स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय धर्म व संस्कृति के विषय में


शिकागो अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म का डंका बजाने वाले एक विद्वान की गौरवपूर्ण किन्तु अनसुनी कहानी


||पंडित अयोध्या प्रसाद||


11 सितंबर 1893 की वह महत्वपूर्ण घटना जब स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय धर्म व संस्कृति के विषय में शिकागो में ऐतिहासिक भाषण दिया था, से आप सभी भली प्रकार परिचित होंगे ।
इस ऐतिहासिक भाषण में स्वामी विवेकानंद जी ने जो कुछ भी अपने देश के बारे में कहा था उस पर बहुत कुछ लिखा गया है । बहुत कुछ कहा गया है , और इस एक भाषण का इस प्रकार प्रचार प्रसार किया गया है कि जैसे इसी से अमेरिका भारत का दीवाना हो गया था ? 


1893 के उक्त विश्व धर्म सम्मेलन के पश्चात उसी संस्था ने उसी हॉल में उसी विषय पर 40 वर्ष पश्चात   1933 में फिर एक बार विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित किया । आर्यसमाज कलकत्ता और मुम्बई के आर्यो के प्रयासों से एक कुशल वक्ता और भारतीय धर्म संस्कृति के उद्भट प्रस्तोता पं. अयोध्या प्रसाद जी को शिकागो के इस अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया। 


पंडित जी का विश्व धर्म सभा में यह प्रभाव हुआ कि वहां सभा की कार्यवाही का आरम्भ वेदों के प्रार्थना मन्त्रों से होता था और समापन शान्तिपाठ से होता था। यह पण्डित अयोध्या प्रसाद जी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी जिसकी इस कृतघ्न देश और आर्यसमाज में बहुत कम चर्चा हुई।


पंडित जी का कुशल वक्तृत्व देखकर आयोजक महोदय पहले दिन ही इतने प्रभावित हुए कि उनको सम्मेलन के शेष 7 दिनों के लिए प्रत्येक दिन 1 घंटा बोलने का समय आवंटित कर दिया । हमारे इस कुशल वक्ता को अगले दिन ही भारत लौटना था , परंतु आयोजकों ने कहा कि हम आपका वीजा बढ़वाते हैं । इसी समय उन्होंने भारत की सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से उनके 7 दिन वहीं पर रहने की अनुमति भी प्राप्त की । 
परन्तु यह क्या ? 7 दिन में उन्होने अमेरिका को अपना इतना दीवाना कर लिया कि उसने उनको 1 वर्ष तक अमेरिका में रहकर भारतीय वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार करने और उस पर उनके भाषण आयोजित कराने का निर्णय लिया । 


इसी विश्व धर्म सभा में पंडित जी ने वैदिक व भारतीय अभिवादन ‘‘नमस्ते” शब्द की बड़ी सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्या की। उन्होंने कहा कि भारत के आर्य लोग दोनों हाथ जोड़कर तथा अपने दोनों हाथों को अपने हृदय के निकट लाकर नत मस्तक हो अर्थात् सिर झुकाकर ‘‘नमस्ते” शब्द का उच्चारण करते हैं। इन क्रियाओं का अभिप्राय यह है कि नमस्ते के द्वारा हम अपने हृदय, हाथ तथा मस्तिष्क तीनों की प्रवृत्तियों का संयोजन करते हैं। हृदय आत्मिक शक्ति का प्रतीक है, हाथ शारीरिक बल का द्योतक हैं तथा मस्तिष्क मानसिक व बौ़द्धक शक्तियों का स्थान वा केन्द्र है। इस प्रकार नमस्ते के उच्चारण तथा इसके साथ सिर झुका कर व दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें हृदय के समीप रखकर हम कहते हैं कि “….With all the physical force in my arms, with all mental force in my head and with all the love in my heart, I pay respect to the soul with in you.” नमस्ते की इस व्याख्या का सम्मेलन के पश्चिमी विद्वानों पर अद्भुत व गहरा प्रभाव पड़ा।  


इतना ही नहीं , हमारे इस महान वक्ता को अमेरिका सहित उसके पड़ोसी देशों ने भी सुना । जहां भी वह जाते थे उनकी वक्तृत्व शैली और भारतीय वैदिक धर्म की महानता से प्रेरित और प्रभावित होकर अनेकों ईसाई हिंदू बनने लगे । इसके उपरांत भी अमेरिका ने उन्हें भारत भेजने का निर्णय नहीं लिया। दुख के साथ कहना पड़ता है कि इतिहास में उस महान वक्ता का कहीं पर कोई उल्लेख नहीं है । जिसने 1 वर्ष तक निरंतर अमेरिका और उसके पड़ोसी देशों में रहकर वैदिक धर्म का प्रचार - प्रसार किया और हजारों लोगों को ईसाई  मत छोड़कर वैदिक धर्म में दीक्षित किया उसके साथ इतना अन्याय क्यों ?


हम स्वामी विवेकानंद जी के द्वारा वहां पर रखे गए अपने वक्तव्य का भी सम्मान करते हैं । जिससे भारतीय धर्म और संस्कृति का वहां पर गौरव घोष हुआ , परंतु उनसे भी अधिक कार्य करने वाले इस कुशल वक्ता का नाम हमारी जुबान पर क्यों नहीं ? 


आभार:- 
1. डॉ राकेश कुमार आर्य, संपादक : उगता भारत
2.मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून
3.http://aryamantavya.in/pandit-ayodhya-prasad/


https://youtu.be/Ev2m6N1j0Ms


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