षड् रिपुदमन

 



 


 


 


षड् रिपुदमन


लेखक- स्वामी वेदानन्द (दयानन्द) तीर्थ


उलूकयातुं शुशुलुकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र।। -अथर्व० ८/४/२२


शब्दार्थ- उलूकयातुम्= उल्लू की चाल को शुशुलूकयातुम्= भेड़िये की चाल को श्वयातुम्= कुत्ते की चाल को उत= और कोकयातुम्= चिड़े की चाल को सुपर्णयातुम्= गरुड़ की चाल को उत= और गृध्रयातुम्= गिद्ध की चाल को जहि= नाश कर, त्याग दे। हे इन्द्र= ऐश्वर्याभिलाषी आत्मन्! रक्ष:= राक्षस को दृषदा+इव+प्र+मृण= मानो पत्थर से, पत्थर-समान कठोर साधन से मसल दे।


व्याख्या- योगिजन कामक्रोधादि विकारों को पशु-पक्षियों से उपमा देते हैं। उनका यह व्यवहार इस मंत्र के आधार पर है। उलूक- उल्लू अन्धकार से प्रसन्न होता है। अंधकार और मोह एक वस्तु है। मूढ़जन मोह के कारण आज्ञानान्धकार में निमग्न रहना पसंद करते हैं। उलूकयातु का सीधा-सादा अर्थ हुआ मोह। मोह सब पापों का मूल है। वात्स्यायन ऋषि ने लिखा है- मोह: पापीयान्= मोह सबसे बुरा है, राग-द्वेषादि इसी से उत्पन्न होते हैं।


शुशुलूक- भेड़िया। मोह से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। भेड़िया क्रूर होता है, बहुत द्वेषी होता है। शुशुलूकयातुम् का भाव हुआ द्वेष की भावना। द्वेषी मनुष्य में क्रोध की मात्रा बहुत अधिक होती है।


श्वान= कुत्ता। कुत्ते में स्वजातिद्रोह तथा चाटुकारिता बहुत अधिक मात्रा में होती है। स्वजाति-द्रोह द्वेष का ही एक रूप है और मत्सर= जलन के कारण होता है। दूसरे की उन्नति न सह सकना मत्सर है। चाटुकारिता लोभ के कारण होती है। लोभ राग के कारण हुआ करता है। श्वयातु का अभिप्राय हुआ- मत्सरयुक्त लोभवृत्ति। लोभवृत्ति की जब पूर्ति नहीं होती, तो मत्सर और क्रोध उत्पन्न होते हैं।


कोक= चिड़ा। चिड़ा बहुत कामातुर होता है, कोक का अर्थ हंस भी होता है। हंस भी बहुत कामी प्रसिद्ध है। कोकयातु का तात्पर्य हुआ कामवासना।


सुपर्ण= सुंदर परोंवाला गरुड़। गरुड़ पक्षी को अपने सौंदर्य का बहुत अभिमान होता है। सुपर्णयातु का भाव हुआ- अहंकार-वृत्ति-मन।


गृध्र= गिद्ध। गिद्ध बहुत लालची होता है। गृध्रयातुम् का भाव हुआ लोभवृत्ति।


वेद ने इन सबका एक नाम रक्ष:= राक्षस रखा है, अर्थात् मोह, क्रोध, मत्सर, काम, मद और लोभ राक्षस हैं। राक्षस या रक्षस् शब्द का अर्थ है- जिससे अपनी रक्षा की जाए, अपने-आपको बचाया जाए। मोह आदि आत्मा के शत्रु हैं। इनको मार देना चाहिए। जिसे आध्यात्मिक या लौकिक किसी भी प्रकार के ऐश्वर्य की कामना हो, वह इन राक्षसों को मसल दे।मोह आदि में से एक-एक ही बहुत प्रबल एवं प्रचण्ड होता है। यदि किसी मनुष्य पर ये छहों एक साथ आक्रमण कर दें, तो उसकी क्या अवस्था होगी? अतः मनुष्य को सदा सावधान एवं जागरूक रहना चाहिए और इनको नष्ट करना चाहिए- 'प्राक्तो अपाक्तो अधरादुदक्तोऽभि जहि रक्षस: पर्वतेन' [अथर्व ८/४/१९]- आगे से, पीछे से, नीचे से, ऊपर से, सब ओर से राक्षसों को वज्र से मार दे, अर्थात् दुष्टवृत्तियों का सर्वथा सफाया कर दे।


(स्वाध्याय संदोह से साभार) 





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