वैदिक लेख
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ भगवदगीता ६/१३
भावार्थ- अपने शरीर, सिर, तथा गर्दन को सीधी रेखा में अचल और स्थिर रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ ध्यान में स्थित हो जाना चाहिए।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ भगवदगीता ६/१४
भावार्थ- हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक भोजन करना चाहिए और न ही कम भोजन करना चाहिए, न ही अधिक सोना चाहिए और न ही अधिक जागते रहना चाहिए।
ओमित्यकाक्षरं ब्रम व्याहरन मामनुस्मरन ।
य: प्रयाति त्यबन् यह् स् याति परमां गतिम् ॥
ओ३म् ८/३१
भावार्थ - जो साधक ओ३म् इस एकाहार् ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ ओ३म् ही का स्मरण करता हुआ देह त्याग करता है वह परमगति को पाता है ।
वेधं पवित्रमोंकारम् ऋक् साम यजुरेव च ॥ भगवदगीता ९/१७
भावार्थ - यह ओ३म्कार् पवित्र है, जानने योग्य है,
उस ब्रह्म का उपदेश प्राप्त करने
ऋग्वद, यजुर्वेद, सामवेद भी जानने योग्य है ।
ओ३म् तत्सदितिनिर्देशाद ब्रामणस्त्रिविध: स्मृत: ॥ भगवदगीता १७/२३
भावार्थ - ओ३म् तत् सत् इन तीन पदो मे ब्रह्म का निर्देश है ।
तस्मादोमित्युदाहत्य यज्ञदानतप: क्रिया: ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्म वादिनम् ॥ भगवदगीता १७/२४
भावार्थ - ओ३म् इस अक्षर का उच्चारण करके ब्रमवेता अधक का विधिपूर्वक यज्ञ,
दान, तप इत्यादि कार्य करे अर्थात् ब्रह्मवेत्ता साधक हरकाम ओ३म् के साथ ही करे ।
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