ईश्वर आनन्द स्वरूप है - कैसे कह सकते हैं


प्रश्न (17) ईश्वर आनन्द स्वरूप है - कैसे कह सकते हैं ? आनन्द की अनुभूति किसको होती है ?


उत्तर - आनन्द की अनुभूति आत्मा को होती है । इन्द्रियों से जो तृप्ति होती है उसको सुख कहते हैं । जो इन्द्रियों को अच्छा लगता है उसको सुख कहते हैं ; जो आत्मा को अच्छा लगता है वह आनन्द है । सुख शरीर को मिलता है । आनन्द आत्मा की भूख है जो आनन्द की अनुभूति से मिटती है ।


प्रकृति से जो सुख मिलता है उसमें कहीं न कहीं दुःख मिश्रित होता है । अतिसुख अंत में दुःख का कारण बन जाता है, परन्तु  आनंद में जब आत्मा डूबता है तो डूबता ही चला जाता है । उस आनन्द का वर्णन किसी भी भाषा में करना असंभव है । जैसे सुख का उल्टा दुःख होता है, वैसे आनंद का उल्टा शब्द कोई नहीं होता ।


आनन्द का लुफ्त (आनन्द) आत्मा को अनादि काल से अनेक बार मिला है, तभी तो वह हर योनि में उसे तलाशता रहता है और हर सम्भव प्रयत्न करता है । सांसारिक सुख मिलने पर भी वह नाखुश रहता है । वह क्या वस्तु है जिसे वह हर जन्म में ढूंढता रहता है ? आनन्द - केवल आनन्द ! ईश्वर के पास आनन्द का अनन्त खजाना है । ईश्वर पूर्ण है और उसे  लुटाता रहता है । जो लूट सके उसे मिलता है । कैसे ? इसे समझना होगा ।


जो वस्तु जिसके पास होती है या जहाँ होती है, उसके पास रहने वाले को उसकी प्राप्ति होती है । ईश्वर के पास केवल आनन्द ही आनन्द है   "स्व१र्यस्य च केवलम्"  (अथर्ववेद-१०.८.१), अतः उसके समीप जो होता है वह आनन्दित होता है, जैसे : अग्नि से समीप बैठेंगे तो ही तपिश का अनुभव होता है, शरीर में गर्मी आती है, उसी प्रकार बर्फ के पास बैठने से ठण्डक मिलती है । ईश्वर की उपासना से जो वस्तु (गुण) ईश्वर के पास है वही प्राप्त होती है अर्थात् आनन्द के भण्डार से आनन्द ही प्राप्त होता है । जड़ प्रकृति के सम्पर्क से जड़ता का प्रभाव पड़ता है और चेतन के संस्पर्श से उसके गुण-कर्म-स्वभाव का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । जीव और ईश्वर दोनों चेतन सत्ता हैं । जीव अल्पज्ञ है, ईश्वर सर्वज्ञ है । जीव सत् - चित् है, आनन्द-रहित है ; परन्तु ईश्वर सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, अतः ईश्वर में आनन्द है - "स्व१र्यस्य च केवलम्" । यह वेदवाणी है कि ईश्वर में आनन्द ही आनन्द है । जो जीवात्मा उसके सम्पर्क में आता है वह भी आनन्दित हो जाता है । योग-साधना से समाधि-अवस्था में आनन्द का अनुभव हो जाता है यह प्रमाणित है । ऋषि-मुनि-आप्तपुरुषों के वाक्यों को भी प्रमाण में लाया जा सकता है, अतः ईश्वर में आनन्द है । वह सब सद्गुणों-सद्कर्मों-सद्स्वभावों का  भण्डार है, अतः आनन्दानुभव जो आत्मा की भूख है, वह उस पूर्ण ईश्वर के संस्पर्श (उपासना) से ही सम्भव है क्योंकि  'मन्द्र:' (ऋग्वेद ४.९.३)  अर्थात् ईश्वर आनन्दस्वरूप है । 


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