मुंशी प्रेमचन्द जी लिखते हैं , 

मुंशी प्रेमचन्द जी लिखते हैं , 


लोग मुझ से कहते हैं तुम भी मूर्ति–पूजक हो। तुम ने भी तो स्वामी दयानन्द का चित्र अपने कमरे में लटका रखा है। माना कि तुम उसे जल नहीं चढ़ाते हो। इसको भोग नहीं लगाते। घण्टा नहीं बजाते। उसे स्नान नहीं कराते। उसका श्रृगांर नहीं करते। उसका स्वांग नहीं बनाते। उसको नमन तो करते ही हो। उसकी ऋषि दयानन्द की विचारधारा को तो सिर झुकाते हो, मानते ही हो। कभी–कभी माला व फलों से भी उसका सम्मान करते हो। यह पूजा नहीं तो और क्या है?’


इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुंशी प्रेमचन्द जी लिखते हैं – ‘उत्तर देता हूं कि श्रीमन् इस आदर व पूजा में अन्तर है। बहुत बड़ा अन्तर है। मैं उसे अपने कक्ष में इसलिए नहीं लटकाये हुए हूं कि उसके दर्शन से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। मैं आवागमन के चक्कर से छूट जाऊगां। उसके दर्शन मात्र से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे अथवा मैं उसे प्रसन्न करके अपना अभियोग (case) जीत जाऊगां अथवा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लूंगा और किसी ढंग से मेरा धार्मिक अथवा सांसारिक प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा। मैं उसे केवल इस कारण से अपने कमरे में लटकाये हुए हूं कि स्वामी जी के जीवन का उच्च व पवित्र आचरण सदा मेरे नयनों के सम्मुख रहे। जिस घड़ी सांसारिक लोगों के व्यवहार से मेरा मन ऊब जाये, जिस समय प्रलोभनों के कारण पग डगमगायें अथवा प्रतिशोध की भावना मेरे मन में लहरें लेने लगे अथवा जीवन की कठिन राहें मेरे साहस व शौर्य की अग्नि को मन्द करने लगें, उस विकट वेला में उस पवित्र मोहिनी मूर्त के दर्शनों से आकुल व्याकुल हृदय को शान्ति हो। दृढ़ता धीरज बने रहें। क्षमा व सहनशीलता के मार्ग पर पग चलते चलें तथा मैं अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इस चित्र से मुझे लाभ पहुंचा है और एक बार नहीं कई बार।


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