तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम्

तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम्"


अर्थात् 
         जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता- पिता  आदि पितर प्रसन्न किये जायें, उसका नाम तर्पण है ॥


  उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि श्रध्दा से सेवाकर पितरो को तृप्त करना ही श्राद्ध और तृपण कहलाता है ।


  अब प्रश्न उठता है कि पितर किसे कहते है जिसकी सेवा द्वारा श्राध्द और तर्पण किया जा सके...


  महर्षि मनु के अनुसार पितर पाँच है या अग्रलिखित पाँच को कहते हैं...


"जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति | अन्नदाता भयत्राता पञ्चेते पितरः स्मृतः ।


अर्थात् 
         पितर पाँच है...
(१) जन्म देने वाले 'माता-पिता' ।
(२) उपनयन की दीक्षा देने वाला 'आचार्य' ।
(३) विद्या पढ़ाने वाला 'गुरू' ।
(४) अन्न देने वाला ।
(५) रक्षा करने वाला ।


  यदि थोड़ी सी बुद्धि लगाए तो ये पाँचों ही 'जीवित पितर' है न कि मृतक ।


   अतः श्रद्धा से उपर्युक्त आये पाँचो यथा माता पिता आचार्य आदि जीवित जनों की प्रति दिन सेवा करना ही श्राद्ध कहलाता है ।


  तथा वो सेवा ऐसी हो जिससे ये जीवित पितर तृप्त अर्थात् संतुष्ट हो जाये इसी का नाम तर्पण है 


  परन्तु मित्रों आज कल उलटा ही देखा जा रहा है जब तक माता पिता जीवित रहते है तब तक तो सन्तान प्रायः उनकी उपेक्षा करता है । सेवा आदि की बात तो दूर उनको जल और भोजन भी समय पर नहीं दिया जाता । गुरूओं के साथ भी विद्यार्थी प्रायः अभद्र व्यवहार करते है।


    जीवित माता-पिता , सास - सुसर, दादा- दादी सभी बड़े बुजुर्गो की श्रद्धा से सेवा करना ही असली श्राद्ध है ।


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