आघारावाज्यभागाहुतय:घी को पिघलाना


 


 


 


 


आघारावाज्यभागाहुतय:घी को पिघलाना
धर्म-दर्शन
सितंबर 21, 2020
डा. अशोक आर्य
अब तक हम ने अग्नि को प्रचंड करने कि क्रियाएं कि हैं, जिन में घी को पिघलाकर इसकी आहुतियाँ देनी होती हैं| ताकि पिघले हुए कलकते हुए गर्म घी की आहुतियों के माध्यम से हम यज्ञ की अग्नि को और भी तीव्र करें| इसके लिए यजुर्वेद के ही चार मन्त्र दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:-


ओं अग्नये स्वाहा| इदमग्नये, इदन्न मम ||१|| यजु.२२-२७
ओं सोमाय स्वाहा| इदं सोमाय, इदन्न मम ||२|| यजु.२२-२७
ओं प्रजापतये स्वाहा स्वाहा| इदं प्रजापतये, इदन्न मम ||३|| यजु.१८-२७
ओं इन्द्राय स्वाहा| इदं इन्द्राय, इदन्न मा||४|| यजु.२२-२७


ये भी पढि़ये
वैदकी अग्निहोत्र क्रिया १२ःजलसिञ्चनम्=यज्ञ कुण्ड के चारों दिशाओं में जल सिंञ्चन


यह आघारावाज्यभागाहुतय: के चार मन्त्र हैं | यह चारों मन्त्र ही यजुर्वेद से लिए गए हैं| यहाँ इस बात को समझ लेना चाहिए कि आघार और आज्या यह दो शब्द विशेष रूप से इस क्रिया के लिए प्रयोग किये गए हैं| जब तक हम इन दोनों शब्दों को समझ नहीं लेते, तब तक हम इस मन्त्र की क्रियाओं को ठीक से कर नहीं पावेंगे| अत: इन दो शब्दों का ठीक से अभिप्राय: समझना आवश्यक हो जाता है क्योंकि प्रथम दो मन्त्रों का नाम आघारावाज्यभागाहुति कहा गया है और शेष रहे दो मन्त्रों को आज्याभागाहुति के नाम से बताया गया है| भाव यह है कि दोनों नामों का पूर्व भाग ही अलग अलग है और उत्तर भाग एक जैसा ही है| इसलिए दोनों के पूर्व भाग आघार और आज्या के अर्थ को यहाँ समझना होगा| संस्कृत में आघार का अर्थ पिघलाना होता है तो आज्या का अर्थ घी होता है| अत: जिन मन्त्रों की सहायता से यज्ञ में प्रयोग होने वाले घी को पिघलाया जावे आघारावाज्यभागाहुतय: कहते हैं| इस से स्पष्ट है कि यह क्रिया यज्ञ के लिए घी को पिघलाने कि विधि है और घी को पिघलाते हुए भी चार आहुतियाँ देने का विधान किया गया है ताकि अग्नि की प्रचंडता में कुछ कमी न हो पावे| प्रथम मन्त्र से यज्ञ कुण्ड के उत्तर वाले भाग में घी की आहुति दी जाती है क्योंकि यज्ञाग्नि प्रचंड करते समय कुण्ड के अन्दर पड़ी समिधाओं के यह वह खंड हैं, जो अब तक अग्नि की चपेट में नहीं आये थे,यह भाग किनारे पर होने के कारण बचे रहे, जबकि यज्ञ अग्नि प्रचंड और सब और होनी चाहिए| इसलिए प्रथम आहुति हम कुण्ड के उत्तर भाग में देते हैं| दूसरी आहुति हम कुण्ड के दक्षिण भाग में देते हैं| इससे यज्ञाग्नि कुण्ड के सब और फ़ैल जाती है| इसलिए तीसरे और चोथे मन्त्र से हम कुण्ड के मध्य भाग में घी की आहुतियाँ देते हैं ताकि यदि मध्य भाग में कुछ तीव्रता में कमीं रह गई हो तो उसे भी दूर करते हुए अग्नि मध्य भाग में भी प्रचंड हो जावे|


 


अब हम इस स्थिति में आ गए हैं कि इन चार मंत्रों के आशय से, भाव से अवगत हो सकें|
प्रथम मन्त्र है ओं अग्नये स्वाहा|अर्थात् हे अग्नि स्वरूप प्रकाशमान भगवान्! अर्थात् परमात्मा अग्नि स्वरूप है, जिस प्रकार अग्नि प्रकाश देती है, परमात्मा भी ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करता है, इसलिए परमपिता परमात्मा को यहाँ अग्नि स्वरूप कह कर पुकारा गया है| इस परमात्मा को पाने तथा प्रसन्नता का ध्येय मानते हुए हम अपनी इस आहुति को आहूत करते हुए स्वाहा करते हैं अर्थात् आहुति देते हैं| आगे के मन्त्र में सोमाय शब्द का प्रयोग हुआ है| सोम का भाव है सोमस्वरूप, समग्र जगत् में रस, मिठास और शान्ति भरते हुए इस सब का विस्तार करने वाले परमपिता के हेतू मैं यज्ञ कुण्ड में यह आहुति दे रहा हूँ| इस में मेरा अपना कुछ भी स्वार्थ नहीं है|
तृतीय मन्त्र की आहुति प्रजापतये के नाम से दी जाती है| प्रजा का पति अर्थात् सब प्रजा को पालने वाले प्रभु के लिए हमारी यह आहुति है| इसे मैं बड़ी श्रद्धा के साथ यज्ञ कुण्ड में देता हूँ| यज्ञ की इस क्रिया की अंतिम आहुति, जिसे हम चतुर्थ आहुति के रूप में जानते हैं,वह है इन्द्राय स्वाहा| इंद्र रूप में परम पिता सब प्रकार के ऐश्वर्यों और सब प्रकार की विभूतियों के अधिष्ठाता उस प्रभु के लिए है, सब प्रकार की ममता को त्याग कर मैं यह आहुति सच्चे ह्रदय के साथ यज्ञ कुण्ड के माध्यम से उस परमपिता को समर्पित करता हूँ|


इस सब का भाव यह है कि हमने यह चारों आहूतियां अग्नि, सोम, प्रजापति और इंद्र के नाम से उस प्रभु को दी हैं| परमपिता के यह चारों नाम हम सब के आत्मिक विकास के मुख्य रूप से चार सूत्रों का, चार श्रेणियों का अथवा यूँ कहें कि चार दर्जों का संकेत किया जा रहा है, ऐसा जानो| सब से पूर्व हमने ज्ञान के प्रकाश की याचना की है| यह हितेच्छु-भाव, प्रेरणा और पुरुषार्थ का भाव होना चाहिए| इन दोनों के गुणों को हम यज्ञ के माध्यम से की जा रही पूजा के पालन के लिए ही हो| यह सब करने पर भी कभी यह अवस्था आ सकती है कि तो भी आत्मा इंद्र न बने?


विश्व में वह राजा ही ऐश्वर्यशाली अर्थात् सब प्रकार के धनों का स्वामी होगा, जो इस क्रम के अनुसार ही बुद्धिपूर्वक अर्थात् बुद्धि का प्रयोग करते हुए, प्रेमभाव से भरकर, पुरुषार्थ अर्थात् मेहनत की भावना से पूर्णतया युक्त होकर,अपनी प्रजा का सदा पालन करता रहता है तथा उस प्रजा की शिक्षा की सब प्रकार से उनके ज्ञान का विस्तार करने में लगा रहता है| वह जानता है कि किस प्रकार अपनी प्रजा को मनुष्य बनाया जावे क्योंकि मनुष्य ही किसी राजा की भुजा हुआ करती है| यह कार्य करना वह भली प्रकार से जानता हो| राजा का बल, राजा की शक्ति उसकी प्रजा की शक्ति से ही बनती है| तब ही तो कहा है कि यथा राजा तथा प्रजा| यदि राजा स्वयं ज्ञान का भंडार होगा तो वह अपनी प्रजा को भी ज्ञानी बनावेगा, स्वयं शक्ति का भंडारी होगा तो इस शक्ति को प्रजा में भी बांटेगा और संकट के समय प्रजा की यह शक्ति ही उसके राज्य की रक्षक बन सकेगी अन्यथा राज्य नष्ट हो जावेगा|


परमपिता परमात्मा में यह सब उत्तम गुण है, वह इन सब गुणों का स्वामी है, इस कारण ही उसमें समग्र संसार का शासन करने की क्षमता है और वह इस संसार का शासक है| हमने अग्नि, सोम आदि जो नाम वर्णन किये हैं, इन नामों से प्रभु को संबोधन किया है, यह सब तो उसके बाह्य रूप मात्र ही हैं| जो यज्ञ कर्ता, प्रभु सेवक साधक अध्यात्मिक क्षेत्र में आकर परमपिता की समीपता चाहता है, वह इन सब गुणों, भाव यह कि प्रकाश, मिठास के साथ ही साथ लोकहित के कार्यों को अपनावेगा तो निश्चय ही एक दिन वह परम सिद्धि को पाने में सफल होगा| इन सब भावों को अपने अन्दर स्थापित कर यज्ञमान आगामी क्रिया के अंतर्गत नित्य यज्ञ करते हुए प्रात: तथा सायं की आहुतिया यज्ञ कुण्ड में डाले| यह चोदहवीं क्रिया में आवेंगी|


डा. अशोक आर्य
पाकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन सी.७ वैशाली
२०१०१२ गाजियाबाद उ.प्र.भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६ व्ह्ट्स एप्प ९७१८५२८०६८
E Mail ashokarya1944@rediffmail.com


 


smelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marigge


arayasamaj sanchar nagar 9977987777


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।