‘संसार में अनादि पदार्थ कौन-कौन से व कितने हैं

 



 


 


‘संसार में अनादि पदार्थ कौन-कौन से व कितने हैं
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हम संसार में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि अनेक लोकान्तर तथा पृथिवी पर अनेक पदार्थों को देखते हैं। हमें यह जो भौतिक दिखाई देता है वह सृष्टिकर्ता ईश्वर की अपौरुषेय रचना है। वर्तमान में भी कुछ पदार्थ मौलिक तत्वों की परस्पर रासायनिक क्रियाओं वा विकारों से भी बनते हैं। हमारे शास्त्र भौतिक जगत में पांच भूत या भौतिक पदार्थों को मानते हैं। यह हैं पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। सभी भौतिक पदार्थ एक मूल तत्व अनादि तत्व प्रकृति का विकार हैं। इस मूल अनादि तत्व प्रकति का स्वरूप व इसके लक्षण क्या व कैसे, इस पर सांख्य दर्शन में प्रकाश डाला गया है। ऋषि दयानन्द जी ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में सांख्य दर्शन में वर्णित सृष्टि रचना विषय पर प्रकाश डाला है। सांख्य दर्शन का प्रकृति का चित्रण करने वाला मुख्य सूत्र है ‘सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पंचतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पंचतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पंचविंशतिर्गणः।’ इस सूत्र का अर्थ है (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता, यह तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है, उस का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महत्तत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत, इन सब तेईस विकृतियों से चैबीस और पच्चीसवां पुरुष (जीव) और परमेश्वर है। इन में से प्रकृति अविकारिणी और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियां मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीव अनादि व नित्य है। यह जीव प्रकृति के अन्य विकारों के समान बना हुआ कार्य पदार्थ नहीं है। जीव का कोई उपादान कारण-पदार्थ नहीं है और न ही यह जीव किसी अन्य कार्य का कारण है। जीव एक पृथक अविकारिणी सत्ता है। इस प्रकार प्रकृति से इतर संसार में ईश्वर एवं जीव दो अनादि व नित्य सत्तायें हैं जो अविनाशी एवं अमर हैं। यह तीन सत्तायें भाव सत्तायें हैं जिनका कभी अभाव व नाश नहीं होता। 


प्रकृति जड़ पदार्थ है। इसमें विकार किसी चेतन सत्ता की प्रेरणा से ही हो सकता है। उस सत्ता का नाम ईश्वर है। ईश्वर के स्वरूप का चित्रण ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में किया है। नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ईश्वर के लिए न्यायकारी शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य है कि ईश्वर दूसरी अनादि व नित्य चेतन सत्ता ‘जीव’ को उसके पूर्वजन्मों के पाप व पुण्य रूपी कर्मों के अनुसार अनेक योनियों में जन्म देकर सुख व दुःख प्रदान करते हैं। यह भी जानने योग्य तथ्य है कि सृष्टि में जीवों की संख्या मनुष्यों के ज्ञान की दृष्टि से अनन्त है जबकि परमात्मा के ज्ञान में जीवों की संख्या गण्य है। परमात्मा संबंधी कुछ वेदमंत्रों को भी ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। इन मन्त्रों व वेदार्थों से ईश्वर के सत्यस्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। अतः हम इन अर्थों को भी यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक ईश्वर के सत्य स्वरूप का अनुमान कर सकें। प्रथम मन्त्रार्थः हे मनुष्य! जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। उस को तू जान और दूसरे को सृष्टिकर्ता मत मान।1। द्वितीय मन्त्रार्थः यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, सब जगत् आकाशरूप तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से कारणरूप से कार्यरूप कर दिया।।2।। तृतीय मन्त्रार्थः हे मनुष्यो! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ है और होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था। और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्म देव की सभी मनुष्य प्रेम से भक्ति किया करें।।3।। चतुर्थ मन्त्रार्थः हे मनुष्यों! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है।।4।। पंचर्म मन्त्रार्थः जिस परमात्मा की रचना से यह सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं जिस से जीते और जिस में प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म है। उस के जानने की इच्छा मनुष्य करें। 


उपर्युक्त वेद मन्त्रों के अर्थों से ईश्वर का तर्कसंगत सत्यस्वरूप स्पष्ट हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर, जीव तथा प्रकृति विषयक चर्चा विस्तार से की है। अतः सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का यह समुल्लास अवश्य पढ़ना चाहिये। यहां सृष्टि विषयक जो ज्ञान प्राप्त होता है वह संसार के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर भी कठिनता से प्राप्त होता है। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाश का सृष्टि विषयक यह ज्ञान अमृत तुल्य है जिससे सब मनुष्यों को लाभ उठाना चाहिये। यही मनुष्य के कल्याण का कारण है। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द के जीवन काल में बड़े बड़े विद्वान भी इस ज्ञान से वंचित रहते थे और आज ऋषि दयानन्द की कृपा से एक साधारण मनुष्य भी सृष्टि के अधिकांश रहस्यों से युक्त इस महत्वपूर्ण ज्ञान से परिचित एवं विज्ञ है। 


संसार में तीन अनादि पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति हैं। हम पूर्व पंक्तियों में ईश्वर व प्रकृति पर संक्षेप में प्रकाश डाल चुके हैं। अब जीव की चर्चा करना भी उचित होगा। जीव, जीवात्मा अथवा आत्मा एक अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरणधर्मा, अणु परिमाण, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। अनादि व नित्य होने के कारण यह हमेशा से एक समान है। अनन्त काल व्यतीत होने पर भी जीवों के स्वरूप व सामान्य गुण, कर्म व स्वभाव में परिवर्तन नहीं हुआ है। जन्म-मरण धर्मा होने से जीवन अनादि काल से कर्मानुसार अनेक योनियों व लोक लोकान्तरों में जन्म लेता आ रहा है। अनेक बार यह मुक्ति को भी प्राप्त हुआ है। अनुमान है कि संसार में जितनी भी योनियां हैं, उन सब में इसका जन्म हो चुका है। अनन्त काल तक इसी प्रकार से यह सृष्टि उत्पन्न व प्रलय को प्राप्त होती रहेगी और जीव भी इस सृष्टि में विभिन्न योनियों में ईश्वर से अपने कर्मानुसार न्यायपूर्वक जन्म लेते रहेंगे। मुक्तिपर्यन्त जन्म व मरण का चक्र चलता रहता है। मुक्ति के बाद मुक्ति की अवधि पूरी होने पर जीव का पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। यह महत्वपूर्ण ज्ञान ईश्वर ने सभी मनुष्यों के लिये वेदों में प्रस्तुत किया है। यह परम विश्वसनीय ज्ञान है। इस ज्ञान को प्राप्त होकर वेदानुसार जीवन व्यतीत करने में ही मनुष्य का कल्याण होता है। वेदमार्ग से इतर कोई अन्य मार्ग वेदमार्ग के समान महत्वपूर्ण एवं निरापद नहीं है। वेदेतर अन्य जीवन पद्धतियों से मनुष्य कर्म के बन्धनों में अधिकाधिक फंसता व दुःख पाता है जबकि वेदमार्ग पर चलने से मनुष्य जन्म-जन्मान्तरों में अधिक सुख व आनन्द को प्राप्त हो सकता व होता है। सृष्टि के इतिहास में अंकित है कि हमारे सभी विद्वान ऋषि-मुनि जिन्होंने योगाभ्यास व उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार किया था, वेदानुमोदित जीवन पद्धति के ही अनुयायी थे। मनुष्य को ऐसे ही विद्वानों की शिक्षाओं को मानना चाहिये और उसे ही अपने जीवन का आदर्श बनाना चाहिये। इसी में सब मनुष्यों वा जीवों का कल्याण है। 


हमने इस लेख में ईश्वर, जीव व प्रकृति इन तीन अनादि व नित्य सत्ताओं की चर्चा की है। इन तीन सत्ताओं से ही यह सारी सृष्टि बनी है व चल रही है। इसे जानकर व वेदमार्ग को अपनाकर ही मनुष्य जीवन का कल्याण सम्भव है। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य



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