर्यसमाज में अनेक विद्वानों से एक ऐतिहासिक घटना को सुना है। इसमें वह बताते हैं कि एक बार एक प्रसिद्ध नामी डाकू अपने साथियों के साथ एक धनवान व्यक्ति के घर पर डाका डालने गया। उस धनवान का घर एक मन्दिर के साथ बना हुआ था। सभी डाकू मन्दिर में पहुंच गये। सबके पास हथियार थे। रात्रि का समय था। उस समय मन्दिर में कथा चल रही थी। विद्वान उपदेशक कर्म फल सिद्धान्त को समझाते हुए शास्त्रीय प्रमाण देकर बता रहे थे कि मनुष्य को जन्म जन्मान्तर में किये हुए अपने शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। बिना भोगे कर्म छूटता नहीं है। इस उपदेश को जब प्रमुख डाकू ने सुना तो वह अपने गुप्त स्थान से कथा में आकर बैठ गया। उस डाकू को स्थानीय लोग पहचानते थे अतः सभी लोग एक एक करते भाग खड़े हुए। कुछ ही देर में ऐसा समय आया कि वक्ता व डाकू के अतिरिक्त वहां कोई नहीं था। डाकू ने वक्ता को कहा कि यदि कोई मनुष्य हजार अच्छे काम करे और कुछ थोड़े से बुरे काम करे तो क्या फिर भी उसे उन बुरे कर्मों का फल भोगना पडे़गा? वक्ता ने निर्भिकतापूर्वक उत्तर दिया कि मनुष्य को अपने प्रत्येक शुभ कर्म का फल सुख के रूप में तथा प्रत्येक अशुभ व पाप कर्म का फल दुःख के रूप में अलग अलग भोगना पड़ता है। बिना भोगे कोई कर्म छूटता वा क्षय को प्राप्त नहीं होता। इससे उस डाकू का हृदय परिवर्तन हो गया। उसने चोरी व डाका डालना छोड़ दिया और धर्म की दीक्षा लेकर धर्म कार्य करने लगा। अध्ययन करते हुए पाठकों को ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। डाकू रत्नाकर को पाप पुण्य का रहस्य विदित होने पर वह ऋषि बाल्मीकि बन गये थे। इस कथा को भी अधिकांश लोगों ने पढ़ा है। यह भी एक दृष्टान्त है जिससे हमें सद्कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।


कर्म फल सिद्धान्त का निष्कर्ष यह है कि हम जो भी शुभ व अशुभ कर्म करते हैं, इन्हें ही पुण्य व पाप कर्म भी कहा जाता है, इनका फल हमें जन्म जन्मान्तर में अवश्य ही भोगना पड़ता है। असत्, पाप व अशुभ कर्मों का फल दुःख तथा सत्, पुण्य व शुभ कर्मों का फल सुख व आनन्द होता है। इस रहस्य को जानकर हमें सत्कर्मों का आचरण तथा असत् कर्मों का त्याग करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने इसे ही आर्यसमाज का चतुर्थ नियम भी बनाया है। नियम है ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ ऐसा करके हमारा जीवन सफलता को प्राप्त हो सकता है। हमें मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति सहित अनिवार्य रूप से ऋषि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का बार बार अध्ययन व मनन करना चाहिये। ऐसा करके ही हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। ओ३म् शम्।


-मनमोहन कुमार आर्य

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