वीर बन्दा वैरागी

 


 



 


 


वीर बन्दा वैरागी के कर्त्तव्य पर एक दृष्टि क्षितीश वेदालङ्कार - उस दिन दिल्ली नगरी की सजावट कुछ अनोखे ही ढंग की थी। राज दोनों पोर मनुष्यों की इतनी भीड़ थी कि दूर तक नर-मुण्ड ही नर-मुण्ड दीखते लगातार आठ महीने तक अत्यन्त स्वल्प साधनों और मृट्ठी-भर अनाज पर निर्वाह हुए शाही रोना के तीस हजार सैनिकों की जान प्राफत में डाले रखने वाले गुरु वैरागी के सैनिक बंदी बनाकर दिल्ली लाये जा रहे थे। ___ चांदनी चौक के सिरे पर सबसे पहले मुगल सैनिक दिखाई दिए-उनके भालों के ऊपर सैकड़ों सिर लटक रहे थे और उन सिरों से खन टपकता जा रहा था। उनके पीछे, एक हाथी पर लोहे के पिंजरे में सांकलों से कसे हुए बंदा वैरागी का वीर देह दिखाई दिया। उसके मुख पर किसी प्रकार के भय का कोई लेश भी नहीं था। उसने जो लम्बा चोगा पहन रखा था उस पर दाडिम के फलों की सी सुन्दर फुलवाड़ी कढ़ी थी। सिर पर लाल पाग शोभित थी- मानो हृपय के रंग से रंगी हुई हो। बंदा के पीछे नंगी तलवार लिए एक अमलदार खड़ा था। पीछे-पीछे चले पा रहे थे सात सौ चालीस सैनिक-किसी के भी चेहरे 'पर उदासी का नाम नहीं परिणाम को सोचकर पश्चात्ताप की भावना नहीं। कोमल मन के बच्चों और मातानों की आंखों में इस दृश्य को देखकर आंसू उमड़े होंगे। किसी-किसी ने उपहास भी किया होगा। राजभक्त प्रजा के अंश के रूप में किसी ने कहा होगा--"जैसी करनी वैसी भरनी--- बादशाह से दुश्मनी मोल ली है तो उसका फल भी चखो।" पर वन्दियों में से किसी एक के भी चेहरे पर कोई विकार नहीं था। सब के कण्ठों से एक ही आवाज पा रही थी-'अलख निरंजन !' चबूतरे पर प्रतिदिन एक सौ बन्दियों के सिर धड़ से अलग किए जाते थे। प्रत्येक बन्दी निर्भय और प्रसन्न मुख-मृद्रा से जल्लाद के सामने प्राता और आगे बढ़कर कहता कि "पहले मैं, पहले मैं ।" यह वीर-वाणी दिल्ली नगरी के कोट-मंगरो के ऊपर हाती हुई सुदूर पजाब के मैदानों तक फैल गई। तभी एक बड़ा स्त्री ने दिल्ली में प्रवेश किया। थकान, भूख, परिताप, द:ख और हृदय में भरी हुई महावेदना से व्याकुल पर सा अज्ञात पाशा-तन्तु के सहारे लटकते अस्थि-पंजर-सी वह बुढ़िया। अपने जवान बेटे को मौत से बचाने के लिए उसने बादशाह फर्रुखसियर से भेंट का प्रयत्न किया। जब बादशाह से भेंट न हो सकी तो उसने दीवान रतनचंद की. मार्फत सैयद अब्दुल्ला खां वजीर के पास दरखास्तों की झड़ी लगा दी। उसने ग्रांसग्रो से पृथ्वी को भिगो दिया और अपने जवान पुत्र को बचाने के लिए प्राकाश-पाताल क कर दिया"मेरा इकलौता बेटा है। बड़ा भोला है । वह लड़ाई में शामिल नहीं थाउसे पकड़ ले गए और उन्हीं के साथ वह बन्दी बनाकर लाया गया, वह गुरु का नहीं था। मेरा एक ही बेटा है-उसे छोड़ दो, उसे छोड़ दो। मुझे वापिस सोंप मैं अपने खेत में पेड़ की छाया के नीचे उसे रोटी खिलाऊंगी-मेरा बेटा मुझे सौंप वृद्धा के अर्तनाद से सैयद अब्दुल्ला खां वज़ीर का दिल पिघल गयाबादशाह से कह-सुनकर माफीनामा प्राप्त करके बुढ़िया को दे दियावृद्धा माता वादशाही माफीनामा लेकर एक अमलदार के साथ वध-स्थल केचबूतरे के पास पहुंची। सौ मनुष्यों की कतार खड़ो हुई थी और इतने दिनों से बुढ़िया का मातृ-हृदय जिसके लिए लगातार तड़प रहा था वही, दूध-भरे होंठों वाला, कुंवर कन्हैया जैसा सहज श्यामल, नखशिख रूप रूप से भरा, उसका जवान बेटा, ठीक जल्लाद की तलवार के पास खड़ा था। उस वक्त उसकी ही बारी थी.... कोतवाल ने वृद्धा स्त्री के कांपते हुए हाथ से शाही फरमान लिया और उस पर एक नज़र डाली। वृद्धा की प्रांखों से सावन-भादों की झड़ी लगी थी। ___ कोतवाल ने तुरन्त जल्लाद को रुकने का आदेश देकर उसके पास खड़े जवान को इशारे से अपने पास बुलाया और उससे कहा "यह तेरी माता है। जा, तुझे बादशाह की ओर से माफी मिली है। तेरी माता ने लिखकर दरखास्त की थी कि नेरा लड़का लड़ाई में शामिल नहीं था, वह गलती से सिख-सैनिकों के साथ बन्दी बना लिया गया।" ___ और जैसे किसी एकाकी वज्रशिला पर विजली गिरती है वैसे ही रौद्र रूप घारण कर उस जवान ने जवाब दिया-"कौन मां ? किसकी मां ? मेरी मां तो केवल एक ही है और वह है यह भारत माता !" "तो, तू भी गुरदासपुर की लड़ाई में शामिल था ?" सैनिक ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया-"हां ।" जिस लड़ाई में उसके अन्य साथी घास और पत्ते खाकर, और अन्त में मृतपशुओं की हड्डियां खाकर लड़ते रहे, मोर्चे से हटे नहीं, उसी में वह भी शामिल थाइन सैनिकों का राशन समाप्त हो गया था, वीरता नहीं। उसने फिर दृढ़ता से दुहराया----- "हां, मैं उस लड़ाई में शामिल था।" .. शोकभार से दबी वृद्धा माता के मुख से कांपती हुई आवाज़ निकली-"बेटा..." और वह आवाज़ अन्तःकरण को कंपा देने वाले महाविलाप की तरह वायुमडल में गूंज गईसैनिक बेटे ने वज्रवाणी में जवाब दिया"मां ! यो मां ! गुरु गोविन्दसिंह ने अपने चार-लार पुत्र निछावर कर दिए और तुम से एक पुत्र का भी मोह नहीं छूटता ? -अपने इन सात सौ चालीस भाइयो को छोड़कर क्या मैं यहां से अकेला ही वापिस चला जाऊं ? ...... मां ! जाओ, लौट जानो। मुझे अब इस मुक्ति में से वापिस मत लौटायो । ...... जानो मां, जाम्रो । जब तुम मुझे याद करोगी तब अपने खेत के उस जामुन के पेड़ के नीचे, किसी-किसी चांदनी रात में, मैं तुमसे मिलने चला आया करूंगा। .. . ' 'जागो, मां ! जाम्रो !' . हड्डियो को पीसकर उनका पाटा बनाकर खाते हुए भी जिनकी छाती कम्पायमान नहीं हुई थी उन में से भी अनेक लोगों की आंखें गीली हो पायींपर तब तक तो सिंह-शावक की तरह कूदकर वह जवान जल्लाद की तलवार के नीचे जाकर खड़ा हो गया और खिलखिलाकर हंसता हुअा बोला- “यो मुक्त! क्या देखता है। अाज तो पहले मैं !"....... चलायो...... वाह गुरु की फतह !!" यहा अवतार-काय था, उनक जावन का यहा महनाय माहमा पा। भारतीय संस्कृति में जिन महापुरुषों को 'अवतार' की संज्ञा दी गई है, उन सबके साथ यही स्थिति है । आलंकारिक भाषा में कहा जाता है कि भू-भार का हरण करने के लिए उन्होंने अवतार लिया था। यह भू-भार का हरण क्या है ? क्या इसका तात्पर्य दुष्टों, दानवों, राक्षसों का संहार नहीं है ? इनके संहार के बिना 'पृथ्वी का बोझ हल्का कैसे हो सकता है ? इस समस्त पृष्ठभूमि के साथ सोचें तो वीर बन्दा वैरागी का कर्तव्य भी अवतार-परम्परा की ही कोटि में आता है। परन्तु यह कितने बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इस धर्म-रक्षक वीर-शिरोमणि को अवतार कोटि में तो क्या, भारतीय इतिहास केदेदीप्यमान रत्नों में से भी पंक्ति-बाह्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता हैउस जाति की प्रकृतज्ञता का, लिए अपने अस्तित्व को कि हृदय के सिंहासन पर उनि स्मृति में तरह-तरह के करता का भी क्या ठिकाना है जो जाति के अस्तित्व की रक्षा के स्तित्व को तिल-तिल करके मिटा डालने वाले नर-पुंगवों को भी अपने हासन पर उचित स्थान नहीं देती ! अन्य अनेक बलिदानी वीरों की तरह-तरह के स्मारक बनाए जाते हैं, किन्तु इस पुरुष-सिंह की स्मृति को शपनी सहज विस्मरण प्रवृत्ति का शिकार बना दिया है। गुरु तेग बहादुर लिदान जिस स्थान पर हुआ था, उस स्थान पर उस धर्म रक्षक महापुरुष की में स्वर्णशिखर-मण्डित सीसगंज गुरुद्वारा बना है। जिस कोठरी में गुरु तेग बन्दी बनाकर रखे गए थे, फव्वारे के निकट दिल्ली कोतवाली के उस स्थान बी गरुजी की स्मृति की सुरक्षा के लिए सिक्खों को सौंप देने का उचित कार्य किया गया है । दिल्ली प्रशासन ने गुरु तेगबहादुर के साथी भाई मतिदास के अमर बलिदात की स्मृति को जीवित रखने के लिए फव्वारे वाले स्थान का नाम भाई मतिदास चौक रख दिया हैं, न होने से कुछ तो अच्छा ही है। घण्टाघर के पास स्वामी श्रद्धानन्द की मूर्ति भी भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक रहेगी पर जिस चांदनी चौक में उक्त घटनाएं घटीं, उसी चांदनी चौक में वीर बन्दा वैरागी का भी लोमहर्षक बलिदान हना था, यह किसी को भी याद नहीं हैं ? वीर बन्दा वैरागी के बलिदान का वर्णन पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। __


___१६ जून, १८१६ ई० । बन्दा को वधस्थल पर लाया गया। वधस्थल चारों ओर भालों की कतार लगाई और उन भालों पर बन्दा के साथियों के कटे हुए सिर टांग दिए गए । बन्दा के मासूम बच्चे को उसकी गोद में डाला गया और पमा क हाथ में एक लम्बा छरा देकर इससे कहा गया कि इस बच्चे को अपने हाथ स कत्ल करो। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हया तो पास ही खड़े जल्लाद ने छुरी से बन्दा के बच्चे की बोटियां काटीं और वे बन्दा के मुंह में ठूस दीं । बन्दा इस पर भी विचलित नहीं हुआ। मुहम्मद अमीन खां नामक एक मुसलमान अफसर का उसने जाकर बन्दा से कहा--"बन्दा, तुम तो साधु हो और धार्मिक वृत्ति " ९', फिर तुमने मुस्लिम सेना पर इतना अत्याचार कैसे किया ? न तुम अत्याचार करते, न तुम पर यह विपत्ति आती। परन्तु अब भी 'उस्लमान होना स्वीकार कर लो और बादशाह से अपने किये की ला, तो सम्भव हैं कि तम्हें माफ कर दिया जाए।" तब बन्दा ने बड़े दिया- "जब कुछ लोग दुष्टता और अनीति की सीमा पार कर जाते 'ह दण्ड देने के लिए ईश्वर किसी विशिष्ट व्यक्ति को भेजता है। मुझे + ईश्वर का वह प्रादेश मेरे जैसे ईश्वर के इस मामूली बन्दे के द्वारा हो गया।  


पूरा हुया है, इसलिए मैं माफी किस बात की मांग । रही इस्लाम अंगीकार करने की बात । जिस हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मेरी तलवार ने इतनी बार रक्त स्नान किया है उसी हिन्दू धर्म को छोड़ने की न मैं कल्पना कर सकता हूं, न ही किसी के मुख से इस प्रकार की बात सुनने को तैयार हूं। इस शरीर का क्या हैं, यह तो नश्वर है, इसकी विपत्ति की मुझे चिन्ता नहीं है।" ____ जब बन्दा को अपनी प्रास्था में इतना अडिग देखा, तब जैसे शरीर की नश्वरता की चिन्ता न करने की बात की पुष्टि के लिए ही उसके शरीर को इस प्रकार कष्ट दिए गए-- _ पहले उसकी दाई अांख निकाली गई, फिर बाई। फिर उसके हाथ और पर बारी-बारी से काटे गए। फिर आग में गरम करके लाल भभकते चीमटों से उसका खाल नोची गई । लहू-लुहान शरीर की हड्डियां दीखने लगीं। ... तब फिर पूछा गया-"बन्दा, अब भी इस्लाम माफी का रास्ता खुला है। बोलो, क्या कहते हो ?" बन्दा तब भी अविचल रहा । उसके चेहरे पर प्रसन्नता थिरक उठी। उसन अजीब मस्ती के साथ मुक्तकण्ठ से नारा लगाया-'अलख निरंजन ।' ____ और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया।


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