दलित समाज और ईसाई मिशनरी  


दलित समाज और ईसाई मिशनरी  


भाग 1 


डॉ विवेक आर्य 


पिछले कुछ दिनों से समाचार पत्रों के माध्यम से भारत में दलित राजनीती की दिशा और दशा पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला। रोहित वेमुला, गुजरात में ऊना की घटना, महिशासुर शहादत दिवस आदि घटनाओं को पढ़कर यह समझने का प्रयास किया कि इस खेल में कठपुतली के समान कौन नाच रहा है, कौन नचा रहा है, किसको लाभ मिल रहा है और किस की हानि हो रही हैं। विश्लेषण करने के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भारत के दलित कठपुतली के समान नाच रहे है, विदेशी ताकतें विशेष रूप से ईसाई विचारक, अपने अरबों डॉलर के धन-सम्पदा, हज़ारों कार्यकर्ता, राजनीतिक शक्ति, अंतराष्ट्रीय स्तर की ताकत, दूरदृष्टि, NGO के बड़े तंत्र, विश्वविद्यालयों में बैठे शिक्षाविदों आदि के दम पर दलितों को नचा रहे हैं और इसका तात्कालिक लाभ भारत के कुछ राजनेताओं को मिल रहा है और इससे हानि हर उस देशवासी की की हो रही हैं जिसने भारत देश की पवित्र मिटटी में जन्म लिया है। 


हम अपना विश्लेषण 1947 से आरम्भ करते है। अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने पर अंग्रेज पादरियों ने अपना बिस्तर-बोरी समेटना आरम्भ ही कर दिया था क्योंकि उनका अनुमान था कि भारत अब एक हिन्दू देश घोषित होने वाला है। तभी भारत सरकार द्वारा घोषणा हुई कि भारत अब एक सेक्युलर देश कहलायेगा। मुरझायें हुए पादरियों के चेहरे पर ख़ुशी कि लहर दौड़ गई। क्योंकि सेक्युलर राज में उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात संसार में शक्ति का केंद्र यूरोप से हटकर अमेरिका में स्थापित हो गया। ऐसे में ईसाईयों ने भी अपने केंद्र अमेरिका में स्थापित कर लिए। उन्हीं केंद्रों में बैठकर यह विचार किया गया कि भारत में ईसाइयत का कार्य कैसे किया जाये। भारत में बसने वाले ईसाईयों में 90% ईसाई दलित समाज से धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने थे। इसलिए भारत के दलित को ईसाई बनाने के लिए रणनीति बनाई गई। यह कार्य अनेक चरणों में आरम्भ किया गया।
 
1.   शोध के माध्यम से शैक्षिक प्रदुषण


ईसाई पादरियों ने सोचा कि सबसे पहले दलितों के मन से उनके इष्ट देवता विशेष रूप से श्री राम और रामायण को दूर किया जाये।  क्योंकि जब तक राम भारतियों के दिलों में जीवित रहेंगे तब तक ईसा मसीह अपना घर नहीं बना पाएंगे। इसके लिए उन्होंने सुनियोजित तरीके से शैक्षिक प्रदुषण का सहारा लिया। विदेश में अनेक विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर श्री राम और रामायण को दलित और नारी विरोधी सिद्ध करने का शोध आरम्भ किया गया। विदेशी विश्वविद्यालयों में उन भारतीय छात्रों को प्रवेश दिया गया जो इस कार्य में उनका साथ दे। रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, कांचा इलैयह आदि इसी रणनीति के पात्र हैं। कुछ उदहारण देकर हम सिद्ध करेंगे कि कैसे श्री राम जी को दलित विरोधी, नारी विरोधी, अत्याचारी आदि सिद्ध किया गया। शम्बूक वध की काल्पनिक और मिलावटी घटना को उछाला गया और श्री राम जी के शबरी भीलनी और निषाद राजा केवट से सम्बन्ध को अनदेखी जानकर करी गई। श्री राम को नारी विरोधी सिद्ध करने के लिए सीता की अग्निपरीक्षा और अहिल्या उद्धार जैसे काल्पनिक प्रसंगों को उछाला गया जबकि दासी मंथरा और महारानी कैकयी के साथ वनवास के पश्चात लौटने पर किये गए सदव्यवहार और प्रेम की अनदेखी करी गई। वीर हनुमान और जामवंत को बन्दर और भालू कहकर उनका उपहास किया गया जबकि वे दोनों महान विद्वान्, रणनीतिकार और मनुष्य थे। इन तथ्यों की अनदेखी करी गई। रावण को अपने बहन शूर्पनखा के लिए प्राण देने वाला भाई कहकर महिमामंडित किया गया श्री राम और उनके भाइयों को राजगद्दी से बढ़कर परस्पर प्रेम को वरीयता देने की अनदेखी करी गई। श्री कृष्ण जी के महान चरित्र के साथ भी इसी प्रकार से बेईमानी करी गई। उन्हें भी चरित्रहीन, कामुक आदि कहकर उपहास का पात्र बनाया गया। इस प्रकार से नकारात्मक खेल खेलकर भारतीय विशेष रूप से दलितों के मन से श्री राम की छवि को बिगाड़ा गया। 


2. वेदों के सम्बन्ध में भ्रामक प्रचार 


 इस चरण का आरम्भ तो बहुत पहले यूरोप में ही हो गया था। इस चरण में वेदों के प्रति भारतीयों के मन में बसी आस्था और विश्वास को भ्रान्ति में बदलकर उसके स्थान पर बाइबिल को बसाना था। इस चरण में मुख्य लक्ष्य दलितों को रखकर निर्धारित किया गया। ईसाई मिशनरी भली प्रकार से जानते है कि गोरक्षा एक ऐसा विषय है जिस से हर भारतीय एकमत है।  इस एक विषय को सम्पूर्ण भारत ने एक सूत्र में उग्र रूप से पिरोया हुआ हैं। इसलिए गोरक्षा को विशेष रूप से लक्ष्य बनाया गया। हर भारतीय गोरक्षा के लिए अपने आपको बलिदान तक करने के तैयार रहता है।  उसकी इसी भावना को मिटाने के लिए वेद मन्त्रों के भ्रामक अर्थ किये गए। वेदों में मनुष्य से लेकर हर प्राणिमात्र को मित्र के रूप में देखने का सन्देश मिलता है। इस महान सन्देश के विपरीत वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि जबरदस्ती शोध के नाम पर प्रचारित किये गए। इस प्रचार का नतीजा यह हुआ कि अनेक भारतीय आज गो के प्रति ऐसी भावना नहीं रखते जैसी पहले उनके पूर्वज रखते थे। दलितों के मन में भी यह जहर घोला गया। पुरुष सूक्त को लेकर भी इसी प्रकार से वेदों को जातिवादी घोषित किया गया। जिससे दलितों को यह प्रतीत हो की वेदों में शुद्र को नीचा दिखाया गया है।  इसी वेदों के प्रति अनास्था को बढ़ाने के लिए वेदों के उलटे सीधे अर्थ निकाले गए।  जिससे वेद धर्मग्रंथ न होकर जादू-टोने की पुस्तक, अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाली पुस्तक लगे। यह सब योजनाबद्ध रूप में किया गया। इसी सम्बन्ध में वेदों में आर्य-द्रविड़ युद्ध की कल्पना करी गई जिससे यह सिद्ध हो की आर्य लोग विदेशी थे। 


3.  बुद्ध मत को बढ़ावा 


 वेदों के विषय में भ्रान्ति फैलाने के पश्चात ईसाईयों ने सोचा कि दलित समाज से वेदों को तो छीनकर उनके हाथों में बाइबिल पकड़ाना इतना सरल नहीं है।  उनकी इस मान्यता का आधार उनके पिछले 400 वर्षों के इस देश में अनुभव था। इसलिए उन्होंने इतिहास के पुराने पाठ को स्मरण किया। 1200 वर्षों में इस्लामिक आक्रान्तों के समक्ष  धर्म परिवर्तन हिन्दू समाज में उतना नहीं हुआ जितना बोद्ध मतावली में हुआ। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा तक फैला बुद्ध मत तेजी से लोप होकर इस्लाम में परिवर्तित हो गया।  जबकि इस्लाम की चोट से बुद्ध मत भारत भूमि से भी लोप हुआ, मगर हिन्दू धर्म बलिदान देकर, अपमान सहकर किसी प्रकार से अपने आपको सुरक्षित रखा। ईसाई मिशनरी ने इस इतिहास से यह निष्कर्ष निकाला कि दलितों को पहले बुद्ध बनाया जाये और फिर ईसाई बनाना उनके लिए सरल होगा। इसी कड़ी में डॉ अम्बेडकर द्वारा बुद्ध धर्म ग्रहण करना ईसाईयों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। डॉ अम्बेडकर के नाम के प्रभाव से दलितों को बुद्ध बनाने का कार्य आज ईसाई करते है। इस कार्य को सरल बनाने के लिए विदेशी विश्विद्यालयों में महात्मा बुद्ध और बुद्ध मत पर अनेक पीठ स्थापित किये गए। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि भारत का गौरवशाली इतिहास महात्मा बुद्ध से आरम्भ होता है। उससे पहले भारतीय जंगली, असभ्य और बर्बर थे। पतंजलि योग के स्थान पर बुद्धिस्ट ध्यान अर्थात विपश्यना को प्रचलित किया गया। कुल मिलाकर ईसाई मिशनरियों का यह प्रयास दलितों को महात्मा बुद्ध के खूंटे से बांधने का था।   
4 . सम्राट अशोक को बढ़ावा 


इस चरण में ईसाई मिशनरियों द्वारा श्री राम चंद्र के स्थान पर सम्राट अशोक को बढ़ावा दिया गया। राजा अशोक को मौर्या वश का सिद्ध कर दलितों का राजा प्रदर्शित किया गया और राजा राम को आर्यों का राजा प्रदर्शित किया गया। इस प्रयास का उद्देश्य श्री राम आर्यों  के विदेशी राजा थे और अशोक मूलनिवासियों के राजा था। ऐसा भ्रामक प्रचार किया गया। इस प्रकार का मुख्य लक्ष्य श्री राम से दलितों को दूर कर सम्राट अशोक के खूंटे से जोड़ना था। इस कार्य के लिए अशोक द्वारा कलिंग युद्ध के पश्चात बुद्ध मत स्वीकार करने को इतिहास बड़ी घटना के रूप में दिखाना था। अशोक को महान समाज सुधारक, जनता का सेवक, कल्याणकारी प्रदर्शित किया गया। कुएं बनवाना, अतिथिशाला बनवाना, सड़कें बनवाना, रुग्णालय बनवाना जैसी बातों को अशोक राज में महान कार्य बताया गया। जबकि इससे बहुत काल पहले राम राज्य के सदियों पुराने न्यायप्रिय एवं चिरकाल से स्मरण किये जा रहे उच्च शासन की कसौटी को भुलाने का प्रयास किया गया। यह बहुत बड़ा छल था।  जबकि अशोक राज के इस तथ्य को छुपाया गया कि अशोक ने राज सेना को भंग करके सभी सैनिकों को बोद्ध भिक्षुक बना दिया गया और राजकोष को बोद्ध विहार बनाने के लिए खाली कर दिया था। अशोक की इस सनक से तंग आकर मंत्रिमंडल ने अशोक को राजगद्दी से हटा दिया था और अशोक के पौत्र को राजा बना दिया था। अशोक के छदम अहिंसावाद के कारण संसार का सबसे शक्तिशाली राज्य मगध कालांतर में कलिंग के राजा खारवेला से हार गया था। यह था क्षत्रियों के हथियार छीनकर उन्हें बुद्ध बनाने का नतीजा। इस प्रकार से ईसाईयों ने श्री राम की महिमा को दबाने के लिए अशोक को खड़ा किया। 


5. आर्यों को विदेशी बनाना 


 यह चरण सफ़ेद झूठ पर आधारित था। पहले आर्यों को विदेशी और स्थानीय मुलनिवासियों को स्वदेशी प्रचारित किया गया। फिर यह कहा गया कि विदेशी आर्यों ने मूलनिवासियों को युद्ध में परास्त कर उन्हें उत्तर से दक्षिण भारत में भगा दिया। उनकी कन्याओं के साथ जबरदस्ती विवाह किया। इससे उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों में दरार डालने का प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त नाक के आधार पर और रंग के आधार पर भी तोड़ने का प्रयास किया। इससे दाल नहीं गली तो हिन्दू समाज से अलग प्रदर्शित करने के लिए सवर्णों को आर्य और शूद्रों को अनार्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया। सत्य यह है कि इतिहास में एक भी प्रमाण आर्यों के विदेशी होने और हमलावर होने का नहीं मिलता। ईसाईयों की इस हरकत से भारत के राजनेताओं ने बहुत लाभ उठाया।  फुट डालों और राज करो कि यह नीति बेहद खतरनाक है। 


6. ब्राह्मणवाद और मनुवाद का जुमला  


 यह चरण बेहद आक्रोश भरा था। दलितों को यह दिखाया गया कि सभी सवर्ण जातिवादी है और दलितों पर हज़ारों वर्षों से अत्याचार करते आये है। जातिवाद को सबसे अधिक ब्राह्मणों ने बढ़ावा दिया है। जातिवाद कि इस विष लता को खाद देने के लिए ब्राह्मणवाद का जुमला प्रचलित किया गया। हमारे देश के इतिहास में मध्य काल का एक अंधकारमय युग भी था। जब वर्णव्यवस्था का स्थान जातिवाद ने ले लिया था। कोई व्यक्ति ब्राह्मण गुण,कर्म और स्वाभाव के स्थान पर नहीं अपितु जन्म के स्थान पर प्रचलित किया गया। इससे पूर्व वैदिक काल में किसी भी व्यक्ति का वर्ण, उसकी शिक्षा प्राप्ति के उपरांत उसके गुणों के आधार पर निर्धारित होता था। इस बिगाड़ व्यवस्था में एक ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण कहलाने लगा चाहे वह अनपढ़, मुर्ख, चरित्रहीन क्यों न हो और एक शुद्र का बेटा केवल इसलिए शुद्र कहलाने लगा क्योंकि उसका पिता शुद्र था। वह चाहे कितना भी गुणवान क्यों न हो। इसी काल में सृष्टि के आदि में प्रथम संविधानकर्ता मनु द्वारा निर्धारित मनुस्मृति में जातिवादी लोगों द्वारा जातिवाद के समर्थन में मिलावट कर दी गई। इस मिलावट का मुख्य उद्देश्य मनुस्मृति से जातिवाद को स्वीकृत करवाना था। इससे न केवल समाज में विध्वंश का दौर प्रारम्भ हो गया अपितु सामाजिक एकता भी भंग हो गई। स्वामी दयानंद द्वारा आधुनिक इतिहास में इस घोटाले को उजागर किया गया। ईसाई मिशनरी की तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गई। दलितों को भड़काने के लिए उन्हें मसाला मिल गया। मनुवाद जैसी जुमले प्रचलित किये गए। मनु महर्षि को उस मिलावट के लिए गालियां दी गई जो उनकी रचना नहीं थी। इस वैचारिक प्रदुषण का उद्देश्य हर प्राचीन गौरवशाली इतिहास और उससे सम्बंधित तथ्यों के प्रति जहर भरना था। इस नकारात्मक प्रचार के प्रभाव से दलित समाज न केवल हिन्दू समाज से चिढ़ने लगे अपितु उनका बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मान्तरण करने में सफल भी रहे। हालांकि जिस बराबरी के हक के लिए दलितों ने ईसाईयों का पल्लू थामा था।  वह हक उन्हें वहां भी नहीं मिला। यहाँ वे हिन्दू दलित कहलाते थे, वहां वे ईसाई दलित कहलाते हैं। अपने पूर्वजों का उच्च धर्म खोकर भी वे निम्न स्तर जीने को आज भी बाधित है और अंदर ही अंदर अपनी गलती पर पछताते है। 


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