तृष्णाओं से मुक्ति

 


 


 


 


 



तृष्णाओं से मुक्ति


भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
( भर्तृहरि वैराग्य १३ )


अर्थात् -- हममें विषयों को नहीं


भोगा , विषयों ने ही हमें भोग लिया । हममें तप नहीं किया , संसार के तापों ने ही हमें तपा दिया । काल तो यहीं पर है , परन्तु हमारे जाने का समय आ गया है । हम जीर्ण हो गये हैं किन्तु अभी भी हमारी तृष्णाएं युवा हैं ।


हम यदि इन तृष्णाओं से मुक्ति चाहते हैं तो हमें योग की शरण लेनी होगी । महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांगयोग का क्रमिक अनुष्ठान करना होगा । यम से आरम्भ करके समाधि तक कि यात्रा पूरी करनी होगी ।


आश्चर्य की बात तो यह है कि ध्यान का अभ्यास कराने वाले आधुनिक धर्मगुरु भी ध्यान और समाधि के लिये यम-नियमों की कोई आवश्यकता नहीं समझते । इतना ही नहीं एक धर्माचार्य तो सम्भोग से ही समाधि खोज रहे हैं । याद रखिये समाधि का प्रथम चरण यम है । यमों को महाव्रत की संज्ञा दी गई है । यदि सम्भोग से समाधि उपजने लगती तब तो पशु पक्षियों की भी समाधि लग जानी चाहिये । इस सम्भोग से समाधि के विचार ने हजारों युवक-युवतियों के जीवन को बर्बाद कर दिया है । घी डाल कर कभी भी अग्नि का शमन नहीं हो सकता । इसी प्रकार भोगों से इन्द्रियों की चंचलता बढ़ती है , कम नहीं होती । तृ्ष्णा के बुझाने का उपाय एक मात्र योग है ।


~ स्वामी वेदानन्द सरस्वती
( सन्ध्या से समाधि ) 














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