मनुस्मृति' में गायत्री

 



 


 


मनुस्मृति' में गायत्री


मनु महाराज ने गायत्री को विशेष महत्त्व दिया है। निम्नलिखित श्लोक देखिए―


सहस्र कृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत् त्रिक्रं द्विजः ।
महतोऽप्येनसो मासात् त्वचेवाहिर्विमुच्यते ।। (2.79)
―जो द्विज एक मास तक बाहर एकान्त स्थान में प्रतिदिन एक हजार बार गायत्री मन्त्र का जप करता है, वह बड़े भारी पाप से भी इस प्रकार छूट जाता है, जैसे साँप कैंचुली से।


त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत् ।
तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ।। (2.77)
―परमेष्ठी प्रजापति ने तीन वेदों से तत् शब्द से आरम्भ होनेवाले गायत्री मन्त्र का एक-एक पाद दुहा।
तत्सवितुर्वरेण्यम्, पहला पाद; भर्गो देवस्य धीमहि, दूसरा पाद; और धियो यो नः प्रचोदयात्,  तीसरा पाद।


एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम् ।
सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते ।। (2.78)
―इस (ओम्) अक्षर को, और भूः भुवः स्वः इन तीनों व्याहृतियों-वाली गायत्री को प्रातः-सायं दोनों समय जपनेवाला विद्वान् वेद के स्वाध्याय से पुण्य को प्राप्त होता है।


एतयर्चा विसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया ।
ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हतां याति साधुषु ।। (2.80)
―इस (गायत्री) ऋचा के जप से रहित और अपनी क्रिया अर्थात् कर्तव्य से छूटा हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भले लोगों में निन्दा का पात्र बनता है।


ओंकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः ।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम् ।। (2.81)
―ओ३म् से आरम्भ होनेवाली, तीन महाव्याहृतियोंवाली और तीन पादवाली गायत्री को वेद का मुख जानना चाहिए।


योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः ।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ।। (2.82)
–जो मनुष्य बिना आलस्य के तीन वर्ष निरन्तर गायत्री का जप करता है, वह मरने के पश्चात् पवन-रुप पवित्र और आकाश-रुप होकर परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।


एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामाः परं तपः ।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ।। (2.83)
―एक ओ३म् अक्षर ही (परब्रह्म) प्रभु-प्राप्ति का बड़ा साधन है। प्राणायाम सबसे बड़ा तप है। गायत्री से बढ़कर कुछ नहीं है। सत्य मौन से बढ़कर है।


क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोति यजतिक्रियाः ।
अक्षरं दुष्करं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः ।। (2.84)
―वेदानुकूल यज्ञ, इष्टियाँ आदि नित्य नहीं, नित्य रहनेवाला कठिनता से जानने योग्य प्रजापति ब्रह्म है; अर्थात् यज्ञादि वैदिक क्रियाओं का फल तो सांसारिक होने से नाशवान् है, गायत्री-ब्रह्म-ज्ञान तो नाशवान् नहीं, ब्रह्मज्ञान निःश्रेयस् है और यज्ञ अभ्युदय।


विधियज्ञाज् जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः ।
उपांशुः स्याच्छतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः ।। (2.85)
―यज्ञों से (गायत्री) जप दस गुणा अच्छा है। उपांशु–बिना शब्द निकाले धीरे-धीरे जप करना सौ गुणा और मन में जप करना हजार गुणा अच्छा है।


मनु भगवान् ने इसके आगे यह बतलाया है कि जितने प्रकार के यज्ञ हैं, वे सारे-के-सारे यज्ञ गायत्री जप के सोलहवें भाग के भी बराबर नहीं। परन्तु यह जप भी तभी सफल होता है, जब गायत्री का साधक अपनी ग्यारह इन्द्रियों को वश में कर ले।
दूसरे अध्याय के 88वें श्लोक से लेकर 103 श्लोक तक इन्द्रियों ही के दमन का वर्णन कर फिर मनु भगवान् कहते हैं―
अपां समीपे नियतो नैत्यिकं विधिमास्थितः ।
सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः ।। (2.104)
―वन में या एकान्त देश में जाकर जलाशय के समीप बैठकर, एकाग्रचित्त होकर नित्यकर्म करता हुआ गायत्री का भी जप करे।


सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्र: सुयन्त्रित: ।
नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ।। (2.118)
―जिस विद्वान् ने अपने-आपको वश में कर लिया है, वह केवल गायत्री मन्त्र जाननेवाला ही अच्छा है। और जो नियम में नहीं वश में रहनेवाला नहीं, सर्वभक्षी है, सर्वविक्रयी है, वह वेदों का ज्ञाता भी अच्छा नहीं।


'मनुस्मृति' के इसी दूसरे अध्याय में यह बतलाया गया है कि जब यज्ञोपवीत धारण करता है, तभी मनुष्य का इसी शरीर के साथ दूसरा जन्म होता है और उस जन्म में माता गायत्री होती है―


तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम् ।
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।। (2.170)
―तब जो इसका ब्रह्म-जन्म है, जिसका चिह्न उपनयन है, वहाँ इसकी माता गायत्री और आचार्य पिता कहलाता है।


भगवान् मनु ने गायत्री के सम्बन्ध में स्पष्ट बतला दिया है कि गायत्री-जप ही सबसे बड़ा जप है, जो भारी-से-भारी पाप अर्थात् कुत्सित वासनाओं से भी मुक्त कर देता है। गायत्री वेद का मुख है, गायत्री वेदों का सार है, गायत्री माता है, गायत्री लौकिक वैभव देनेवाली है, गायत्री मोक्ष देनेवाली है, गायत्री-जप से रहित निन्दा का पात्र है। मानव को सचमुच मानव बनानेवाली गायत्री ही है। 'मनुस्मृति' के ग्यारहवें अध्याय में भी गायत्री-जप की महिमा गायन की गई है। इस ११वें अध्याय में यह प्रसंग है कि कौन-सा पाप कौन-से प्रायश्चित्त से दूर हो सकता है; वहीं सारे व्रतों, सारे प्रायश्चित्तों में गायत्री-जप का विधान है। भगवान् मनु आदेश देते हैं―


सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः ।
सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः ।। (11.225)
―सम्पूर्ण व्रतों में प्रायश्चित्त के लिए श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति नित्य गायत्री तथा पवित्र मन्त्रों का जप करे। 













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