ईश्वर के वास्तविक स्वरूप के संदर्भ में,

वैदिक मान्यताएं


14)) ईश्वर अवतारवाद


ईश्वर के वास्तविक स्वरूप के संदर्भ में, ईश्वर अवतारवाद के विषय में कुछ शब्द लिखना संदर्भसंगत होगा। ईश्वर का मानव अथवा अन्य प्राणी के रूप में प्रकट होना ‘अवतार’  कहलाता है। 


यह एक आस्था का विषय है; कई लोग इसे शाब्दिक रूप में सत्य मानते हैं और कई अवतार का लाक्षणिक अर्थ लेते हैं। किसी की आस्था को ठेस पहुंचाने का हमारा लेशमात्र आशय नहीं है।


हम यहां इस विषय पर शास्त्रोक्त वचनों एवं महान् दार्शनिक विभूतियों के विचारों का विवेचन करेंगे।


1) यजुर्वेद (40.8) / ईशोपनिषद् 8 में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है :


स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम् 
अस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयम्भूर्
याथातथ्यतोsर्थान् व्यदधाच्छाश्तीभ्यःसमाभ्यः।।


अर्थात् वह ब्रह्म सर्व व्यापक है, सर्वशक्तिमान है, (अकाय) काया रहित /शरीर रहित है, (अव्रणम्) उसमें कोई छिद्र / दोष नहीं, (अस्नाविरम्) नस-नाड़ी रहित है, (शुद्धं) शुद्ध, पवित्र है, (अपापविद्धम्) पापरहित है, वह कोई पाप नहीं करता, (कवि) सर्वज्ञ है, (मनीषी) सब जीवों की मनोवृत्तियों को जानने वाला है, (स्वयम्भूः) अनादि, शाश्वत है, उसका कोई माता-पिता नहीं (Self- born / Casus Causa), उसने अपनी समस्त प्रजा के लिये वेद ज्ञान दिया है।


2) वाल्मीकि रामायण (अरण्य काण्ड) में माता सीता हरण के बाद श्री राम कहते हैं :


पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि
पापानि कर्माणि सकृत कृतानि।
तत्रयमद्य पतितो विपाको
दुःखेन दुःखं यदहं विरामि।।


अर्थात् पूर्व जन्म में मैंने निश्चय ही, स्वेच्छा से, अनेक पापकर्म किये हैं जो उनका विपाक (फल) आज मुझ पर आ पड़ा है कि एक के बाद एक दुःख मुझे झेलना पड़ रहा है।


यदि श्री राम ईश्वर के अवतार हैं, तो वे सर्वज्ञ होंने चाहिएं।
स्वर्ण - हिरन में मायावी मरीच को देख लेते। जाटायु की बजाए, उन्हें स्वयं ज्ञात होना चाहिए था कि रावण ने माता सीता का हरण किया है। रावण की मृत्यु का रहस्य भी, विभीषण से जानने की आवश्यकता न होती।  


3) ईश्वर के स्वरूप के संदर्भ में योगदर्शन (1.24) का सूत्र अवलोकनीय है :


क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामिष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।


अर्थात् क्लेश, कर्मफल (विपाक) एवं वासना से रहित, पुरुषविशेष ईश्वर है।


वेद और योगदर्शन की ईश्वर की उपरोक्त परिभाषा में भगवान् राम ईश्वर सिद्ध नहीं होते। वे स्वयं अपने आपको पाप से ग्रसित और कर्मफल (विपाक) को भोगने वाला मानव मान रहे हैं। 


4) भगवद्गीता (18.61-62) में श्रीकृष्ण ने भी ईश्वर को अपने से भिन्न कहा है :


ईश्वरः सर्वभूतेषु हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ।
तमेव शरणं गच्छ ।


अर्थात् हे अर्जुन! सभी जीवों के हृदय में ईश्वर विद्यमान है। उसी की शरण में जा।


यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि गीता (9.34) में श्रीकृष्ण " मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु " भी तो कहते हैं ।
अर्थात् मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर, मुझे नमस्कार कर। 


इस श्लोक की व्याख्या करते हुए  डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् अपनी पुस्तक  ' भगवद् गीता ' में लिखते हैं कि यह सम्पूर्ण समर्पण व्यक्तिगत श्रीकृष्ण के लिये नहीं है अपितु उस अजन्मा, अनादि, शाश्वत शक्ति के लिये है जो श्रीकृष्ण के माध्यम से बोल रही है।


विश्व के अन्य धर्मग्रंथों में भी ऐसे उद्धरण मिलते हैं।


जब महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूछा गया कि गीता (4.8) में श्रीकृष्ण ने " धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे " कहा है, अर्थात् धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में जन्म लेता हूं, तो स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मुक्तात्माएँ यदि चाहें तो मोक्ष-अवस्था को छोड़कर किसी शुभ-कर्म के लिए स्वेच्छा से या ईश्वर की प्रेरणा से जन्म ले सकती हैं।


 4) शास्त्रोक्तियों के उपरान्त विशिष्ट विभूतियों के अवतार विषयक विचारों का उल्लेख करते हैं । 


क) डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् का अवतारवाद पर मत है : ईश्वर कभी सामान्य रूप में जन्म (अवतार) नहीं लेता। अवतार केवल मानव की आध्यात्मिक एवं दैवी शक्तियों की अभिव्यक्ति है। अवतार दिव्यशक्ति का मानव शरीर में सिकुड़ कर व्यक्त होना नहीं, बल्कि मानव- प्रकृति का ऊर्ध्वारोहण है जिसका दिव्य शक्ति से मिलन होता है। वे आगे लिखते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित कर लेता है, दूरदर्शिता व उदारता दिखाता है, सामयिक समस्याओं पर विचार व्यक्त करता है एवं नैतिक और सामाजिक हलचल मचा देता है, हम कहते हैं कि अधर्म के नाश एवं धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर ने जन्म लिया है। कृष्ण लाखों रूपों में से एक हैं जिनमें दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति हुई है। 
(भगवद्गीता : डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्)


ख) योगीराज अरविन्द घोष का मत है कि ‘अवतार’ अतिमानस का किसी मानव में अवतरण है न कि ईश्वर का मानवरूप धारण करना। 


ग) महात्मा गाँधी भी मानते हैं कि ईश्वर का ‘युगे युगे’ अवतार नहीं होता बल्कि ‘क्षणे क्षणे’ होता है, हर क्षण परमात्मा हमारी अन्तरात्मा में अवतरित होता है और हमें बुरे कर्मों से रोकता है।


घ) गुरू नानक देव जी का कथन है :
एक राम दशरथ का बेटा ।
एक राम जग-जग में पैठा ।।


अर्थात् दशरथ पुत्र राम ईश्वर नहीं ,जो सर्व जगत् में व्याप्त है, वह राम ईश्वर है।
"रमन्ते योगिनो यस्मिन् इति राम:" अर्थात् जिस में योगीजन रमण करते हैं, वह राम है। गुरूग्रन्थ साहब में रामनाम से अभिप्राय परमात्मा से है न कि दशरथ पुत्र राम से।


5) अब तर्क की दृष्टि से अवतार की अवधारणा की समीक्षा करते हैं :


(क) ईश्वर सर्वव्यापक होने से, किसी एक शरीर में संकुचित होकर नहीं समा सकता।


(ख) ईश्वर ‘शाश्वतीभ्यः समाभ्यः’ समस्त जगत् का स्वामी होने से, एक देश में अवतार लेने पर, शेष जगत् की रक्षा कैसे करता है?


(ग) हर देश, हर युग में राक्षसी प्रवृत्ति के व्यक्ति पैदा होते रहते हैं और होते रहेंगे। क्या बिन-लादेन व बगदादी रावण और कंस से कम राक्षस-प्रवृत्ति के थे ? अगर राष्ट्रपति बराक ओबामा, ओसामा बिन-लादिन की हत्या करवा सकते हैं एवं राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प  बग़दादी की हत्या करवा सकते हैं,  तो क्या कोई पराक्रमी महापुरुष, ईश्वर की प्रेरणा से रावण व कंस का वध नहीं कर सकता? 


यदि हर राक्षस को मारने के लिये ईश्वर को अवतार लेना पड़े, तो ईश्वर सदा-सर्वदा के लिये अग्निशमन कार्य (Fire-fighting) में व्यस्त दिखाई देगा।


(घ) ईश्वर को रावण या कंस के वध के लिये अवतार लेने की क्या आवश्यकता है? सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् , सर्व अन्तर्यामी ईश्वर जो संकल्प मात्र से सृष्टि की रचना करता है, तो क्या वह उनकी जीवन लीला  संकल्प मात्र से,  हृदयाघात (Heart-attack) या मस्तिष्क सम्फोट (Brain-Haemarage) द्वारा समाप्त नहीं कर सकता ? 


अतः ईश्वर को मानव शरीर धारण करने की ज़हमत उठाने की क्या आवश्यकता है!


(ङ) अवतारवाद पुराणों की अवधारणा है। वेद, उपनिषद्, षड्दर्शन में कहीं भी ईश्वर के अवतार के विषय में कोई उल्लेख नहीं है। उनकी मान्यता है कि धर्म की स्थापना के लिए ईश्वर अवतार लेता है। पुराणों में मत्स्य अवतार तथा कूर्मावतार का वर्णन है। मत्स्य अवतार या कूर्म अवतार से किन दुष्टों का संहार हुआ और कैसे धर्म की स्थापना हुई? 


कई विद्वानों का मत है कि पुराणों में वर्णित अवतार की परिकल्पना जीव की पृथ्वी पर उत्पत्ति (Evolution of life on Earth) को इंगित करती है। 


अतः पुराणों की अवतार की अवधारणा गहन अन्वेण, शोध एवं चिन्तन की अपेक्षा रखती है। इसे शाब्दिक अर्थ में (Literally) लेने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।


संक्षेप में, ईश्वर अवतार की अवधारणा वेद-उपनिषद्- दर्शन-शास्त्र के अनुरूप नहीं है; न ही यह तर्क संगत है; न तो ईश्वर का अवतार लेना सम्भव है और न ही आवश्यक।


यह आस्था का विषय है। सुधी जन अपना मत स्वयं बनाएं।
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पादपाठ


1) जो मुझ पर विश्वास करेगा,
कभी प्यासा नहीं रहेगा।


जो मुझ पर विश्वास करेगा,
कभी भूखा नहीं रहेगा।


         पवित्र बाइबल


(ये शब्द क्या ईसा मसीह के अपने अनुयायियों के लिये है? नहीं। ईश्वर ईसा मसीह के मुख से बोल रहा है।)


2) व फि अन्फुसेकुम अ-फ-ल तबसेरुन
    --  क़ुरान शरीफ़


मैं तुम्हारी आत्मा में हूं, 
तुम मुझे क्यों नहीं देखते?
मैं तुम्हारी हर श्वास में हूं
परन्तु तुम पवित्र नेत्र से विहीन हो,
जो मुझे नहीं देखते ।।
(क्या ये शब्द हज़रत मुहम्मद के व्यक्तिगत शब्द हैं, अपने अनुयायियों के लिए ? जी नहीं।)


3) वाल्मीकि रामायण में श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम वर्णित किया गया है, न कि ईश्वर का अवतार। गोस्वामी तुलसीदास ने पौराणिक मान्यता के अनुसार श्री राम को ईश्वर का अवतार माना है।
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THE VEDIC TRINITY
14) The Concept of Incarnation of God.
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शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत


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