कविरत्न प्रकाश जी के काव्य में ऋषि दयानंद 


कविरत्न प्रकाश जी के काव्य में ऋषि दयानंद 
                  
     कविरत्न प्रकाश जी के नाम से आर्य समाज का जन जन परिचित है| आर्य समाज के कवियों और भजनोपदेशकों में आपका विशेष स्थान है| आज आपके देहांत को लगभग पचास वर्ष होने जा रहे हैं किन्तु आर्य समाज में आज भी प्रकाश जी के समकक्ष का कोई कवि अथवा भाजोपदेशक नहीं मिलता| वह शास्त्रीय संगीत के भी धनी थे| प्रकाश जी के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा जा सकता है कि आप अपने आप में ही एक पूर्ण कवि तथा पूर्ण भजनोपदेशक थे| १९२५ को मथुरा में संपन्न आर्य समाज के अर्धशताब्दी के अवसर पर आपने एक गीत लिखा “वेदों का डंका आलम में बजवा दिया ऋषि दयानंद ने हर जगह ओउम् का झंडा फिर फहरा दिया ऋषि दयानंद ने” इस गीत का गायन आपने अर्धशाताव्ब्दी समारोह में किया तो वहां उपस्थित जन समुदाय में आपके नाम की धूम मच गई| इस गीत का प्रणयन हुए आज ९५ वर्ष बीत चुके हैं किन्तु आज भी इस गीत की शक्ति ज्यों की त्यों बनी हुई है| आर्य समाज के प्राय: प्रत्येक कार्य क्रम में इस गीत को गाया जाता है और आर्य वीर दल का तो यह गीत मुख्य गीत बन गया है| 
      आपका मुझ से विशेष स्नेह था और आपका आशीर्वाद मुझे मिलता ही रहता था| आपके पत्र मुझे मिलते ही रहते थे| मेरे विवाह पर जो सेहरा और काव्यमयी उपदेशात्मक आशीर्वाद प्रकाशित हुआ था, वह भी आप ही ने लिखा था| इन दोनों का गायन भी आर्य समाज के उच्चकोटि के भजनोपदेशक पंडित पन्नालाल पीयूष जी ने मेरे विवाह के अवसर पर भंडारा(महाराष्ट्र)में किया था| पंडित जी मुझे जो पत्र लिखते थे, वह आप स्वयं अपने हाथों से लिखते थे जबकि गठिया के कारण आपकी अंगुलियाँ मुड चुकीं थीं किन्तु फिर भी किसी प्रकार पत्र लिखने के लिए कलम को पकड़ ही लेते थे| इस प्रकार के उच्चकोटि के कवि के काव्य में महर्षि दयानंद जी के प्रति कैसी आस्था थी, उसे हम आगामी पंक्तियों  में उनके ही काव्यांश से स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे|
    प्रकाश जी को स्वामी जी के आगमन से पूर्व की अवस्था का वर्नान करते हुए बहुत भारी कष्ट का अनुभव हो रहा है| वह अंधविश्वासों से भरी इस जाति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि इस जाति में बढ़ रहे इस अँधेरे को स्वामी दयानंद जी ने ही दूर किया| यथा:-
                        अज्ञान  अविद्या की  हर सूं  घन  घोर  घटाएं  छ्यीं थीं,
                      कर नष्ट उन्हें जग में प्रकाश फैला दिया ऋषि दयानंद ने ||
    इन पक्तियों के माध्यम से प्रकाश जी जन जन को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि स्वामी जी के आगमन से पूर्व यह देश अविद्या, अज्ञान के अंधकार में डूब रहा था| अन्धविश्वास , रूढिया और कुरीतियाँ इस देश का नाश कर रहीं थीं| स्वामी जी ने आकर वेद और सत्यार्थ प्रकाश के प्रचार के माध्यम से इन्हें नष्ट कर दिया और सब और वेद का प्रकाश फैला दिया| 
      इस गीत की ही आगामी पंक्तियों  में कवि ने विदेशियों के आक्रमण और यहाँ पर अपनी सत्ता स्थापित कर यहाँ के लोगों को लुटना, मारना, तथा इनको धर्मभ्रष्ट कर इनके धर्म को परिवर्तन करने का काम आरम्भ कर रखा था| इस सम्बन्ध में कवि के उद्गार देखते ही बनते हैं| यथा:-
                                  घुस गए  लुटेरे  घर में थे, सब माल  लूट  कर  ले जाते,
                      सद शुक्र हाथ सोतों का पकड़ बिठला दिया ऋषि दयानंद ने||
     इन पंक्तियों ने स्पष्ट कर दिया है कि विदेशी लुटेरे इस देश के शासक बन गए थे और यहाँ का धन, सम्पती आदि लूट लूट कर अपने देश में लेकर जा रहे थे| स्वामी दयानंद जी ने जब यह सब देखा तो उन्होंने इस प्रकार से जन जन का आह्वान् किया कि यह सोई हुई जाति न केवल उठ कर बैठ गई बल्कि उसने शस्त्र उठा कर इस देश की स्वाधीनता के प्रयास भी आरम्भ कर दिए|
     विदेशियों के प्रभाव में आकर उस समय के भारतीय लगातार अपने धर्म कर्म को छोड़ कर दूसरों के धर्म को अपना रहे थे| कोई कब्रों पर सर झुकाने लगा था तो कोई गिरजा को ही अपने धर्म का केंद्र मानने लगा था| देश में अनेक मत मतान्तर फ़ैल रहे थे, जिससे कवि को भारी आघात लगता है| इसी टीस को ही कवि यहाँ प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि:-
                        कब्रों में सर को  पटकते थे कोई  दैरो  हरम में भटकते  थे|
                      दे ज्ञान उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखला दिया ऋषि दयानंद ने||
     कवि कहना चाहते हैं कि इस जाति का इतना पतन हो गया था कि यहाँ के अधिकाँश लोग कब्रों में ही ईश्वर को ढूंडने लगे थे और अनेक लोग गैरों के धार्मिक स्थलों पर भटकते हुए स्वयं को ही भूल चुके थे| इस समय ही स्वामी दयानंद जी ने आकर उन्हें वेद का ज्ञान दिया और मुक्ति के सच्चे मार्ग को बताया|
     यह वह समय था जब लोग इस बात को भूल गए थे कि कभी वह विश्व गुरु थे अत: इस समय स्वामी जी पूरे विश्व को वेद का मार्ग बताया करते थे| इस कारण कवि को वेदना का होना स्वाभाविक भी था| अपनी इस पीड़ा का वर्णन किये बिना वह कैसे रह सकते थे? इस का वर्णन वह आगामी पंक्तियों में करते हुए कहते हैं कि:-
                        सब छोड़ चुके थे धर्म कर्म गौरव गुमान ऋषि मुनियों का| 
                      फिर संध्या हवन यज्ञ करना सिखला दिया ऋषि दयानंद ने ||
      भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली इतनी उन्नत थी कि विदेशियों को भी अच्छी तथा उत्तम शिक्षा पाने के लिए इस देश में ही आना होता था| इस बात पर कवि को क्षोभ भी है कि उस शिक्षा व्यवस्था को विदेशियों ने ध्वस्त कर दिया| उनके पीछे लगकर हमने उस शिक्षा व्यवस्था को त्याग दिया| इस तथ्य पर कवि खुशी भी प्रकट कर रहे हैं कि उसी पुरातन शिक्षा प्रणाली को(जिसे पाने के लिए अनेक विदेशी भारत आया करते थे) स्वामी दयानंद जी ने आकर पुनर्जीवित कर दिया| स्वामी जी ने इस प्राचीन शिक्षा प्रणाली को न केवल पुनर्जीवित ही किया अपितु इस का खूब प्रचार प्रसार भी किया और अपने द्वारा सथापित आर्य समाज को भी इस कार्य का अधिभार दिया, जिसने अनेक स्थानों पर प्राचीन शिक्षा केंद्र स्थापित भी किये और आज भी कर रहा है| इस बात को भी कवि की नजरें कैसे देखने से रह सकती थीं? अत: इस सम्बन्ध में कवि लिखते हैं:-
                        विद्यालय गुरुकुल खुलवाये कायम हर जगह समाज किये|
                      आदर्श  पुरातन  शिक्षा का बतला दिया ऋषि  दयानंद ने||
     इस बात पर कवि को गर्व है कि स्वामी जी ने इस देश में आकर स्थान स्थान पर विद्यालय और गुरुकुल आरम्भ करवा दिए| इस कार्य को तीव्र गति मिल सके, इसलिए स्थान स्थान पर आर्य समाजों की स्थापना भी कर दी| इस प्रकार स्वामी जी ने देश की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को एक बार फिर से स्थापित कर दिया| 
     कवि इस तथ्य को आगे बढाते हुए महर्षि के कार्यों की चर्चा करते हुए आगे कह रहे हैं कि जिस जाति के लिए स्वामी जी ने इतना कार्य किया, वह जाति स्वामी जी को समझ ही नहीं पाई| इस कारण उन्हें अपना शत्रु समझ कर उन्हें विष दे कर उनका बलिदान कर दिया किन्तु इतना कुछ होने पर भी स्वामी जी ने कुछ भी कष्ट का अनुभव नहीं किया और विष देने वाले को भी अच्छी शिक्षा देते हुए क्षमा कर दिया तथा हंसते हंसते अपने जीवन को इस उत्तम कार्य के लिए बलिवेदी की भेंट कर दिया| इस सम्बन्ध में कवि कहते हैं कि:-
                        बलिदान किया बलिवेदी पर जीवन “प्रकाश” हंसते हंसते |
                      सच्चे रहबर  बनकर  फिर चेता दिया ऋषि दयानंद ने ||
     इस प्रकार सन् १९२५ ईस्वी में रचे गए इस गीत से कवि ने जाति को झिन्झोडते हुए उसकी कमजोरियों पर न केवल प्रकाश ही डाला है अपितु उन्हें चेताया भी है और कहा है कि यदि आप कल्याण चाहते हो तो निश्चय ही आपको स्वामी जी के बताये वेद मार्ग को पकड़ना होगा| अन्य कोई ऐसा मार्ग नहीं है, जो आपको सुख दे सके| स्वामी जी ने वेद धर्म को अपनाने के लिए जन जन को प्रेरित किया है| इसलिए वेद का नित्य स्वाध्याय करो और कल्याण का मार्ग पकड़ो|                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
               कवि के शब्दों में स्वामी दयानंद सरस्वती जी भारत ही नहीं विश्व भर के लोगों को आह्वान् कर रहे हैं कि हे विश्व के लोगो! वेदों की अत्यंत मीठी तान को सुनो, सुनो ही नहीं लगातार इस तान को गाते रहो, बजाते रहो| यह ऐसी मधुर ध्वनि है जिसे गहरी निद्रा में सो रहे महा आलसी लोग भी जाग जाते हैं| इसलिए विश्व के हे प्राणी! वेद रूपि इस वीणा को निरंतर गाते बजाते रहो| इसके लिए कवि ने किस सुन्दरता के साथ इस पद का विन्यास किया है, अवलोकनीय है| :-
                     मधुर वेद  वीणा बजाते  चला जा जो सोते हैं उनको  जागाये  चला जा|
                कुकर्मों के  कीचड़ में जो फंस रहे थे  अविद्या  अँधेरे में जो धंस रहे थे||
                उन्हें सत्य पथ तु बताये चला जा.........
       कवि स्वामी जी के उपदेशों को संदेशों को समझाते हुए कहते हैं कि उस प्रभु का कोई आकार नहीं होता| इस कारण ईश्वर संसार के कण कण में व्यापक होने के कारण हम सब में समान रूप में बसा हुआ है| इस नाते से हम सब भाई बहिन हैं| यह ही कारण है कि हम में से पराया कोई नहीं है| जब सब में ही हमें अपना चित्र दिखाई देने लगेगा तो फिर हम किसे शत्रु कहेंगे| फूट का कोई कारण ही नहीं रहेगा| इस बात को बड़े गर्व से कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:-
                 निराकार प्रभु है जगत् में समाया सभी फिर हैं अपने न कोई पराया|
                घृणा फूट मन से भागाये चला जा............
       इस गीत के माध्यम से कवि ने सत्य पर आचर्ण करने का अत्यंत ही सुन्दर उपदेश दिया है| कवि का कहना है कि हे मानव! कभी किसी प्रकार के लालच में आकर किसी की भी चोरी मत करना| इतने मात्र से ही कवि को संतोष नहीं हुआ, वह आगे आह्वान् करते हुए कहते हैं कि कभी कोई इस प्रकार का काम भी तुम मत करना, जिस से किसी के दिल को ठेस लगे या किसी का दिल दुखे अथवा किसी को कष्ट अनुभव हो| इसलिए हे मानव! तु ऋषि का यह सन्देश प्रत्येक नगर, गाँव तथा प्रत्येक व्यक्ति के निवास तक पहुंचा दे| इस बात को प्रकाश जी ने इन शब्दों के साथ व्यक्त किया है:-
                 चुराना नहीं लोभ वश धन किसी का दुखाना नहीं तुम कभी मन किसी का 
                यह सन्देश घर घर पहुंचाए चला जा.........
       हे मानव! विश्व भर में अनेक भेदभावों के कारण जो अन्याय की अवस्था बन गई है, इस कारण इस संसार की अवस्था एक विश्व संग्राम जैसी ही बन चुकी है, जिसकी भीषण ज्वाला में जलकर यह सब कुछ नष्ट हो रहा है| इसलिए हे मानव! उठ ऋषि के सन्देश को स्वयं भी ग्रहण कर तथा पूरे विश्व को भी मानवता का यह सन्देश पढ़ा कि आर्य समाज के बताये वेद मार्ग पर चलने से ही सब का कल्याण संभव है| इस मार्ग पर चलने से ही यह संसार विनाश लीला से बच सकता है| अन्य कोई मार्ग नहीं| इस बात को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:-
   
                     जगत् युद्ध की आग मे जल रहा है प्रबल चक्र अन्याय का चल रहा है
                मनुजता जगत् को सिखाये चला जा........
      कवि कितना सुंदर सन्देश दे रहा है कि इस समय इस संसार में युद्ध की सी अवस्था बन रही है| सब लोग स्वार्थ में इस प्रकार से डूब रहे हैं कि सब और अन्याय ही अन्याय का राज्य है| इसलिए हे मनुष्य तु ऋषि की बात को मानते हुए वेद की शिक्षाओं पर आचरण करते हुए पूरे संसार को मनुष्यता का सन्देश दे|
      इस के साथ ही कवि यह भी कामना करता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती के ऋण से मुक्त होने के लिए पूरे संसार को कृण्वन्तो विश्वार्यम् की उत्तमोत्तम भावना को बढाऑ| पूरे जगत् में जब आर्यों क सन्देश प्रचारित होगा तथा उस सन्देश का आचरण विश्व के लोग करने लगेंगे तो इस में ही आप सब के कर्तव्यों की इतिश्री होगी तथा इस प्रकार ऋषि के बताये ध्येय को पाकर, उनके कर्ज को चुका कर ही यहाँ से हमने जाना है| इस भावना को कवि इस प्रकार प्रकट कर रहे हैं:-
                 अखिल विश्व में भावना भव्य भरकर स्वकर्तव्य  उद्देश्य को पूर्ण करके 
                तु ऋषि ऋण का ऋण चुकाए चका जा........
      अंत में कवि प्रकाश जी जन जन को यह आह्वान् करते हए कह रहे हैं कि हे मानव! स्वामी दयानंद सरस्वती का यह शुभ सन्देश इस जगत् के प्रत्येक ग्राम, नगर, प्रांत, देश तथा पूरे के पूरे विश्व के लोगों को देते हुए, सब स्थानों पर उस ऋषि की जय जय कार कर:-
                     “प्रकाशार्य” ग्रामों गली हाट घर में नगर देश देशान्तरों विश्व भर में 
                दयानंद की जय मनाये चला जा...........
      कवि छंद और अलंकारों से अपने काव्य को सुन्दर, सुमधुर, सुपाठ्य बनाकर पाठकों को आकर्षित करने की अत्यधिक क्षमता रखते हैं| उन्हें छंद अलंकारों का अत्यन्त ही उत्तम ज्ञान है| इसलिए छंद अलंकारों का प्रयोग करते हुए सोने पर सुहागे का कार्य किया है| इतना ही नहीं वह कहावतों और लोकोक्तियों के महत्त्व और प्रयोग की आवश्यकताओं को समझते हुए कहावतों और लोकोक्तियों के प्रयोग में भी कहीं कोई कमीं नहीं रहने देते| इस कारण जो तथ्य वह अपने पाठकों को समझाना चाहते थे, उसमें वह पूरी प्रकार से सफल हुए हैं|
डा. अशोक आर्य  <a href="https://youtu.be/Dbi3x00NHgk">https://youtu.be/Dbi3x00NHgk</a>
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