गुरु और ईश्वर

 



 


 


 


गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाँय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
प्रायः हम सभी इस दोहे को जानते और बोलते हैं गायन कर।
किन्तु हम एक भूल कर जाते हैं इसका भाव गुरु तक ही सीमित कर जाते हैं। जबकि गुरु को भी भारी बनाने वाला वही परमगुरू है जो सबको ज्ञान  दे रहा है।
(गुरु और ईश्वर दोनों में से निश्चित ही पैर तो देह से देह के ही छुए जाएंगे इसमें कोई संदेह नहीं,
देहधारी गुरु के देहधारी शिष्य ही छुएगा। और यह भी निश्चित है प्रथम मुलाकात देहधारी गुरु से ही होगी,
परमात्मा तो बाद में अनुभव होगा, वह इन बाह्य इंद्रियों से पकड़ आता नहीं उसके लिए तो देहधारी गुरु रास्ता बता सकते हैं बस, साक्षात तो भीतर स्वयं ही होगा वह।)
 किन्तु परमात्मा की महानता सर्वोत्कृष्टता पर देहधारी गुरु को भारी कर देना यह उचित नहीं।
जबकि गुरु तो मांझी है पतवार को किनारे तक ले जाने का।
लक्ष्य तो किनारा है मंजिल है जिसको सब पाना चाहते हैं।
अतः इस दोहे में कहा- देहधारी  गुरु सम्मान के योग्य है जो मुझे मेरे मूल गुरु अंतिम किनारे परम महान परमात्मा तक पहुंचा रहा है। जो कि गुरुओं का भी गुरु है वस्तुतः उस मांझी को भी ज्ञान वह महान गुरु परमात्मा ही देता है।
अतः देह से झुककर  देहधारी गुरु के पैर अवश्य छू आचरण में उतारने योग्य हैं। क्योंकि उस महान परमात्मा को छुआने वाला वही गुरु है जो उस अशरीर परमात्मा को स्पर्श कर चुका है।
जो श्रोत्रिय है वेदनिष्ठ है योगी है ज्ञानी है विद्वान है।
जो स्वयं को भगवान न कहलवाकर उस परमात्मा की ओर पहुंचाने कटिबद्ध है।।
इसलिये चरण और आचरण के योग्य देहधारी गुरु को हम नमन करते हैं उनकी सेवा सत्कार सम्मान द्वारा सुख पहुंचा नत मस्तक होते हैं।
जिसके द्वारा परमगुरू का रास्ता स्पष्ट होता है।
माना कि गुरु का स्थान ज्येष्ठ है श्रेष्ठ है किंतु परमात्मा का स्थान सर्वोपरि सर्वोत्कृष्ट  सर्वश्रेष्ठ है उसके न कोई बराबर और न बड़ा
क्योंकि वही सच्चिदानंद परमात्मा सब गुरुओं का गुरु-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वदेशीय और पूर्ण है जिसमें कोई कमी नहीं,
अतः ईश्वर और गुरु की परस्पर तुलना ठीक नहीं ।।
-आचार्या विमलेश बंसल आर्या 


















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