आज्याहुतिमंत्रा:अथवा पवामानाहुतय:


१९ नीं विधि वैदिक अग्निहोत्र 
                                   प्रधान होम भाग ३  
    आज्याहुतिमंत्रा:अथवा पवामानाहुतय:
                                                           डा. अशोक आर्य 
      इस क्रिया के विगास्त मन्त्र में पवमान आहुतियों के अन्तर्गत इस क्रिया के द्व्व्वितीय मन्त्र को लिया था इस में परमातम के अग्नि:,ऋषि,पवमान,पुरोहित तथा बलवान नामक गुणों के आधार पसर मन्त्र की व्याख्या की थी| अब हम इस क्रिया के तृतीय मन्त्र की और जाने से पूर्व यह बात एक बार फिर से स्मरण करवा देनबा चाहूँगा कि पवमान आहुतियों को आज्या आहुति भिकहते हैं और आज्या का अर्थ होता है घी| इस के नामकरण के आधार पर हि सोअष्ट हो जाता है कि इन आहुतियों के लिए केवल घी का हि प्रयोग होगा, घी की आहुतियाँ डी जावेंगी| यह तृतीय मटर इस प्रकार है:-
                ओं भूर्भुव: स्व:| अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वच: सुवीर्यम|
        दध्द्रयिं मयि पोषं स्वाहा| इदमग्नये पवमानाय, इदन्न मम||३||         ऋग्वेद ९.६६.२१
शब्दार्थ 
    हे सर्वाधार, दू:ख्प्रहारक,सुखस्वरूप अग्ने प्रकाशमान प्रभो आप सु-अपा: अच्छे कर्मों के अधिष्ठाता हैं| आप अस्मे हममें वर्च: तेज सुवीर्यं पूर्ण बल  रयि ऐश्वर्य पोषं पुष्टि मयि मुझ में दधत् धारण करते हुए पवस्व पवित्र करं!
व्याख्यान 
    जैसे ऊपर बताया गया है कि आज्या करहाते हैं घी को| इसके साथ ही यह भी समझ लें कि यह घी इतना पवित्र हो कि यज्ञ कुण्ड में जाते ही वायु मंडल में फैलक जावे| इस प्रकार की घीमे पवित्रता आती हैघी के कलकते हुए होने प[आर आहुति देने से| इसलिए यज्ञ में सदैव कलकते हुए घी की ही आहुतियाँ दी जानी चाहियें| क्लालाकते हुए घी को ही पवित्र घी कहा गया है|
     इस समय हमें एक बात और समझनी आवश्यक है कि वेद में पुनरुक्ति का अत्यधिक प्रयोग हुआ है|  परमपिता परमात्मा जानता था कि यह जीव अल्पज्ञ होने के कारण इस की स्मृति शक्ति भी सीमित ही है| इस स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें हमारे अध्यापक एक पाठ को बार बार पढ़ने के लिए कहते हैं| पाठ स्मरण हो जाने पर भी अध्यापक कहते हैं कि इस पाठ को यदा कदा पुन: पढ़ते रहें ताकि इस पाठ कहीं भूल न जावें| परमपिता परमात्मा तो अध्यापकों का भी अध्यापक होता है, गुरुओं का भी गुरु होता है| इसलिय वह तो अपने शिष्यों को सब कुछ यहाँ तक कि वेद भी सदा के लिए स्मरण अरवाए के लिए पुरुषार्थ करते हुए उनके सामने पाठ को बार बार लाता हसी| यह हि वह कार  हैकि परमपिता परमात्मा ने अनेक मन्त्रों को वेद में एक से अधिक बार दिया है और प्रसंग के अनुसास्र मन्त्रों के अर्थ भी बदलते रहते हैं, इसलिए विभिन्न प्रसंगों पर भी मन्त्रों की पुनरुक्ति हुई है, यहाँ तक कि एक मन्त्र को चारों, तीन अथवा दो वेदों में भी दिया गया है| इस तीन मन्त्रों में ही हम देखते हैं कि अग्नि शब्द कई बार आ गया है| इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वेद में एक शब्द का तो अत्यधिक बार प्रयोग हुआ है|
     अब हम मन्त्र की व्याख्या की और आते हैं| यह मन्त्र भी ऋग्वेद में से लिया गया है| इस मन्त्र को समझाने के लिए स्वाभाविक रूप से परमपित परमात्मा के कुछ गुन्न्वाच्क पूर्व में आये नामों को एक बार फिर से संबोधन करते हुए हम इस मन्त्र के मूल शब्द अग्नि पर आते हैं अर्थात् मन्त्र में उस प्रभु को संबोधन करते हुए कहा है कि हे सर्वाधार, दु:खापराहारक, सुखस्वरूप अग्ने! इस में प्रथम तीन गुणों को पूर्व के मन्त्रों से लिया गया है| यह परमपिता परमात्मा को संबोधन करने के लिए लिए गएर हैं| तीनों गुणात्मक नामों की व्याख्या भी विगत मन्त्रों में यथास्थान लकर दी गई है| संख्सेप में पुन: दे रहा हौं|
     परमपिता परमात्मा पर ही इस सृष्टि का आधार है| इस सृष्टि का सब कुछ उस पर टिके होने  के कारण वह पस्राम्पिता सर्वाधार है| परमपिता परमात्मा उन कर्मों के लिए अत्यंत प्रहार कर अर्थास्त दंड देकर जीव को शुध्ह पवित्र कर देता है, इस लिए उसे दू:ख्प्रहारक कहा गया है| जब सब दू:खों को अपने प्रहार से परमपिता परमात्मा दूर कर देता है तो जीव के पास केवल सुख ही सुख रह जाते हैं, इसलिए वह परभू सुखस्वरूप है| 
     मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे मनुष्य तु इन तीन गुणों के साथ परमपिता [परमात्मा को स्मरण कर, उस परमात्मा को जो अग्नि भी है| अग्नि होने के कारण अपनी प्रचंड अग्नि से वह परमपिता परमात्मा अपने अग्नि रूप प्रकाश से समस्त जगत क० प्रकाशमान किया हुए है| अत: हे प्रकाशमान प्रभो! आप अच्छे तथा उततम कर्मों के भी अधिष्ठाता हो| इस सृष्टि में जितने भी उततम कर्म हैं, उन सब का आदि स्रोत आप ही हो| इन ओअवित्र कर्मों को देने वाले आप हि हो| उततम, पवित्र तथा श्रेष्ठ कर्मों से आपके भंडार बहरे हुए है, जिओंहें आप प्रतिक्षण बाँटते रहेते हो ल्किन्तु देते उस को ही हो जो उततम, पवित्र और पुण्यप्रद पुरुषार्थ करता है|
     प्रभो! आप महान दानी हो| हम आपके सामने भिखारी के सामान हैं| इसलिए हमें उततम तेज को भर दो| हस्मारे में अत्यधिक बल हो और हम अत्यधिक पवित्र धनों के स्वामी बनें| इस प्रकार यह सब पवित्र गुण हमें देते हुए हमें पवित्र करें|
     इस प्रकार मन्त्र उपदेश कर रहा है कि जो व्यक्ति अत्याधिक निर्बल होता है, उसे कोई पसंद नहीं करता| जो निर्बल होने के साथ हि साथ निर्धन भी होता है, उव्सका सब लोग उपहास उड़ाते रहते हैं और यदि निर्बल, निरहन होने के सकत ही साथ वह निस्तेज भी है तो उसे तो कोई समझदार व्यक्ति अपने निकत भीनहीं आनेदेता| और यदि इन सब के साथ वह क्व्शीं भी है तो उसके सम्बन्ध में पवित्र, उततम, पुरुषार्थी लोग क्या व्यवहार करेंगे, इसका तो अनुमान भी लगा पाना कठिन हो जता है क्योंकि इस प्रकार के जीवों को तो यह भी ज्ञान नहीं हो पाटा कि पवित्रता किसे कहते हैं और पवित्रता का कया अर्थ होता है| इसलिए परमपिता परमात्मा गुरु रूप में अपने जीव रूपी शिष्यों को सम्बोधान्कराते हुए कहते हैं कि हे साधको! जब आप यज्ञ कुण्ड में घी आदि की आहुति डालते हो तो इस समय अस्पने जीवन की बुराइयों को भी आहूत कर दो, पापों को भी इस आहुति के साथ दूर करते हुए यह संकल्प लो कि आपका अपना जीवन भी ठीक होई, शुद्ध हीओ, पवित्र हो| यदि परमपिता परमात्मा से प्रीती बढानी है, यदि उससे मैत्री करनी है तो इस प्रकार का संकल्प आपके लिए आवश्यक है|
      अब हम इस क्रिया के अंतिम मन्त्र पर विचार करते हैं| मन्त्र इस प्रकार है:-
            ओं भूर्भुव: स्व:| प्रजापते न त्वेतान्यन्यो विशवा जातानि परिता बभूव|
             यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पाटयो रयिणां स्वाहा| इदं प्रजापतये 
         इदन्न मा||४||
      यह मन्त्र ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना के मन्त्रों में भी आया है| आप चाहें तो वहां से इस मनर का अर्थ देख सकते हैं| तो भी मैं इस मन्त्र की व्याख्या यहाँ पुन: कर रहा हूँ ताकि आपको पन्ने पलटने का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता न रहे|
      ऋषि के शब्दों में इस मन्त्र का भाव इस प्रकार है :- हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मन् ! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़ - चेतानादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं | जिस - जिस पदार्थ की कामना वाले होके हम लोग भक्ति करें आपका आश्रय लेवें और वाञ्छा करें उस - उस की कामना हमारी सिद्ध होवे , जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें |
      ऋषि के वेद भाष्य के आलोक में हम इस मन्त्र की विषद् व्याख्या इस प्रकार करते हैं :-
१ . सब प्रजा के स्वामी परमात्मन् :-        परमपिता परमात्मा प्रत्येक सृष्टि के आदि में निर्माण का कार्य करता है | जगत् में जिन - जिन प्राणियों और पदार्थों की आवश्यकता होती है , सब का निर्माण वह करता है और आगे चलकर भी उसका निर्माण कार्य चलता ही रहता है | निर्माता होने के कारण सबको आदर का स्थान देता है | निर्माता ही पालक होता है और उसे ही पिता अथवा स्वामी कहते हैं | इस प्रकार वह प्रभु सबका स्वामी है | 
२ . प्रभु आप सर्वोपरि हैं :-                    सब प्राणियों को प्रभु ने कर्म करने के लिए स्वाधीन रखा है किन्तु उसे इन कर्मों का फल किये गए कर्मों के आधार पर ही देता है , न कुछ कम और न ही कुछ अधिक | फल देने वाला होने के कारण उसकी सत्ता हम सब से ऊपर है इसलिए हम उस सर्वोपरि परमपिता परमात्मा की प्रतिदिन प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं | 
३ . हमारी कामना सिद्ध होवे :-                  हमारी अनेक प्रकार की इच्छाएं होती हैं , अनेक प्रकार की हम कामनाएं रखते हैं | इन इच्छाओं को लेकर हम परमपिता की शरण में जाते हैं | हमारे उत्तम कर्मों को ध्यान में लेते हुए तदानुरूप प्रभु हमारी सब कामनाएं पूर्ण करते हैं | इनकी सिद्दी की प्रार्थना करने के लिए हम उस के निकट जाते हैं और उसकी स्तुति करते हुए प्रार्थना करते हैं |                   
४ . हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें :-             परमपिता परमात्मा सबसे बड़ा दाता ,सबसे बड़ा पिता और इस जगत् का स्वामी और सब से ऊपर होने के कारण संसार के सब सुखों का स्वामी भी है | वह सदा प्राणियों पर सुखों की वर्षा करता रहता है | इस कारण उसे सबसे ऊपर अथवा सर्वोपरि के रूप में जाना जाता है | सुखी वह ही होता है जो सब धनों का स्वामी हो | सब धनों का स्वामी होने के कारण हम भी धनेश्वर्यों के स्वामी बनना चाहते हैं | इसलिए हम प्रतिदिन उस ईश्वर की शरण में उसके निकट जाकर अपना आसन लगाते हैं और धनेश्वर्यों की लालसा से उसकी स्तुति रूप प्रार्थना करते हैं |   
डा.अशोक आर्य 
पाकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन से.७ वैशाली 
२०१०१२ गाजियाबाद उ.प्र.भारत 
चलभाष ९३५४८४५४२६ E Mail   ashokarya1944@rediffmail.com
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