धीर पुरुष बिना अमृत पाए रुकते नहीं

 



 


 


 



 धीर पुरुष बिना अमृत पाए रुकते नहीं🌷


श्रेष्ठ कार्य-सिद्धि के लिए धीर पुरुषों के सामने चाहे कितने ही विघ्न आ पड़ें वे उन विघ्नों को पार करने से पूर्व दम नहीं लेते, विघ्न-बाधाओं के आगे न झुककर वे चलते ही जाते हैं। भर्तृहरि जी ने कहा है―


क्वचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम्
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि: ।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम् ।।
―(नी० श० ८३)


भावार्थ― विचारशील और कार्य को सिद्ध करने वाले व्यक्ति कभी भूमि पर सोते हैं तो कभी पलँग पर सोते हैं, कभी साग-पात पर ही निर्वाह करते हैं तो कभी चावल के भात का भोजन करते हैं, कभी गुदड़ी ओढ़कर दिन बिताते हैं तो कभी सुन्दर वस्त्र धारण करते हैं। ऐसे व्यक्ति सुख और दु:ख को नहीं गिनते। ये व्यक्ति धीरज का सहारा लेकर चलते रहते हैं। 


वे सन्त कबीर के निम्न दोहे को मन में दुहराते हुए चलते रहते हैं―


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब-कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ।
ऋतु आने पर ही फल आता है; माली के द्वारा सौ घड़े सींचने पर भी फल नहीं आयेगा।


मनुष्य विपत्तियों से घबराता है, उनसे बचना चाहता है, परन्तु वे विपत्तियाँ और दु:ख मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। मनुष्य इनसे भयभीत होता है। इनके कारण वह चिन्ता और शोक में डूब जाता है और कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है। सामान्य व्यक्ति की ऐसी स्थिति होती है। परन्तु महान् व्यक्ति विपत्तियों से घबराया नहीं करते, अपितु उनका स्वागत किया करते हैं―


संपत्सु महतां चित्तं भवेदुत्पलकोमलम् ।
आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम् ।।
भावार्थ―महान् पुरुषों का चित्त सम्पन्नता या सुख में कमल की तरह कोमल होता है और विपत्ति में पर्वतों की बड़ी-बड़ी शिलाओं के संघात की भाँति कठोर हो जाता है अर्थात् वे कभी घबराते नहीं।
धैर्य धारण करते हैं। 




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